जन्म –
राजस्थान के प्रशिद्ध लोक देवता वीरवर राठौड़ राय श्री कल्लाजी के नाम से कई भारतवासी परिचित हैं। कल्लाजी का जन्म का विक्रम संवत 1601 में राजस्थान प्रान्त के मेड़ता नगर में हुआ था। इनके पिताजी सामियाना जागीर के राव श्री अचलसिंहजी थे। भक्तिमती मीरा बाई का जन्म भी आपके के ही कुल में हुआ था। वह कल्लाजी की बुआ लगती थी। वीरवर कल्लाजी बड़े प्रतिभा सम्पन्न रणबांकुरे योद्धा हुये है। कहते है इनकी माता श्वेत कुंवर ने शिव पार्वती के आशीर्वाद से उन्हे प्राप्त किया था। इनका जन्म का नाम केसरसिंह था।
शिक्षा –
श्री कल्लाजी ने अश्वारोहण, खडग संचालन, तीर कबाण, ढाल, भाला आदि शस्त्र संचालन में निपुणता पाई। युद्ध कौशल घात – प्रतिघातों में कौशल अर्जित किया साथ ही क्षत्रिय धर्म शिक्षा से भी आत्मसात किया। वीरत्व और नेतृत्व के गुणों से वे अपने साथियों का सिरमौर कहे जाने लगे। उनके शस्त्र संचालन की नैसर्गिक प्रतिभा से उनके पराक्रम का प्रकाश विधुतीय गति से फैलने लगा। जिसे सुनकर ताऊजी एवं बड़ी माता को अपरिमित संतोष का अनुभव हुआ। किन्तु नवरोजे में डोला जा रहा था जिस पर अपनी भावज से जानकारी चाही भावज के मधुर उपालंभ सुन क्रोध में आकर कल्लाजी ने मारवाड़ से प्रस्थान का फैसला किया था।
मारवाड़ से प्रस्थान –
कुंवर कल्लाजी अपनी युवावस्था के प्रारम्भ में अकबर द्वारा थोपी गई कुप्रथाओं का विरोध में मारवाड़ छोड़ मेवाड़ जाने का फैसला करते है। कल्लाजी ने माँ मरुधरा जननी व भाभी को अंतिम प्रणाम कर अश्वारूढ़ हो वायु वेग से मेवाड़ की तरफ प्रस्थान किया।
कुंवर कल्लाजी अपने मित्रों और सजातीय बंधुओं के लिए प्राण समान थे। उनके गृह त्याग के समाचार सुन भ्राता तेजसिंह एवं मित्र रणधीरसिंह, विजयसिंह ने अपने साथियों सहित कल्लाजी के मार्ग पर निकल गयें। इस प्रकार मार्ग में अनुज तेजसिंह मित्र रणधीरसिंह, विजयसिंह सहित साथी कल्लाजी से आ मिले। इस प्रकार सभी वीर मेवाड़ की तरफ बढने लगे।
मेवाड़ में स्वागत –
धन्य जननी जनम्यो कुंवर कल्ला राठौड़
आन बान पर घर छोड्यो, आयो गढ़ चित्तौड़।
इस प्रकार कल्लाजी व उनके मित्र मेवाड़ की वीर भूमि चित्तौड़गढ़ पहुँचते है। तब चित्तौड़ के राणा उदयसिंह व काका जयमलजी ने मिल कर कल्लाजी व अनुज तेजसिंह मित्र रणधीरसिंह, विजयसिंह सहित अन्य साथीयों का मेवाड़ की पावन भूमि पर स्वागत किया। सेनापति जयमल ने आगे बढ़कर कल्लाजी को गले लगा दिया। कल्लाजी ने काका जी के चरण स्पर्श किये। इस अवसर पर राणा उदयसिंह के द्वारा कल्लाजी के शौर्ये, पराक्रम एवं स्वाभिमान को देखकर कल्लाजी को मेवाड़ राज्य के छप्पन परगना रनेला में शांति कायम करने हेतु व सुचारू रूप से शासन हेतु रनेला का जागीरदार घोषित किया।।
प्रथम दर्शन (कृष्ण कान्ता) –
श्री कल्लाजी अपने भाई तेजसिंह व साथीयों सहित अपनी नवीन राजथानी रनेला की ओर प्रस्थान किया। जब कल्लाजी का यह दल वागड़ आ पंहुचता है। तब तेज वर्षा के कारण कल्लाजी व उनके साथीयों ने शिवगढ़ जो की वागड़ राज्य के राव कृष्णदास चौहान की राजकुमारी कृष्णकान्ता के निमंत्रण पर महल में रात्रि विश्राम किया। यही पर कल्लाजी का राजकुमारी कृष्णकान्ता से और तेजसिंह का कृष्णदास के अनुज रामदास की कन्या चपला से प्रथम मिलन हुआ । प्रातः राजकुमारियों ने कुंवरो को विदा किया और क्षत्रिय परम्परा के अनुसार सोमेश्वर महादेव तक पंहुचाने गयी। यही से रनेला की सीमा प्रारम्भ होती है।
की शिव शंकर रे देवरे, कल्ला दीदी धीज।
कृष्णा वेलो आवसू, सावणिया री तीज।।
नवीन राजधानी रनेला में राज्याभिषेक –
कुंवर कल्लाजी राठौड़ व उनके साथियों ने वागड़ से विदा लेकर नवीन राजधानी रनेला में प्रवेश किया। रनेला में ग्रामवासियों की भीड़ कल्लाजी व उनके साथियों के दर्शन व स्वागत हेतु उमड़ पड़ी। कल्लाजी का मधुर गीतों और ढोल व नगाड़ो की आवाज के मध्य राज्यभिषेक हुआ। कल्लाजी ने अपने राज्य में शांति कायम करने हेतु रनेला की आमदनी में बचत व राज्य की सुरक्षा से संबंधित दृढ़ व्यवस्था का कार्य किया। कल्लाजी अपने राज्य की जनता का दुःख दर्द प्रतिदिन सुनते एवं उसका निवारण करने लगे। उस वक्त रनेला के पास भौराई तथा टोकर पालों में दस्युओं ने आतंक फैला रखा था। इनका नेता गमेती पेमला था। दस्युओं ने पड़ोसी गांवों की जनता का धन, अन्न, पशुधन की चोरी एवं कन्याओं का अपहरण कर ले जाते थे जिसे भौराई गढ़ में बन्दी बनाकर देह शोषण किया जाता था।
भौराई गढ़ फतह –
एक दिन डाकूओं ने रनेला क्षेत्र से करीब दो सौ गाय – बैल आदि चुरा कर कर भाग गए। कल्लाजी ने जब दुःखी जनता का वृतान्त सुना तब कल्लाजी ने अपनी मर्यादाओं को ध्यान में रख कर व्यकितगत रूप से पेमला को समझाने हेतु पत्रवाहक के रूप में विजयसिंह को भौराई गढ़ भेजा लेकिन पेमला नही माना।
शूरवीर कल्लाजी ने अपने राज्य की जनता को पेमला के आतंक से मुक्त कराने के लिए भौराई गढ़ पर सेना सहित चढाई कर ली। इस युद्ध में स्वयं कल्लाजी, तेजसिंह, विजयसिंह, रणधीरसिंह सहित कई रनेलावासियों ने भाग लिया। इस युद्ध में स्वयं कृष्णकांता वीर वेष धारण कर बहिन चपला सहित सेना के साथ लड़ाई लड़ रही थी। कल्लाजी के सेनापति रणधीरसिंह ने पेमला सिर धड़ से अलग कर दिया। लगभग 4000 दस्यु और 500 राजपूतों की बलि लेकर रणचण्डी की तृप्ति हुई। इस प्रकार कल्लाजी ने अपने राज्य की प्रजा की पेमला दस्यु से रक्षा की।
भौराई गढ़ विजय के फलस्वरूप महाराणा उदयसिंह के द्वारा कल्लाजी को भौराई और टोकर क्षेत्र व सेनापति रणधीरसिंह को पेमला को सिर काटने के लिये राठौड़ा ग्राम पुरुस्कार स्वरूप दिया गया। इस प्रकार कल्लाजी ने छप्पन धरा के राव की उपाधि धारण की।
गुरु भेरवनाथ के दर्शन –
भौराई गढ़ विजय के अवसर पर कुंवर कल्लाजी अपने अनुज तेजसिंह के साथ सोम नदी के किनारे घूमने निकले थे। कल्लाजी व अनुज तेजसिंह प्रकृति का रमणीय सौन्दर्य को निहारते दोनों अश्वारोही होकर भगवान सोमनाथ के दर्शन कर कुछ ही दूर गये ते की पास की पहाड़ी पर उन्हें एक गुफा दिखाई दी। इस गुफा में कल्लाजी व तेजसिंह ने भीतर जाकर देखा की एक परम तेजस्वी एवं अलौकिक सिद्ध पुरुष श्री भैरवनाथजी अग्नि की धुनी के सामने विराजमान है। कल्लाजी व भ्राता तेजसिंह ने योगिराज भैरवनाथ को प्रणाम किया। भैरवनाथ ने कल्लाजी को देखकर बताया की आप योग विधा के योग्य हो। इसके लिए आप को कठोर साधना करनी होगी। इस प्रकार कल्लाजी अकेले आकर प्रतिदिन गुफा में गुरु भैरवनाथ से योग की शिक्षा ग्रहण करने लगे। गुरु भैरवनाथजी की कृपा से कल्लाजी एक परम तेजस्वी योगिराज हुये। और गुरु की कृपा से कल्लाजी ने भविष्य दर्शन की कला सीखी। इस कला के फलस्वरूप कल्लाजी अपने जीवन की भावी घटनाओं की जानकारी जान लेने पर भी उसे सहज भाव से स्वीकारा।
विवाह –
कुंवर कल्लाजी रनेला की शासन व्यवस्था को सम्भालने के कारण व्यस्थ हो जाते है। जिस से कृष्णकांता कल्लाजी के पत्र, संदेश, समाचार तथा मिलन के अभाव से चिंतित तथा उदास रहती है। जब कृष्णदास को राजकुमारी की चिंता और उदास का राज पता चला तो कृष्णदास ने कुंवर कल्लाजी को राजकुमारी के योग्य समझते हुये कल्लाजी को सम्बन्ध का श्रीफल भेजा। कुंवर कल्लाजी ने श्रीफल स्वीकार किया।
कुछ समय पश्चात ही कुंवर कल्लाजी विवाह की निश्चित तिथि के दिन विवाह के लिए बारातियों सहित शिवगढ़ प्रस्थान किया। कुंवर कल्लाजी दूल्हें की वेशभूषा धारण कर, सिर मोड़ बांधे कर, ढोल नगाडों की धूम के साथ अश्व पर सवार होकर बारात शिवगढ़ लेकर पहुचते है। जब तोरण के मंगलमय समय पर रनेलाधीश कल्लाजी तोरणोच्छेद के लिए तलवार उठाते है । तभी मेवाड़ से सैनिक रण निमंत्रण लेकर आता है। और कहता है की चितौड़ पर अकबर ने विशाल सेना के साथ आक्रमण कर दिया है। चितौड़ पर संकट है। महाराणा और राव जयमल ने मेवाड़ की रक्षा के लिये युद्ध में तुरंत बुलाया है। शूरवीर कल्लाजी ने महाराणा का बीड़ा ग्रहण कर कर्तव्य, स्वामिमान और मातृभूमि की पुकार सुन तोरण पर उठी तलवार पुन: खींच, वैभव, सुख, रूपसी राजकुमारी के ब्याह को छोड़ कल्लाजी राजकुमारी कृष्णकांता से वरमाला ग्रहण कर राजकुमारी को पुनः आकर मिलने का वचन देकर सेना सहित चित्तौड़ प्रस्थान करते है।
घोसुण्डा की लड़ाई –
शूरवीर कल्लाजी राठौड़ अपनी सेना सहित चित्तौड़ की ओर बढने लगे। घोसुण्डा गांव के समीप मुगलों से इनकी मुठभेड़ हो जाती है। इस घामासान लड़ाई को लड़ते – लड़ते वीर कल्लाजी की सेना चितोड़ की तरफ बढने लगी। कुछ आगे जाने पर उनकी भेंट जयमल के छोटे भाई ईश्वरदास राठौरड़ से होती है। वे 2000 वीरों के साथ चितौड़ पर बलिदान हेतु जा रहे थे। परस्पर एकनिष्ठ देश भक्तों को देख कल्लाजी व ईश्वरदास ने मिलकर चित्तौड़ की ओर बढ़ने लगे और चित्तौड़गढ़ पहुंचते है।
जयमलजी को वीर कल्लाजी व ईश्वरदास के चित्तौड़ आने का संदेश प्राप्त होते ही अर्द्ध रात्रि को किले का दरवाजा खोल दिया था। किले के निकट आसिफ खाँ ने मोर्चा लिया था वहीं पर शाही सैनिकों ने उन्हें रोका। श्री कल्लाजी ने उनसे लड़ते – लड़ते रणधीरसिंह से कहा की इन्हें रोकना सेनापति रणधीरसिंह 500 सैनिकों सहित इनसे लड़ते – लड़ते वीरगति प्राप्त होते है। और वीर कल्लाजी शेष सेना सहित किले में प्रवेश कर दिया।
रणधीर रण में जूझियो, एक पडंता चार ।
शीश दिया चित्रकोट पर कर मुगलो रो संहार ।।
सुर शिरोमणी कल्लाजी का चित्तौड़ रक्षार्थ युद्ध
अकबर के आक्रमण की सूचना महाराणा उदयसिंह को युद्ध से पूर्व उनके पुत्र शक्तिसिंह से प्राप्त हो गई थी। जिस कारण महाराणा उदयसिंह ने बदनोर राव जयमल मेड़तिया को दुर्गाध्यक्ष और सेनाध्यक्ष नियत कर दुर्ग की रक्षा का सम्पूर्ण भार उन्ही को सौंप महाराणा उदयसिंह कुंभलगढ़ के सुरक्षित महलों में चले गये।
शूरवीर कल्लाजी अपनी सेना सहित चित्तौड़ दुर्ग में आकार सेनाध्यक्ष जयमल से मिले। दुर्गरक्षक वीर जयमल इनके आगमन पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और वीर कल्लाजी को अपने साथ दुर्ग की रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। वीरवर कल्ला, जयमल, पत्ता और ईश्वरदास आदि अपने प्राणों का मोह छोड़ कर अपनी दोनों भुजाओं से तलवार चलाते हुए देशभक्त, शूरवीर, सैनिकों एवं क्षत्रियों के साथ शत्रुदल पर भूखे शेर की भांति महाकाल बन कर टूट पड़े।
जब बादशाह ने देखा की किला आसानी से प्राप्त नही होगा तो उसने सुरंगे और साबात (यानी जमीन में ढ़के हुए मार्ग जिससे सेना किले की दीवार तक पहुंच सके) बनवाना आरम्भ किया। सुरंगे तलहटी तक पहुंच गई और उनमे 80 मन और दूसरी में 120 मन बारूद भरी गई। इनके छुटने से किले का बुर्ज उड़ गया और कई योद्धा हताहत हुए। परन्तु अब तक अकबर को युद्ध में सफलता नही मिली, अकबर के सैनिकों ने कई जगह किले की दीवारें तोड़ दी, परन्तु राजपूतों ने पुनः बना ली।
राव जयमल की जांघ में गोली लगना –
अकबर की सेना के बार – बार तोपों के आक्रमण से किले की कई दीवारें टूट चुकी थी। एक रात्रि जयमल टूटी हुई प्राचीर की मरम्मत मशाल की रोशनी में करा रहे थे, तब अकबर ने मशाल की रोशनी को देख अपनी “संग्राम” नामक बन्दुक से निशाना साध कर गोली चाला दी, जिसकी गोली राव जयमलजी की जांघ में लगी जिससे जयमल घायल होकर चलने लायक नही रह सके। दुर्ग में सेनाध्यक्ष जयमल के घायल होने से शोक की लहर छा गयी। तीसरा जौहर व शाका –
रात्रि में सभी क्षत्रिय व क्षत्राणियों ने एकत्र होकर शाही फौज का बढता हुआ दबाव, दुर्ग में गोला बारूद की कमी, भोजन की कमी और सेनाध्यक्ष के घायल होने कारण जौहर और शाका का फैसला किया। तारीख 24 फरवरी 1568 को 13000 राजपूत रमणियो और कुमारियों ने गंगा जल का पान कर, चन्दन लेप लगाकर और अपने परिजनों को अंतिम बार मिल कर गीता सार का स्मरण कर हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये हँसते – हँसते जौहर की अग्नि में समर्पित हो गई।
क्षत्रीयों ने दुर्ग के गौमुख में स्नान कर केसरिया बाना धारण कर गंगा जल का पान कर, सुंगधित इत्र का छिड़काव कर व गीता पाठ सुन दो हाथों में तलवार धारण कर विशाल प्रांगन में एकत्रीत हुए।
कसूंबा पान –
बड़े हर्ष और उमंग के साथ चित्तौड़ के साहसी योद्धाओं ने केशरिया वस्त्र धारण कर अमल पान किया। सेनाध्यक्ष राव जयमल ने सरदारों को अमल पान कराया। सेनाध्यक्ष के अन्तिम मनुहार को चित्तौड़ की सेना ने बड़े प्रेम और सत्कार से स्वीकार किया। अब राजपूतों के उत्साह की कोई सीमा न रही। इस युद्ध में घायल सेनापति जयमल को लड़ते – लड़ते युद्ध में वीरगति प्राप्त करने की इच्छा थी। लेकिन गोली जयमल की जांघ में लगी थी। युद्ध करना तो दूर वे चलने – फिरने से भी मजबूर हो गये थे। तब वीर शिरोमणी कल्लाजी राठौड़ ने काका जयमल जी की पीड़ा को दूर करने के किये अपनी पीठ पर बैठा कर युद्ध करने का फैसला किया।
किले के विशाल कपाट को खोलना –
25 फरवरी 1568 की सुबह राजपूतों व क्षत्रियों ने दो हाथों में तलवार धारण कर और नर नाहर शूरवीर राठौड़ रणबंकेश श्री कल्लाजी अपनी दोनों हाथों में भवानी धारण कर 60 साल के काका जयमल जी को अपनी पीठ पर बैठा कर उनके दोनों हाथों में भवानी धारण करा कर मुगलों सेना पर भूखे शेर की तरह किले के विशाल कपाट खोल आक्रमण कर दिया।
क्षत्रियों ने जय एकलिंगनाथ, जय महादेव के नारों के साथ कई मुगलों को मार डाला वही श्री कल्लाजी व वीरवर जयमल जी का चतुर्भुज रूप रणभूमि में कही भी गुजरता वही को शत्रु सेना का मैदान साफ हो जाता। यह देख शत्रु सेना मैदान छोड़ भाग जाती थी।
मतवाले हाथी छोड़ना –
बादशाह अकबर ने मुगल सेना को रणक्षेत्र से पीछे हटते देख राजपूतों पर मतवाले खूनी हाथियों को छोड़ दिया। अकबर ने अपने विशाल हाथियों की सूंड़ो में तलवारें की झालरें और दुधारे खांडे बंधवाई। मधुकर हाथी को सर्वप्रथम आगे बढ़ा कर पीछे जकिया, जगना, जंगिया, अलय, सबदलिया, कादरा आदि हाथी को बढ़ा दिया। इन हाथियों ने राजपूतों का घोर संहार करना आरम्भ कर दिया, लेकिन वीर क्षत्रिय राजपूतों कहा मानने वाले थे। वे भीषण गर्जना कर विशालकाय हाथियों पर खड्ग लेकर टूट पड़ते।
“बढ़त ईसर बाढ़िया बडंग तणे बरियांग
हाड़ न आवे हाथियां कारीगरां रे काम”
इस बीच कई राजपूतों ने मतवाले हाथियों से लड़ते – लड़ते वीरगति प्राप्त की। जिसमे से वीर ईश्वरदास ने असंख्य हाथियों का संहार कर मातृभूमि के चरणों में बलिदान दिया। वही महापराक्रमी पत्ता सिसोदिया रामपोल पर एक हाथी ने उन्हें पकड़ कर जमीन पर जोर से पटक दिया। वही पत्ता सिसोदिया ने वीरगति प्राप्त की।
“सर्वदलन” नामक हाथी जो एक राजपूत सैनिक को सूंड में पकड़ उठा लिया यह देख सुर शिरोमणी कल्लाजी ने तलवार के एक भीषण प्रहार से उस विशालकाय हाथी की सूंड काट दी। हाथी वही धराशायी हो गया। वह राजपूत सैनिक भी उठ खड़ा हुआ।
कल्लाजी का कमधज होना –
मुगल सेना पुरे जोश के साथ राजपूतों का मुकाबला कर रही थी। इस भंयकर युद्ध में सैकडों घाव लगने पर राव जयमल का शरीर निश्चेष्ट हो गया। उनको भैरोंपोल के पास ही भूमि पर रख कर राठौड़ कल्ला पूरे वेग से शत्रुओं की और झपटा। तभी वीर कल्ला तलवारें चलाता हुआ युद्ध कर रहा था की एक मुगल ने पीछें से तलवार चला कर वीर कल्ला का सिर काट दिया। अब बिना सिर के कल्लाजी का कंबध (कमधज) घोर संग्राम करता हुआ दोनों हाथों से तलवार लिये मुगलों की फौज को चीरता जा रहा था। भला इस कंबध को रोकने की शक्ति किसमें थी। शाही फौज रास्ता छोड़ कर खड़ी हो गई। कल्ला का कंबध योग व देवी शक्ति और गुरु आशीर्वाद से कृष्णकांता की याद में आधुनिक मंगलवाड़, कुराबड़, बम्बोरा जगत और जयसमन्द होता हुआ रनेला जा पहुंचा।
मरण नहीं तरण –
शिवगढ़ में राजकुमारी कृष्णकांता ने तपोबल एवं विशुद्ध स्नेहाकर्षण शक्ति से यह अनुभव कर दिया की कल्लाजी ने मेवाड़ रक्षार्थ अपना शीश मातृभूमि को अर्पण कर दिया है। और अपने दिये हुये वचन के कारण मुझसे मिलने आ रहे है। तब कृष्णकांता सोलह श्रृंगार कर बहन चपला के संग शिवगढ़ से विदा लेकर रनेला की ओर बढ़ने लगी। कृष्णकांता प्रिय मिलन को आतुर होकर दुल्हन के रूप रनेला जा पहुंची।
रनेला में कल्लाजी का कबंध नीले घोड़े पर सवार होकर दो हाथों में तलवार लेकर आया। वीर शिरोमणी कल्लाजी ने राजकुमारी को दिये हुये वचन को पूरा करता हुआ रनेला की पावन धरा पर अपना मानव देह त्याग दिया।
विधिवत चन्दन की चिता तैयार की गई। राजपुताना परम्परा के अनुसार कृष्णकांता ने सती होने के लिये कल्लाजी का कबंध को गोद में लेकर चिता में विराजमान हो गई। हाथ जोड़ राजकुमारी ने मन ही मन भगवान को स्मरण किया की मेरे स्वामी का सिर मुझको प्राप्त हो। राजकुमारी के सतीत्व की शक्ति से कल्लाजी का सिर भैरवनाथ व देवीय शक्ति की कृपा से उनकी गोद में आ गया। तब कल्लाजी को शीश कबंध से जोड़ विक्रम संवत 1624 (26 फरवरी 1568) में कल्लाजी के भाई तेजसिंह ने ईश्वर का स्मरण कर चिता में आग लगा दी। इस प्रकार वीर शिरोमणी कल्लाजी और महासती कृष्णकांता का प्रेम आज पुरे विश्व में अमर हो गया।
महावीर कल्लाजी व वीर अग्रणी जयमल की विमल स्मृति एवं निर्मल कीर्ति बनाये रखने के लिए चित्तौड़ किले के भैरोंपोल में जहा कल्लाजी का शीश कटा तथा जहा जयमलजी ने वीरगति प्राप्त की वहा इनकी दो छतरी बनी हुयी है।
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