मंगलवार, 24 मार्च 2015

विरांगना हाड़ी रानी की अनोखी निशानी

राजस्थान के इतिहास की वह घटना है, जब एक रानी ने
विवाह के सिर्फ 7 दिन बाद ही अपना शीश अपने
हाथों से काटकर युद्ध के लिए तैयार अपने पति की
भिजवा दी, ताकि उनका पति अपनी नई नवेली पत्नी
की खूबसूरती में उलझकर अपना कर्तव्य भूल न जाए। कहते
हैं एक पत्नी द्वारा अपने पति को उसका फर्ज याद
दिलाने के लिए किया गया इतिहास में सबसे बड़ा
बलिदान है।
यह रानी कोई और नहीं, बल्कि बूंदी के हाड़ा शासक
की बेटी थी और उदयपुर (मेवाड़) के सलुम्बर ठिकाने के
रावत चूड़ावत की रानी थी। इतिहास में यह हाड़ी
रानी की नाम से प्रसिद्ध है।
हाड़ी रानी का सरदार चूड़ावत से विवाह :
अभी रानी के हाथों की मेंहदी भी नहीं छूटी थी ।
सुबह का वक्त था। रानी सज-धजकर राजा को जगाने
आई। उनकी आखों में नींद की खुमारी साफ झलक रही
थी। रानी ने हंसी ठिठोली से उन्हें जगाना चाहा।
इसी बीच दरबान वहां आकर खड़ा हो गया। राजा का
ध्यान न जाने पर रानी ने कहा, महाराणा का दूत
काफी देर से खड़ा है। वह ठाकुर से तुरंत मिलना चाहते हैं।
आपके लिए कोई आवश्यक पत्र लाया है उसे अभी देना
जरूरी है। असमय दूत के आगमन पर ठाकुर हक्का बक्का रह
गए। वह सोचने लगे कि अवश्य कोई विशेष बात होगी।
राणा को पता है कि वह अभी ही ब्याह कर के लौटे हैं।
आपात की घड़ी ही हो सकती है।
सहसा बैठक में बैठे राणा के दूत पर ठाकुर की निगाह
जा पड़ी। औपचारिकता के बाद ठाकुर ने दूत से कहा,
अरे शार्दूल तू। इतनी सुबह कैसे? क्या भाभी ने घर से
खदेड़ दिया है? सारा मजा फिर किरकिरा कर दिया।
सरदार ने फिर दूत से कहा, तेरी नई भाभी अवश्य तुम पर
नाराज होकर अंदर गई होगी। नई नई है न। इसलिए
बेचारी कुछ नहीं बोली। शार्दूल खुद भी बड़ा हंसोड़
था। वह हंसी मजाक के बिना एक क्षण को भी नहीं रह
सकता था, लेकिन वह बड़ा गंभीर था। दोस्त हंसी
छोड़ो। सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ गई है। मुझे भी
तुरंत वापस लौटना है। यह कहकर सहसा वह चुप हो गया।
अपने इस मित्र के विवाह में बाराती बनकर गया था।
उसके चेहरे पर छाई गंभीरता की रेखाओं को देखकर
हाड़ा सरदार का मन आशंकित हो उठा। सचमुच कुछ
अनहोनी तो नहीं हो गई है! दूत संकोच रहा था कि इस
समय राणा की चिट्ठी वह मित्र को दे या नहीं।
हाड़ी सरदार को तुरंत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का
निर्देश लेकर वह लाया था। उसे मित्र के शब्द स्मरण हो
रहे थे। हाड़ी के पैरों के नाखूनों में लगे महावर की
लाली के निशान अभी भी वैसे के वैसे ही उभरे हुए थे।
नव विवाहित हाड़ी रानी के हाथों की मेंहदी भी
तो अभी सूखी न होगी। पति पत्नी ने एक-दूसरे को
ठीक से देखा पहचाना नहीं होगा। कितना दुखदायी
होगा उनका बिछोह! यह स्मरण करते ही वह सिहर
उठा। पता नहीं युद्ध में क्या हो? वैसे तो राजपूत मृत्यु
को खिलौना ही समझता है। अंत में जी कड़ा करके
उसने हाड़ी सरदार के हाथों में राणा राजसिंह का पत्र
थमा दिया। राणा का उसके लिए संदेश था।
क्या लिखा था पत्र में :
वीरवर। अविलंब अपनी सैन्य टुकड़ी को लेकर औरंगजेब
की सेना को रोको। मुसलमान सेना उसकी सहायता
को आगे बढ़ रही है। इस समय औरंगजेब को मैं घेरे हुए हूं।
उसकी सहायता को बढ़ रही फौज को कुछ समय के
लिए उलझाकर रखना है, ताकि वह शीघ्र ही आगे न बढ़
सके तब तक मैं पूरा काम निपटा लेता हूं। तुम इस कार्य
को बड़ी कुशलता से कर सकते हो। यद्यपि यह बड़ा
खतरनाक है। जान की बाजी भी लगानी पड़ सकती है।
मुझे तुम पर भरोसा है। हाड़ी सरदार के लिए यह
परीक्षा की घड़ी थी। एक ओर मुगलों की विपुल सेना
और उसकी सैनिक टुकड़ी अति अल्प है। राणा राजसिंह
ने मेवाड़ के छीने हुए क्षेत्रों को मुगलों के चंगुल से मुक्त
करा लिया था। औरंगजेब के पिता शाहजहां ने अपनी
पूरी ताकत लगा दी थी। वह चुप होकर बैठ गया था।
अब शासन की बागडोर औरंगजेब के हाथों में आई थी।
इसी बीच एक बात और हो गई थी जिसने राजसिंह और
औरंगजेब को आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया था।
यह संपूर्ण हिन्दू जाति का अपमान था। इस्लाम को
कुबूल करो या हिन्दू बने रहने का दंड भरो। यही कहकर
हिन्दुओं पर उसने जजिया कर लगाया था। राणा
राजसिंह ने इसका विरोध किया था। उनका मन भी
इसे सहन नहीं कर रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कई
अन्य हिन्दू राजाओं ने उसे अपने यहां लागू करने में
आनाकानी की। उनका साहस बढ़ गया था। गुलामी
की जंजीरों को तोड़ फेंकने की अग्नि जो मंद पड़ गई
थी फिर से प्रज्ज्वलित हो गई थी। दक्षिण में
शिवाजी, बुंदेलखंड में छत्रसाल, पंजाब में गुरु गोविंद
सिंह, मारवाड़ में राठौड़ वीर दुर्गादास मुगल सल्तनत
के विरुद्ध उठ खड़े हुए थे। यहां तक कि आमेर के मिर्जा
राजा जयसिंह और मारवाड़ के जसवंत सिंह जो मुगल
सल्तनत के दो प्रमुख स्तंभ थे। उनमें भी स्वतंत्रता
प्रेमियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो गई थी। मुगल
बादशाह ने एक बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर आक्रमण कर
दिया था। राणा राजसिंह ने सेना के तीन भाग किए
थे। मुगल सेना के अरावली में न घुसने देने का दायित्व
अपने बेटे जयसिंह को सौपा था। अजमेर की ओर से
बादशाह को मिलने वाली सहायता को रोकने का
काम दूसरे बेटे भीम सिंह का था। वे स्वयं अकबर और
दुर्गादास राठौड़ के साथ औरंगजेब की सेना पर टूट पड़े
थे। सभी मोर्चों पर उन्हें विजय प्राप्त हुई थी।
बादशाह औरंगजेब की बड़ी प्रिय बेगम बंदी बना ली गईं
थी। बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार औरंगजेब प्राण
बचाकर निकल सका था । मेवाड़ के महाराणा की यह
जीत ऐसी थी कि उनके जीवन काल में फिर कभी
औरंगजेब उनके विरुद्ध सिर न उठा सका था। अब उन्होंने
मुगल सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करन के लिए हाड़ी
सरदार को पत्र लिखा था। वही संदेश लेकर शार्दूल
सिंह मित्र के पास पहुंचा था। एक क्षण का भी विलंब
न करते हुए हाड़ा सरदार ने अपने सैनिकों को कूच करने
का आदेश दे दिया था। अब वह पत्नी से अंतिम विदाई
लेने के लिए उसके पास पहुंचा था।
केसरिया बपहने पहने युद्ध वेष में सजे पति को देखकर
हाड़ी रानी चौंक पड़ीं। उसने पूछा, कहां चले स्वामी?
इतनी जल्दी। अभी तो आप कह रहे थे कि चार छह
महीनों के लिए युद्ध से फुरसत मिली है, आराम से
कटेगी। लेकिन, यह क्या? आश्चर्य मिश्रित शब्दों में
हाड़ी रानी पति से बोली। प्रिय, पति के शौर्य और
पराक्रम को परखने के लिए लिए ही तो क्षत्राणियां
इसी दिन की प्रतीक्षा करती हैं। वह शुभ घड़ी अभी
ही आ गई। देश के शत्रुओं से दो-दो हाथ होने का अवसर
मिला है। मुझे यहां से अविलंब निकलना है। हंसते-हंसते
विदा दो। पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो,
हाड़ी सरदार ने मुस्करा कर पत्नी से कहा। हाड़ी
सरदार का मन आशंकित था। सचमुच ही यदि न लौटा
तो। मेरी इस अर्धांगिनी का क्या होगा? एक ओर
कर्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह। इसी
अन्तर्द्वंद में उसका मन फंसा था। उसने पत्नी को
राणा राजसिंह के पत्र के संबंध में पूरी बात विस्तार से
बता दी थी। विदाई मांगते समय पति का गला भर
आया है यह हाड़ी राना की तेज आंखों से छिपा न रह
सका।
यद्यपि हाड़ा सरदार ने उन आंसुओं को छिपाने की
कोशिश की। हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले
जाता है। उस वीर बाला को यह समझते देर न लगी कि
पति रणभूमि में तो जा रहा है पर मोहग्रस्त होकर। पति
विजयश्री प्राप्त करें इसके लिए उसने कर्तव्य की वेदी
पर अपने मोह की बलि दे दी। वह पति से बोली स्वामी
जरा ठहरिए। मैं अभी आई। वह दौड़ी-दौड़ी अंदर गई और
आरती का थाल सजाया। पति के मस्तक पर टीका
लगाया, उसकी आरती उतारी। वह पति से बोली। मैं
धन्य हो गई, ऐसा वीर पति पाकर। हमारा आपका तो
जन्म जन्मांतर का साथ है। राजपूत रमणियां इसी दिन
के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं, आप जाएं स्वामी। मैं
विजय माला लिए द्वार पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी।
उसने अपने नेत्रों में उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया था।
पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी। चलते-चलते पति
ने कहा, मैं तुमको कोई सुख न दे सका, बस इसका ही दुख
है मुझे। भूल तो नहीं जाओगी ? यदि मैं न रहा तो! उसके
वाक्य पूरे भी न हो पाए थे कि हाड़ी रानी ने उसके
मुख पर हथेली रख दी। न न स्वामी। ऐसी अशुभ बातें न
बोलें। मैं वीर राजपूतनी हूं, फिर वीर की पत्नी भी हूं।
अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं आप निश्चित
होकर प्रस्थान करें। देश के शत्रुओं के दांत खट्टे करें। यही
मेरी प्रार्थना है। इसके बाद रानी उसे एकटक निहारती
रहीं जब तक वह आंखे से ओझल न हो गया। उसके मन में
दुर्बलता का जो तूफान छिपा था जिसे अभी तक उसने
बरबस रोक रखा था वह आंखों से बह निकला। हाड़ी
सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बातें करता उड़ा जा
रहा था, किन्तु उसके मन में रह रहकर आ रहा था कि
कहीं सचमुच मेरी पत्नी मुझे भुला न दें? वह मन को
समझाता, पर उसक ध्यान उधर ही चला जाता। अंत में
उससे रहा न गया। उसने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त
सैनिकों के रानी के पास भेजा। उसको फिर से स्मरण
कराया था कि मुझे भूलना मत। मैं जरूर लौटूंगा। संदेश
वाहक को आश्वस्त कर रानी ने लौटाया। दूसर दिन
एक और वाहक आया। फिर वही बात। तीसरे दिन फिर
एक आया। इस बार वह पत्नी के नाम सरदार का पत्र
लाया था। प्रिय मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं।
अंगद के समान पैर जमारक उनको रोक दिया है। मजाल
है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं। यह तो तुम्हारे रक्षा
कवच का प्रताप है। पर तुम्हारे बड़ी याद आ रही है। पत्र
वाहक द्वारा कोई अपनी प्रिय निशानी अवश्य भेज
देना। उसे ही देखकर मैं मन को हल्का कर लिया करुंगा।
हाड़ी रानी पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गईं।
युद्धरत पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा उनके
नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह
शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे। विजय श्री का वरण कैसे करेंगे? उसके
मन में एक विचार कौंधा। वह सैनिक से बोली वीर ? मैं
तुम्हें अपनी अंतिम निशान दे रही हूं। इसे ले जाकर उन्हें दे
देना। थाल में सजाकर सुंदर वस्त्र से ढककर अपने वीर
सेनापति के पास पहुंचा देना। किन्तु इसे कोई और न
देखे। वही खोल कर देखें। साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना।
हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था- प्रिय, मैं तुम्हें अपनी
अंतिम निशानी भेज रही हूं। तुम्हारे मोह के सभी बंधनों
को काट रही हूं। अब बेफिक्र होकर अपने कर्तव्य का
पालन करें। पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपने कमर से
तलवार निकाल, एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया।
वह धरती पर लुढ़क पड़ा। सिपाही के नेत्रों से
अश्रुधारा बह निकली। कर्तव्य कर्म कठोर होता है,
सैनिक ने स्वर्ण थाल में हाड़ी रानी के कटे सिर को
सजाया। सुहाग के चूनर से उसको ढका। भारी मन से
युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा। उसको देखकर हाड़ी
सरदार स्तब्ध रह गया, उसे समझ में न आया कि उसके
नेत्रों से अश्रुधारा क्यों बह रही है? धीरे से वह बोला
क्यों यदुसिंह। रानी की निशानी ले आए? यदु ने कांपते
हाथों से थाल उसकी ओर बढ़ा दिया। हाड़ी सरदार
फटी आंखों से पत्नी का सिर देखता रह गया। उसके मुख
से केवल इतना निकला उफ् हाय रानी। तुमने यह क्या कर
डाला। संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली! खैर,
मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं।
हाड़ी सरदार के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे। वह शत्रु पर
टूट पड़ा। इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया था कि
उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन है। जीवन की
आखिरी सांस तक वह लंड़ता रहा। औरंगजेब की सहायक
सेना को उसने आगे नहीं बढऩे दिया, जब तक मुगल
बादशाह मैदान छोड़कर भाग नहीं गया था। इस विजय
का श्रेय आप किसे देना चाहेंगे? राणा राजसिंह को
या हाड़ी सरदार को? हाड़ी रानी को अथवा उसकी
इस अनोखी निशानी को?

1 टिप्पणी: