गुरुवार, 25 जून 2015

वीरांगना राजपूतानी किरण देवी जिसके आगे अकबर ने

राजपूत पुरुष जीतनी अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध थे उतनी ही प्रसिद्ध थी राजपूती महिलायें। इतिहास में अनेकों ऐसी कहानियां है जो इनकी वीरता व अदम्य साहस को प्रमाणित करती है। आज हम आपको एक ऐसी ही ऐतिहासिक कहानी बताएँगे जब एक राजपूत वीरांगना 'किरण देवी' ने अकबर को अपने प्राणों की भीख मांगने पर मजबूर कर दिया था।
अकबर प्रतिवर्ष दिल्ली में नौरोज के मेले का आयोजन करता था, जिसमें वह सुंदर युवतियों को खोजता था, और उनसे अपने शरीर की भूख शांत करता है।
  एक बार अकबर नौरोज के मेले में बुरका पहनकर सुंदर स्त्रियों की खोज कर ही रहा था, कि उसकी नजर मेले में घूम रही किरणदेवी पर जा पड़ी। वह किरणदेवी के रमणीय रूप पर मोहित हो गया। किरणदेवी मेवाड़ के महाराणा प्रतापसिंह के छोटे भाई शक्तिसिंह की पुत्री थी और उसका विवाह बीकानेर के प्रसिद्ध राजपूत वंश में उत्पन्न पृथ्वीराज राठौर के साथ हुआ था। अकबर ने बाद में किरणदेवी का पता लगा लिया कि यह तो अपने ही सेवक की बीबी है, तो उसने पृथ्वीराज राठौर को जंग पर भेज दिया और किरण देवी को अपनी दूतियों के द्वारा, बहाने से महल में आने का निमंत्रण दिया।
  अब किरणदेवी पहुंची अकबर के महल में, तो स्वागत तो होना ही था और इन शब्दो में हुआ,
‘‘हम तुम्हें अपनी बेगम बनाना चाहते हैं।’’ कहता हुआ अकबर आगे बढ़ा, तो किरणदेवी पीछे को हटी...अकबर आगे बढ़ते गया और किरणदेवी उल्टे पांव पीछे हटती गयी...लेकिन कब तक हटती बेचारी पीछे को...उसकी कमर दीवार से जा ली।
‘‘बचकर कहाँ जाओगी,’’ अकबर मुस्कुराया, ‘‘ऐसा मौका फिर कब मिलेगा, तुम्हारी जगह पृथ्वीराज के झोंपड़ा में नहीं हमारा ही महल में है’’ ‘‘हे भगवान, ’’ किरणदेवी ने मन-ही-मन में सोचा, ‘‘इस राक्षस से अपनी इज्जत आबरू कैसे बचाउ?’’ ‘‘हे धरती माता, किसी म्लेच्छ के हाथों अपवित्र होने से पहले मुझे सीता की तरह अपनी गोद में ले लो।’’ व्यथा से कहते हुए उसकी आँखों से अश्रूधारा बहने लगी और निसहाय बनी धरती की ओर देखने लगी, तभी उसकी नजर कालीन पर पड़ी। उसने कालीन का किनारा पकड़कर उसे जोरदार झटका दिया। उसके ऐसा करते ही अकबर जो कालीन पर चल रहा था, पैर उलझने पर वह पीछे को सरपट गिर पड़ गया, ‘‘या अल्लाह!’’ उसके इतना कहते ही किरणदेवी को संभलने का मौका मिल गया और वह उछलकर अकबर की छाती पर जा बैठी और अपनी आंगी से कटार निकालकर उसे अकबर की गर्दन पर रखकर बोली,
  अब बोलो शहंशाह, तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है? किसी स्त्री से अपनी हवश मिटाने की या कुछ ओर?’’ एकांत महल में गर्दन से सटी कटार को और क्रोध में दहाडती किरणदेवी को देखकर अकबर भयभीत हो गया।

एक कवि ने उस स्थिति का चित्र इन शब्दों में खींचा है:
सिंहनी-सी झपट, दपट चढ़ी छाती पर,
मानो शठ दानव पर दुर्गा तेजधारी है।
गर्जकर बोली दुष्ट! मीना के बाजार में मिस,
छीना अबलाओं का सतीत्व दुराचारी है।
अकबर! आज राजपूतानी से पाला पड़ा,
पाजी चालबाजी सब भूलती तिहारी है।
करले खुदा को याद भेजती यमालय को,
देख! यह प्यासी तेरे खून की कटारी है। "

"मुझे माफ कर दो दुर्गा माता,’’ मुगल सम्राट अकबर गिड़गिड़ाया, ‘‘तुम निश्चय ही दुर्गा हो, कोई साधारण नारी नहीं, मैं तुमसे प्राणों की भीख माँगता हूँ। यही मैं मर गया तो यह देश अनाथ हो जाएगा।’’ ‘‘ओह!’’ किरणदेवी बोली, ‘‘देश अनाथ हो जाएगा, जब इस देश में म्लेच्छ आक्रांता नहीं आए थे, तब क्या इसके सिर पर किसी के आशीष का हाथ नहीं था?’’ ‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है,’’ अकबर फिर गिड़गिड़ाया, ‘‘पर आज देश की ऐसी स्थिति है कि मुझे कुछ हो गया तो यह बर्बाद हो जाएगा।’’ ‘‘अरे मूर्ख देश को बर्बाद तो तुम कर रहे हो, तुम्हारे जाने से तो यह आबाद हो जाएगा।
महाराणा जैसे बहुत हैं, अभी यहाँ स्वतंत्रता के उपासक।’’
‘‘हाँ हैं,’’ वह फिर बोला, ‘‘लेकिन आर्य कभी किसी का नमक खाकर नमक हरामी नहीं करते।’’ ‘‘नमक हरामी,’’ किरणदेवी बोली, ‘‘तुम कहना क्या चाहते हो?’’ ‘‘तुम्हारे पति ने रामायण पर हाथ रखकर मरते समय तक वफादारी का कसम खायी थी और तुमने भी प्रीतिभोज में मेरे यहाँ भोजन किया था, फिर यदि तुम मेरी हत्या कर दोगी तो क्या यह विश्वासघात या नमकहरामी नहीं होगी?’’

विश्वासघाती से विश्वासघात करना कोई अधर्म नहीं है दुष्ट,’’ किरणदेवी फिर गरजी, ‘‘तुम कौनसे दूध के धुले हो?’’ ‘‘हाँ मैं दूध का धुला हुआ नहीं, पर मुझे क्षमा कर दो, हिन्दुओं के धर्म के दस लक्षणों मेें क्षमा भी एक है, इसलिए तुम्हें तुम्हारे धर्म की कसम, मुझे अपनी गौ समझकर क्षमा कर दो।’’
पापी अपनी तुलना हमारी पवित्र गौ से मत करो,’’ फिर वह थोड़ी सी नरम पड़ गयी, ‘‘यदि तुम आज अपनी मौत और मेरी कटारी के बीच में धर्म और गाय को नहीं लाते तो मैं सचमुच तुम्हें मारकर धरती का भार हल्का कर देती।’’ फिर चेतावनी देते हुए बोली, ‘‘आज भले ही सारा भारत तुम्हारे पांवों पर शीश झुकाता हो?
किंतु मेवाड़ का सिसोदिया वंश आज भी अपना सिर उचा किए खड़ा है। मैं उसी राजवंश की कन्या हूँ। मेरी धमनियों में बप्पा रावल और राणा सांगा का रक्त बह रहा है। हम राजपूत रमणियाँ अपने प्राणों से अधिक अपनी मर्यादा को मानती हैं और उसके लिए मर भी सकती हैं और मार भी सकती हैं।
  यदि तु आज बचना चाहता है तो अपनी माँ और कुरान की सच्ची कसम खाकर प्रतिज्ञा कर कि आगे से नौरोज मेला नहीं लगाएगा और किसी महिला की इज्जत नहीं लूटेगा। यदि तुझे यह स्वीकार नहीं है, तो मैं अभी तेरे प्राण ले लूंगी, भले ही तूने हिन्दू धर्म और गौ की दुहाई दी हो। मुझे अपनी मृत्यु का भय नहीं है।
अकबर को वास्तव में अनुभव हुआ कि तू मृत्यु के पाश में जकड़ा जा चुका है। जीवन और मौत का फासला मिट गया था। उसने माँ की कसम खाकर किरणदेवी की बात को माँ लिया,
मुझे मेरी माँ की सौगंध, मैं आज से संसार की सब स्त्राी जाति को अपनी बेटी समझूँगा और किसी भी स्त्राी के सामने आते ही मेरा सिर झुका जाएगा, भले ही कोई नवजात कन्या भी हो और कुरान-ए-पाक की कसम खाकर कहता हूँ कि आज ही नौरोज मेला बंद कराने का फरमान जारी कर दूँगा।"
  वीर पतिव्रता किरणदेवी ने दया करके अकबर को छोड़ दिया और तुरन्त अपने महल में लौट आयी। इस प्रकार एक पतिव्रता और साहसी महिला ने प्राणों की बाजी लगाकर न केवल अपनी इज्जत की रक्षा की, अपित भविष्य में नारियों को उसकी वासना का शिकार बनने से भी बचा लिया। और उसके बाद वास्तव में नौरोज मेला बंद हो गया। अकबर जैसे सम्राट को भी मेला बंद कर देने के लिए विवश कर देने वाली इस वीरांगना का साहस प्रशंसनीय है।

बुधवार, 24 जून 2015

महाराणी शूरवीर दुर्गावती

१. बाल्यावस्था से ही शूर, बुद्धिमान और साहसी रानी दुर्गावती
२. रानी दुर्गावती ने गोंड राजवंशव की बागडोर (लगाम) थाम ली
३. आक्रमणकारी बाजबहादुर जैसे
शक्तिशाली राजा को युद्ध में हराना
४. अकबर का सेनानी तीन बार रानि से पराजित
५. गोंडवाना की स्वतंत्रता के लिए आत्मबलिदान देनेवा ली रानी
    गोंडवानाको स्वतंत्र करने हेतु जिसने प्राणांतिक युद्ध किया और जिसके रुधिर की प्रत्येक बूंद में गोंडवाना के स्वतंत्रता की लालसा थी, वह रणरागिनी थी महारानी दुर्गावती । उनका इतिहास हमें नित्य प्रेरणादायी है ।

 

१. बाल्यावस्थासे ही शूर, बुद्धिमान और साहसी रानी दुर्गावती

रानी दुर्गावती का जन्म १० जून, १५२५ को तथा हिंदु कालगणनानुसार आषाढ शुक्ल द्वितीया को चंदेल राजा कीर्ति सिंह तथा रानी कमलावती के गर्भ से हुआ । वे बाल्यावस्था से ही शूर, बुद्धिमान और साहसी थीं । उन्होंने युद्धकला का प्रशिक्षण भी उसी समय लिया । प्रचाप (बंदूक) भाला, तलवार और धनुष-बाण चलाने में वह प्रवीण थी । गोंड राज्य के शिल्पकार राजा संग्रामसिंह बहुत शूर तथा पराक्रमी थे । उनके सुपुत्र वीरदलपतिसिंह का विवाह रानी दुर्गावती के साथ वर्ष १५४२ में हुआ । वर्ष १५४१ में राजा संग्राम सिंह का निधन होने से राज्य का कार्यकाज वीरदलपति सिंह ही देखते थे । उन दोनों का वैवाहिक जीवन ७-८ वर्ष अच्छे से चल रहा था । इसी कालावधि में उन्हें वीरनारायण सिंह नामक एक सुपुत्र भी हुआ ।

 

२. रानी दुर्गावतीने गोंड राजवंशवकी बागडोर (लगाम) थाम ली

दलपतशाह की मृत्यु लगभग १५५० ईसवी सदी में हुई । उस समय वीर नारायण की आयु बहुत अल्प होने के कारण, रानी दुर्गावती ने गोंड राज्यकी बागडोर (लगाम) अपने हाथों में थाम ली । अधर कायस्थ एवं मन ठाकुर, इन दो मंत्रियों ने सफलतापूर्वक तथा प्रभावी रूप से राज्य का प्रशासन चलाने में रानी की मदद की । रानी ने सिंगौरगढ से अपनी राजधानी चौरागढ स्थानांतरित की । सातपुडा पर्वतसे घिरे इस दुर्ग का (किले का) रणनीतिकी दृष्टि से बडा महत्त्व था ।

कहा जाता है कि इस कालावधि में व्यापार बडा फूला-फला । प्रजा संपन्न एवं समृद्ध थी । अपने पति के पूर्वजों की तरह रानी ने भी राज्य की सीमा बढाई तथा बडी कुशलता, उदारता एवं साहस के साथ गोंडवन का राजनैतिक एकीकरण ( गर्‍हा-काटंगा) प्रस्थापित किया । राज्य के २३००० गांवों में से १२००० गांवों का व्यवस्थापन उसकी सरकार करती थी । अच्छी तरह से सुसज्जित सेना में २०,००० घुडसवार तथा १००० हाथीदल के साध बडी संख्या में पैदल सेना भी अंतर्भूत थी । रानी दुर्गावती में सौंदर्य एवं उदारता का धैर्य एवं बुद्धिमत्ता का सुंदर संगम था । अपनी प्रजा के सुखके लिए उन्होंने राज्य में कई काम करवाए तथा अपनी प्रजा का ह्रदय (दिल) जीत लिया । जबलपुर के निकट ‘रानीताल’ नामका भव्य जलाशय बनवाया । उनकी पहल से प्रेरित होकर उनके अनुयायियों ने चेरीतल का निर्माण किया तथा अधर कायस्थ ने जबलपुर से तीन मील की दूरी पर अधरतल का निर्माण किया । उन्होंने अपने राज्य में अध्ययन को भी बढावा दिया ।

 

३. आक्रमणकारी बाजबहादुर जैसे शक्तिशाली राजाको युद्ध में हराना

राजा दलपतिसिंह के निधन के उपरांत कुछ शत्रुओं की कुदृष्टि इस समृद्धशाली राज्य पर पडी । मालवा का मांडलिक राजा बाजबहादुर ने विचार किया, हम एक दिन में गोंडवाना अपने अधिकार में लेंगे । उसने बडी आशा से गोंडवाना पर आक्रमण किया; परंतु रानी ने उसे पराजित किया । उसका कारण था रानी का संगठन चातुर्य । रानी दुर्गावती द्वारा बाजबहादुर जैसे शक्तिशाली राजा को युद्ध में हराने से उसकी कीर्ति सर्वदूर फैल गई । सम्राट अकबर के कानों तक जब पहुंची तो वह चकित हो गया । रानी का साहस और पराक्रम देखकर उसके प्रति आदर व्यक्त करनेके लिए अपनी राजसभा के (दरबार) विद्वान `गोमहापात्र’ तथा `नरहरिमहापात्र’ को रानी की राजसभा में भेज दिया । रानी ने भी उन्हें आदर तथा पुरस्कार देकर सम्मानित किया । इससे अकबर ने सन् १५४० में वीरनारायणसिंह को  राज्य का शासक मानकर स्वीकार किया । इस प्रकार से शक्तिशाली राज्य से मित्रता बढने लगी । रानी तलवार की अपेक्षा बंदूक का प्रयोग अधिक करती थी । बंदूक से लक्ष्य साधने में वह अधिक दक्ष थी । ‘एक गोली एक बली’, ऐसी उनकी आखेट की पद्धति थी । रानी दुर्गावती राज्यकार्य संभालने में बहुत चतुर, पराक्रमी और दूरदर्शी थी ।

 

४. अकबरका सेनानी तीन बार रानिसे पराजित

अकबरने वर्ष १५६३ में आसफ खान नामक बलाढ्य सेनानी को (सरदार) गोंडवानापर आक्रमण करने भेज दिया । यह समाचार मिलते ही रानी ने अपनी व्यूहरचना आरंभ कर दी । सर्वप्रथम अपने विश्वसनीय दूतों द्वारा अपने मांडलिक राजाओं तथा सेनानायकों को सावधान हो जाने की सूचनाएं भेज दीं । अपनी सेना की कुछ टुकडियों को घने जंगल में छिपा रखा और शेष को अपने साथ लेकर रानी निकल पडी । रानी ने सैनिकों को मार्गदर्शन किया । एक पर्वत की तलहटी पर आसफ खान और रानी दुर्गावती का सामना हुआ । बडे आवेश से युद्ध हुआ । मुगल सेना विशाल थी । उसमें बंदूकधारी सैनिक अधिक थे । इस कारण रानी के सैनिक मरने लगे; परंतु इतने में जंगल में छिपी सेना ने अचानक धनुष-बाण से आक्रमण कर, बाणों की वर्षा की । इससे मुगल सेना को भारी क्षति पहुंची और रानी दुर्गावती ने आसफ खान को पराजित किया । आसफ खानने एक वर्ष की अवधि में ३ बार आक्रमण किया और तीनों ही बार वह पराजित हुआ ।

 

५. गोंडवानाकी स्वतंत्रताके लिए आत्मबलिदान देनेवाली रानी

अंत में वर्ष १५६४ में आसफखान ने सिंगारगढ पर घेरा डाला; परंतु रानी वहां से भागने में सफल हुई । यह समाचार पाते ही आसफखान ने रानीका पीछा किया । पुनः युद्ध आरंभ हो गया । दोनो ओर से सैनिकों को भारी क्षति पहुंची । रानी प्राणों पर खेलकर युद्ध कर रही थीं । इतने में रानीके पुत्र वीरनारायण सिंह के अत्यंत घायल होने का समाचार सुनकर सेना में भगदड मच गई । सैनिक भागने लगे । रानी के पास केवल ३०० सैनिक थे । उन्हीं सैनिकों के साथ रानी स्वयं घायल होने पर भी आसफखान से शौर्य से लड रही थी । उसकी अवस्था और परिस्थिति देखकर सैनिकोंने उसे सुरक्षित स्थान पर चलने की विनती की; परंतु रानी ने कहा, ‘‘मैं युद्ध भूमि छोडकर नहीं जाऊंगी, इस युद्ध में मुझे विजय अथवा मृत्यु में से एक चाहिए ।” अंतमें घायल तथा थकी हुई अवस्था में उसने एक सैनिक को पास बुलाकर कहा, “अब हमसे तलवार घुमाना असंभव है; परंतु हमारे शरीर का नख भी शत्रु के हाथ न लगे, यही हमारी अंतिम इच्छा है । इसलिए आप भाले से हमें मार दीजिए । हमें वीरमृत्यु चाहिए और वह आप हमें दीजिए”; परंतु सैनिक वह साहस न कर सका, तो रानी ने स्वयं ही अपने पास कटार को सीने में गौंप दी।

   वह दिन था २४ जून १५६४ का, इस प्रकार युद्ध भूमि पर गोंडवाना के लिए अर्थात् अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अंतिम क्षण तक वह झूझती रही । गोंडवाना पर वर्ष १९४९ से १५६४ अर्थात् १५ वर्ष तक रानी दुर्गावती का अधिराज्य था, जो मुगलों ने नष्ट किया । इस प्रकार महान पराक्रमी रानी दुर्गावती का अंत हुआ । इस महान वीरांगना को हमारा शतशः प्रणाम !

जिस स्थानपर उन्होंने अपने प्राण त्याग किए, वह स्थान स्वतंत्रता सेनानियों के लिए निरंतर प्रेरणा का स्रोत रहा है ।
उनकी स्मृति में १९८३ में मध्यप्रदेश सरकार ने जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय रखा ।
इस बहादुर रानी के नामपर भारत सरकार ने २४ जून १९८८ को डाक का टिकट प्रचलित कर (जारी कर) उनके बलिदान को श्रद्धांजली अर्पित की

सोमवार, 22 जून 2015

सम्राट भोज परमार

जब सृष्टि नहीं थी,धरती नहीं थी,जीवन नहीं था,
प्रकाश नहीं था,न जल था,न थल तब भी एक
ओज व्याप्त था | इसी ओज से सृष्टि ने आकार
लिया और यही प्राणियों के सृजन का सूत्र है |
समस्त भारत के ओज और गौरव का प्रतिबिम्ब
हैं राजा भोज | ये महानायक भारत कि संस्कृति
में,साहित्य में,लोक-जीवन में,भाषा में और जीवन
के प्रत्येक अंग और रंग में विद्यमान हैं ये
वास्तुविद्या और भोजपुरी भाषा और संस्कृति के
जनक हैं |
लोक-मानस में लोकप्रिय भोज से भोजदेव बने
जन-नायक राजा भोज का क्रुतित्व,अतुल्य वैभव
है | 965 इसवी में मालवा प्रदेश कि ऐतिहासिक
नगरी उज्जैनी में परमार वंश के राजा मुंज के
अनुज सिन्धुराज के घर इनका जन्म हुआ |
वररूचि ने घोषणा कि यह बालक 55 वर्ष 7
माह गौड़-बंगाल सहित दक्षिण देश तक राज
करेगा | पूर्व में महाराजा विक्रमादित्य के शौर्य
और पराक्रम से समृद्ध उज्जैन नगरी में पांच
वर्ष की आयु से भोज का विद्या अध्ययन
आरम्भ हुआ इसी पावस धरती पर कृष्ण,
बलराम और सुदामा ने भी शिक्षा पायी थी |
बालक भोज के मेधावी प्रताप से गुरुकुल
दमकने लगा | भोज कि अद्भुत प्रतिभा को
देख गुरुजन विस्मित थे | मात्र आठ वर्ष कि
आयु में एक विलक्षण बालक ने समस्त
विद्या,कला और आयुर्विज्ञान का ज्ञान प्राप्त
कर लिया | भोज कि तेजस्विता को द्देख
राजा मुंज का ह्रदय काँप उठा | सत्ता कि
लालसा में वाग्पति मुंज भ्रमित हो गए और
उन्होंने भोज कि हत्या का आदेश दे दिया |
भला भविष्य के सत्य को खड़ा होने से कौन
रोक सकता है !?!
काल कि प्रेरणा से मंत्री वत्सराज और चंडाल
ने बालक भोज को बचा कर सुरक्षित स्थान
पर पहुंचा दिया | महाराज मुंज के दरबार में
भोज का कृत्रिम शीश और लिखा पत्र प्रस्तुत
किया गया | पत्र पढ़ते ही मुंज का ह्रदय
जागा, वे स्वयं को धिक्कारने लगे,पुत्र-घात
कि ग्लानी में आत्मघात करने को आतुर हो
उठे तभी क्षमा-याचना के साथ मंत्री वत्सराज
ने भोज के जीवित होने कि सूचना दी | अपने
चाचा कि विचलित अवस्था देख भोज उनके
गले लग गए | महाराज मुंज ने अपने योग्य
राजकुमार को युवराज घोषित कर दिया | इसी
जयघोष के बीच महाराज मुंज ने कर्णत के
राजा तिलक के साथ युद्ध कि योजना बनायीं
और युद्ध अभियान पर चल दिए | 999 इसवी
में परमार वंश के इतिहास ने कर्वट ली |
महाराज मुंज युवराज कि घोषणा करके गए
तो वापस नहीं आये | गोदावरी नदी को पार
करने का परिणाम घातक रहा,महाराज मुंज
को जान गवानी पड़ी |
युवराज भोज महाराजाधिराज बन गए मगर
अभी वे राजपाठ सँभालने को तैयार नहीं थे |
भोज ने अपने पिता सिन्धुराज को समस्त
राजकीय-अधिकार सौंप दिए और वाग्देवी कि
साधना में तल्लीन हो गए | पिता सिन्धुराज,
गुजरात के चालुक्यों से युद्ध के लिए चल दिए
और भोज के रचना-कर्म ने आकर लेना शुरू
किया | भोजराज ने काव्य,चम्पू,कथा,कोष,
व्याकरण,निति,काव्य-शास्त्र,धर्म-शास्त्र,वास्तु-
शास्त्र,ज्योतिष,आयुर्वेद,अश्व-शास्त्र,पशु-विज्ञानं,
तंत्र,दर्शन,पूजा-पद्धति,यंत्र-विज्ञानं पर अद्भुत
ग्रन्थ लिखे | मात्र एक रात में चम्पू-रामायण
कि रचना कर समस्त विद्वानों को चकित कर
दिया,तभी परमार वंश पर एक और संकट आ
गया,महाराज सिन्धुराज रण-भूमि में वीरगति
को प्राप्त हो गए |
शूरवीर भोजराज ने शस्त्र उठा लिया,
युद्ध-अभियान छेड़ा,चालुक्यों को पिच्छे हटाया,
कोंकण को जीता | कोंकण विजय-पर्व के बाद
भोजराज का राज्याभिषेक हुआ | यह इतिहास
का दोहराव था कि ठीक इसी तरह अवंतिका
के सम्राट अशोक का राज्याभिषेक भी अनेक
विजय अभियानों के बाद ही हुआ था |
राज्याभिषेक के दिन महाकाल के वंदन और
प्रजा के अभिनन्दन से उज्जैन नगरी गूंज
उठी | विश्व-विख्यात विद्वान महाराज भोज
कि पटरानी बनाने का सौभाग्य महारानी
लीलावती को,लेकिन महाराज का अधिकाँश
समय रण-भूमि में ही बिता | विजय अभियानों
के वीरोचित-कर्मों के साथ विद्यानुरागी राजा
भोज ने अपने साहित्य-कला-संस्कारों को भी
समृद्ध किया | उनकी सभा पंद्रह कलाओं से
परिपूर्ण थी | राज्य में कालीदास,पुरंदर,धनपाल,
धनिक,चित्त्प,दामोदर,हलायुद्ध,अमित्गति,
शोभन,सागरनंदी, लक्ष्मीधरभट्ट,श्रीचन्द्र,नेमिचंद्र,
नैनंदी,सीता,विजया,रोढ़ सहित देश भर के पांच
सौ विद्वान रचनाकर्म को आकर दे रहे थे |
||¤|| जय जय परमार नरेश चक्रवर्ती सम्राट महाराज भोज ||¤||

रविवार, 21 जून 2015

बाबा रामदेवजी

बाबा रामदेवजी का अवतरण विक्रम स. 1409 में हुआ | चैत्र सुदी पञ्चमी सोमवार को इनका जन्म हुआ था, किन्तु लोक मानस में भाद्रपद सुदी दि्वतीया ‘बाबा री बीज’ के नाम से ख्यात है| बाबा रामदेवजी मध्यकाल की अराजकता में मानवीय मूल्यों के लिए संघर्ष करने वाले अद्भुत करुणा पुरुष हैं| उनके पूर्वजों का दिल्ली पर शासन था | तंवर अनंगपाल दिल्ली के अंतिम तंवर (तंवर, तुंवर अथवा तोमर एक ही शब्द के विभिन्न रूप हैं) सम्राट थे | वे दिल्ली छोड़कर ‘नराणा’ गाँव में आकर रहने लगे जो वर्तमान समय में जयपुर जिले में स्थित है | इसी के आसपास का क्षेत्र आजकल ‘तंवरावटी’ कहलाता है |
दिल्ली के शासक निरंतर तंवरों पर हमले करते रहते थे, क्योंकि वे जानते थे कि दिल्ली के असली हकदार तंवर हैं| इसलिए तंवर रणसी अथवा रिणसी के पुत्र अजैसी (अजमाल) को वंश बचाने की समझदारी के तहत मारवाड़ की तरफ भेज दिया | वे वर्तमान बाड़मेर जिले की शिव तहसील के ‘उँडू – काशमीर’ गाँव के पश्चिम में आकर रहने लगे | अजैसी ने जिस स्थान पर गाड़ियां छोड़ी थी वह स्थान आज भी ‘गडोथळ’ (गाड़ियों का स्थान) नाम से जाना जाता है | तंवरों के दिल्ली छूटने और ग्वालियर तथा पोकरण जाने के उल्लेख ‘रामदेवजी के बधावे’ में मिलता है जो जो हरजी भाटी के नाम से प्रचलित है -
‘दिल्ली तखत सूं उतर ग्वालियर, पोढ़ी पोकरण थाई |
घर अजमल जी रै जामो पायो, गढ़ पूगळ परणाई ||’
उस कालखंड में चारों ओर अराजकता थी | लोग दल बनाकर लूटपाट करते थे, उनमें एक कुंडल का क्षत्रप बुध भाटी(राव मंझमराव के पुत्र बुध के वंशज-यह मंझमराव राव तणु का दादा था|) ‘पम्मौ’ (पेमसी) था, जो ‘पम्मौ धोरंधार’ नाम से ख्यात था | लोक आख्यानों के अनुसार ‘पम्मौ धोरंधार’ एक रात अजैसी का डेरा लूटने की नीयत से पहुंचा किन्तु उनके वैभवशाली डेरे का रूप देख कर डर गया | उसने अपनी बेटी ‘मैणादे’ की शादी अजैसी के साथ कर दी | अजैसी को आमजन अजमालजी कहकर पुकारने लगे |
अपने पिता रणसी की तरह ही अजमालजी धार्मिक व्यक्ति थे और हर बरस द्वारिकाधीश के दर्शन करने जाते थे | सब कुछ ठीक था, किन्तु उनके संतान नहीं थी| द्वारिकाधीश की कृपा से उनके दो बेटे हुए | बड़े वीरमदे और छोटे रामदे | यही रामदे लोक विख्यात बाबा रामदेव नाम से जाने जाते हैं | लोग उन्हें अवतार मानकर पूजते हैं | उन्हें ‘निकळंक देव’ और निकळंक नेजाधारी’ ‘कहकर भी पुकारते हैं | उन्होंने अपने जीवन में छुआछूत का विरोध किया | उनकी भक्त डाली बाई मेघवाल थी | उन्होंने कुष्ठरोगियों की सेवा उस युग में की, जिसे सदियों बाद गांधीजी ने अपनाया | वे धार्मिक-सौहार्द्र के भी प्रतीक हैं –
‘अल्ला आदम अलख तूं, राम रहीम करीम|
गोसांई गोरक्ख तूं, नाम तेरा तसलीम ||’
मक्का से आये पांच पीरों और बाबा रामदेवजी के मिलन और सत्संग-संवाद की कथा सुप्रसिद्ध है| उन पीरों ने ही बाबा को ‘पीरों का पीर’ कहकर उपमित किया है |पीरों ने बाबा के व्यक्त्ति से प्रभावित होकर पांच पीपलियाँ लगाईं थी वह स्थान आज भी ‘पञ्च पीपली’ नाम से जाना जाता है |
तत्कालीन सामंती समाज से उनकी कभी नहीं बनी | वे बाबा के छुआछूत विरोधी गतिविधियों से बौखलाए हुए थे | उनकी शादी के समय उनके बहनोई पूगल के सामंत ने उनकी बहन सुगनादे को पीहर नहीं भेजा| और बहन को लेने गए राईका रतना को कैद कर लिया| तब बाबा पूगल गए और बहनोई के बगीचे में रुक कर सत्संग करने लगे | पूगल के लोग उनके सदव्यक्तित्व से प्रभावित हुए | उन्होंने उनके बहनोई को समझाया और उनकी बहन को शादी में भेजने के लिए बाध्य किया | इस तरह अपने आचरण से ठाकुर व पूगलवासियों को प्रभावित कर बहन को ले आए | किंवदंतियों में पूगल के ठाकुर द्वारा गोले बरसाना और बाबा द्वारा उन्हें ध्वजा के फटकारे से वापिस पूगल पर डालने और ठाकुर द्वारा घबराकर समझोते के उल्लेख आते हैं | वस्तुतः यह भी रूपक है जिसमें पूगल के लोग ही वे गोळे हैं, जो बाबा से मिलने के बाद में पूगल के ठाकुर को समझाने जाते हैं | इस तरह पूगल गोळे के गोळे पूगल पर ही बरसते हैं |
पोकरण क्षेत्र में भूतड़ा सेठ भैरवदास ने आतंक मचा रखा था | लोगों की जमीन-जायदाद हड़पने और उनके शोषणकारी रूप के कारण आमजन उसे भैरिया राक्षस कहते थे | लोग उसके आतंक से बचने के लिए पोकरण छोड़कर दूर दूर जा बसे | जमीन जायदाद उसने हड़प ली थी, फिर वहां रहकर करते भी क्या? बाबा ने गुरु बालीनाथ के आश्रम में उसे जा दबोचा, गुरूजी के धूंणै में उसकी सारी बहियाँ जलाकर राख कर दी और उसे मारवाड़ से सिंध की तरफ निष्कासित कर दिया | उसे चेतावनी दी कि वापिस पोकरण की तरफ कदम किया तो उसकी मृत्यु निश्चित है| निकळंक नेजाधारी बाबा रामदेव जी ने इस तरह उस राक्षस (शोषक) का वध किया |
बाबा ने रावल मल्लीनाथ को कहकर पोकरण बसाई, जो कि भूतड़ा सेठ भैरवदास के आतंक से उजड़ चुकी थी| उनके भाई वीरमदे जी ने बाबा से बिना पूछे, उनकी अनुपस्थिति में अपनी लड़की की शादी रावल मल्लीनाथ के पोते (जगमाल के बेटे) हमीर से कर दी | बाबा को यह सम्बन्ध उचित नहीं लगा | उन्होंने पोकरण भतीजी को दहेज में देकर खुद ने पोकरण पूर्वोत्तर में जा बसे | उन्होंने अपनी बस्ती के साथ जहाँ ‘डेरा’ किया, वह जगह ‘रामडेरा’ कहलाई| यही रामडेरा कालांतर में रामदेवरा कहलाने लगा | इस स्थान का एक नाम ‘रूणीचा’ भी मिलता है | थार के रेगिस्तान में पानी की कमी जानते हुए उन्होंने एक तालाब खुदवाया जिसे आज ‘रामसरोवर’ कहा जाता है | बालू वाला स्थान होने के कारण इसमें पानी कम रुकता है, जिसे भी किंवदंतियों में जाम्भोजी ( महान संत जिन्होंने बिशनोई पंथ चलाया) का शाप कहा जाता है | जबकि जाम्भो जी बाबा से एक शताब्दी बाद में हुए हैं |
बाबा रामदेवजी ने अपने गाँव के उत्थान के लिए ‘रूणीचा’ के सेठ को दूर-दिसावर जाकर व्यावसायिक तरीका समझाया | इस तरह सेठ दिसावर जाकर दौलत कमा कर लाया और गाँव को विकसित किया | ‘ग्रामोत्थान’ की बाबा की यह दृष्टि प्रगतिशील थी | कवियों ने भी इस को परखा और कहा है –
‘रूणीचै रा सेठ कहीजो मिर्चां फिर फिर बेचौ |
दूरां रे देसां में क्यों नहीं जावो जीयो ?
इस तरह बाबा ने बनिये की डूबती हुई जहाज को तैराया | कालान्तर में इस मुहावरे में लोगों ने चमत्कृति भर दी और कहने लगे बाबा ने ‘बाणिये री डूबती जहाज तैराई’ | ऐसी ही अनेक किवदंतियाँ जुड़ती चली गई | चमत्कारों को लोक में परचा कहते हैं | ऐसे अनेक परचे लोक में प्रचलित है |
बाबा का विवाह उमरकोट रै सोढा दलैसिंह की पुत्री नेतलदे के साथ हुआ| उनके बड़े पुत्र सादा अथवा सार्दूल ने ‘ ‘सादाँ’ नामक गाँव बसाया, जहां उनकी संतति आज भी निवास कर रही है | देवराज की संतान रामदेवरा में निवास कर रही है | उनके भाई वीरमदे ने वीरमदेवरा बसाया, जो रामदेवरा के पास ही स्थित है |
बाबा ने अपने काका ‘धनरिख’ अथवा धनरूप के साथ भी सत्संगति की थी | वे नराणै में उनके वार्धक्य काल में उनके साथ रहे थे | उल्लेखनीय है कि महाराणा कुम्भा भी इनसे प्रभावित थे और उन्होंने ‘निकळंक देव मँदिर का निर्माण करवाया था | बाबा रामदेव जी को ‘पिछम धरा रा पातसाह’, ‘पिछम धणी’ इत्यादि कई नामों से पुकारा जाता है | उनके भक्तों में रावल मल्लीनाथ, उनकी राणी रूपांदे, धारू मेघवाल, जैसल, तोरल डालीबाई के नाम उल्लेखनीय है | कालान्तर में भाटी हरजी, महाराजा मानसिंह, लिखमोजी माली, विजोजी सांणी, हीरानंद माली, देवसी माली खेमो आदि के नाम आते हैं ,जिनमें हरजी भाटी सबसे प्रमुख है | उनकी उदार वाणी का रूप देखें –
सुख संपत सोरापण राखौ ,
भव दुःख दूर भगाणी |
हरजी अरज करै धणियां नै,
किरता पर कुरबाणी |’
उनके घोड़े का नाम ‘लीला’ था | राजस्थानी में लीला हरे को कहते हैं | इसलिए लोग चित्रों में घोड़े को हरा भी कर देते हैं | बरसात के दिनों में आने वाली हरी टिड्डियों को लोग ‘बाबे रा घोड़ा कह कर पुकारते हैं | विजोजी सांणीलीले घोड़े का उल्लेख इस तरह करते हैं -
‘गिर भाखर री थळवटियां घूम रेयौ असवार |
लीलो घोड़ो हांसलौ राम कंवर महाराज |
बाबा के प्रति श्रद्धा व्यक्त करता यह दोहा अत्यंत लोकप्रिय है जिसमें बाबा की उज्ज्वल, निर्मल परम्परा और उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के साथ ही थार धरती की पावनता व उज्ज्वलता का वयण सगाई छँद में वर्णन किया गया है -
‘धर ऊजळ धवळी धजा, निरमळ ऊजळ नीर |
राजा ऊजळ रामदे, परचा ऊजळ पीर ||
बाबा की खुद की वाणियाँ मिलती है,जो उनके कवि होने और निर्गुण सम्प्रदाय के नजदीक होने के संकेत देती है, साथ ही सूफियों की भी नजदीकी ग्रहण करती लगती है |
लोक मान्यता है कि बाबा ने वि.सं. 1442 भाद्रपद सुदी ग्यारस के दिन जीवित समाधी ली | बाबा से पहले उनकी शिष्या डाली बाई ने समाधी ली | लोक आख्यानो आता है कि बाबा से आठ दिन बाद में साँखला हड़बूजी ने भी समाधी ले ली थी | साँखला हड़बूजी बाबा के मौसेरे भाई के रूप में ख्यात है | मारवाड़ के पाँचों पीरों में इन दोनों की ख्याति दुनिया जानती है | कवियों ने कहा है –
‘ बड़े पीर रामदे बाबा , गाँव रुणीचा काशी काबा |
छुआछूत शोषण को मेटा, जीवन भर दुखियों से भेंटा||
ग्रामोत्थान के सूत्र सिखाए, करुणा के जल कण बरसाए|
आज जगत ईश्वर सम पूजे, चहुँ दिस में जैकारे गूंजे ||
Aidan singh bhati