मंगलवार, 31 मार्च 2015

महाराणा भीमसिंह की पुत्री कृष्णाकँवर

    कृष्णा मेवाड़ के महाराणा भीम सिंह की पुत्री थी। वह अत्यन्त ही सुशील एवम् सुन्दर थी। जब वह विवाह के योग्य हुई तो जयपुर और जोधपुर के राजाओं ने महाराणा के पास विवाह हेतु सन्देश भेजे। महाराणा भीमसिंह अपनी कन्या के विवाह हेतु सुयोग्य वर की खोज में थे। उन्होने जोधपुर-नरेश के यहाँ अपनी सुपुत्री की सगाई के लिए आमन्त्रण भेजा।

       इधर जयपुर के राजा को जब यह ज्ञात हुआ कि महाराणा भीमसिंह ने उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी है तो वे अत्यन्त क्रोधित हुए। इस अपमान का बदला लेने के लिए उन्होने चित्तौड़ पर आक्रमण करने की योजना बनाना शुरू कर दिया। गुप्तचरों के द्वारा जब जोधपुर नरेश को जयपुर के राजा की योजना का पता चला तो वे भी आग बबूला हो उठे।
      जयपुर तथा जोधपुर के राजाओं में ठन गई। दोनों राजपूत राजाओं में भयंकर युद्ध हुआ। परन्तु विधि का विधान कुछ और था। जोधपुर के सैनिकों के पाँव उखड़ गये। जयपुर नरेश की विजय हुई। जयपुर नरेश ने मेवाड़ के महाराजा को सन्देश भेजा कि अपनी सुपुत्री का विवाह अब उनसे कर दें। यह सन्देश पाते ही महाराणा ने जयपुर नरेश को एक पत्र लिखा।
    “ मेरी सुपुत्री कृष्णा कोई भेंड़ अथवा बकरी नहीं है कि लाठी चलाने वालों में जो विजयी हो वही हाँक कर ले जाय। वह मेरी पुत्री हैउसका भला-बुरा विचारने के उपरान्त ही मैं किसी सुयोग्य वर से उसका विवाह करूँगा।“
    जयपुर नरेश ने इस पत्र को पढ़ते ही सेना को तैयार होने का आदेश दे दिया। एक लम्बी सेना लेकर मेवाड़ की ओर चल पड़े। मेवाड़ के पास उसने अपनी छावनी बनाई और महाराजा भीमसिंह को एक धमकी भरा सन्देश भेजा कि यदि वे कृष्णा का विवाह उनसे नहीं करते तो डोली के स्थान पर कृष्णा की अर्थी उनके सामने से जायेगी।
    “कृष्णा की अर्थी ही जायेगी।“
    प्रश्न पराजय का नहीं देश की रक्षा एवं आत्म सम्मान का था। फिर भी माँ-बाप का हृदय विह्वल हो उठा रोते-रोते उनकी घिग्घियाँ बॅध गयीं थी। आँखे अंगार हो गई थीं। जब यह बात कृष्णा  को मालूम हुई तो वह बहुत प्रसन्न हुई। उसने अपनी माँ को समझाते हुए कहा, माँ आप क्षत्राणी होकर रो रही हैं। आप तो मुझसे कहा करती थीं कि देश के सम्मान के लिए मरने वाला धन्य होता है। देवता भी ऐसे महान
व्यक्ति की उपासना करते है। माँ यह तो मेरे लिए बहुत बड़ा उपहार है। इससे बड़ा गौरव मुझे और क्या प्राप्त होगा?“
    पुनः कृष्णा पिता की ओर मुड़ी और बोली,
    “पिता जी आप राजपूत हैं। राजपूती शान और मर्यादा को रखने के लिए आप मुझे एक प्याला विष दे दें। मैं देश के लिए सैकड़ों बार
जन्म लेकर मरने के लिए तैयार हूँ।“
    कृष्णा को विष का प्याला दे दिया गया और उसने हॅसते-हॅसते उसको पान कर लिया।
    कृष्णा की जब अर्थी निकली तो जयपुर-नरेश का हृदय विदीर्ण हो गया और रुंधे गले से वह भी बोल उठा, “हे वीर बाला तू धन्य है
मैं तुझे सत्-सत् प्रणाम करता हूँ।“

रविवार, 29 मार्च 2015

:: वीर तेजमाल जी भाटीतेजमालोत ::

आज जी ख़ौफ़ हे बच्चों में जब भी बच्चे घर में रोते हे तो माताये कहती हे हिलो हिलो सो जा नही तो हिलो आ जायेगा उनका वध वीर पुरश तेजमाल(ठिकाना तेजमालता ) जी ने किया
वीर तेजमाल जी भाटी का हीले जट से युद्ध
                                      

::  वीर तेजमाल जी भाटीतेजमालोत ::
तेजमाल जी बड़े वीर साहसी एवं प्रतिभाशाली थे | इन्होने विक्रमी संवत 1760 वैसाख सुदी पंचम को काली माली पर गढ़ का निर्माण करवाकर गाँव बसाया और कासाऊ कुए का निर्माण करवाया | संवत 1750 में जैसलमेर की हवेली में रावों को दान दिया |  आपका स्वर्गवास संवत 1763 विक्रमी वैसाख सुदी आठम को जुझार हुए | इनका ऐक थान पूनम नगर गाँव तथा दूसरा पूनम नगर की गेह तलाई पर हे |

 :: तेजमाल जी का हीले जट से युद्ध ::
हीला जट गुजरात प्रदेश में मुसलमान बादशाह था | वह बहुत हि प्रतिभाशाली था |  उसके नाम से लोग थरथराने लग जाते थे |  यहाँ तक की आज भी माताएं आपने बच्चों को हीलो - हीलो करके सुलाती हे और निंद्रा आ जाती हे उस हीला ने सिरवा गाँव के रतनु चारण को मार दिया था | मरते वक्त चारण ने ऐक दोहा कहा जो इस प्रकार हे

पंथिया जाय संदेशों तेजल ने देयं |
रतनु थारो हीले मारयो तुरंत खबर लेय ||
इस प्रकार दोहा ऐक राहगीर ने सुनकर गढ़ कासाउ काली माली पर विराजमान तेजमाल जी को सुनाया | सुनते हि तेजमाल जी अपनी सेना लेकर हीले से युद्ध करने भुज शहर की और रवाना हुए और भुज प्रदेश में जाकर हीले जट से युद्ध करके उसे व् उसके सेनिको को मारा जिसका वर्णन दोहा व् छंदों में निम्न प्रकार है |

१ . शरणागत तेजल शूरा बिसरे न रतनू बैर |
      हीले जट मारीओ हतो रवल न थारी खेर ||
२    दल दल चौकस दरसे ,परसे पर्वत पंथ  |
      दल तेजल दोड़ीया गाँव सुई का ग्रन्थ ||
३ थरके ठाकर चौहान , थरके उनका थान |
    हीलो तो मारसे हम ने पिंड फाटत प्राण ||
४ कटक ऐक सहस्र कहूँ, सहस्र हे ऐक समान |
    नव हथो हीलो निरखे , फाटत पिंजर प्राण ||
५ ऐक भील देखा अपना फरवारो जानो सुधीर|
    महा प्रतापी तेजल मानो लोह तणी लकीर ||
६ ओ घर -घर तेजे आपसी पूगा डेरा पास
    बकर खां का बटका किया बिलाया कुकर पास ||
७ ललकार हीले को लियो बाढ़ीयो ऐक हि बार|
   पावरे सीस धरे अश्व हुए अश्वार ||
८ ऐक बटके दही आरोगे बंका बीसों वीर |
     तूं अलग थलग तेरा धरो न कायर धीर ||
९ गूजर कहे पधारो धरों ऐसा है ऐहनाण |
   अपड़ावे नहीं हाथ न आवे पुरुष तेजोतनो प्रवाण ||

:: त्रोटक छंद ::
गननायक शारदा कथ ग्रहों रतनू निज चारण वैर लड़े |
असवार दशों दिस व्योम उड़े भुज डूगर जाय भिड़े  ||
मन मोहन तेजल वीर बड़ों रण पार कियो वह भिड रुड़ो |
बटका कर बांकर खां थिड़े भुर्जलो हिले ते भिड़े  ||
कर शीश प्रहार सुदूर पड़े , अपने कर ले वे उपडे |
अस पावर डाल विशाल नव सेर उतोलक बाजी चढो ||
धम पड़े पमंग उलाल किया रणरतन सवार पार किया |
जब गूजर भी मनवार करी बटके बिन मांजन रीत पड़ी ||
असवार हुयो सबने मोहरी भिन्न भाव नहीं सब ऐक भरी |
जब बाहर दोड़त आयरसे कर जांखल पात्रघसे |
तुम जाओ घरों अपड़ाय नहीं घर जोजन बीस गयो असहि |
मुद जंगल यादव प्रीत छपे कुल चारण तेजल नाम जपे  ||
धन वीर समागम जोर धरे निज वंश प्रश्सित शोभ भरे |
सुख संपत मेल निवास तरे छतरालियो जोगतराज करे ||

::दोहा::
१ सुख संपत रा भरया संदन अमृत बोल अपार |
   प्रत्येक भाई रहे प्रेम से बाजे तेजलरी वार  ||
२ सखर ज्यों सर्वरों गिरवर ज्यों तूं गोण |
   सागर ज्यों गंभीर सुधि रंग हो तेजल रेण ||
३ लोहू पिंडाल बांध लिया ऊपर नीर उड़ेल |
   धन्य जननी धन्य पिता डाकि तेजो डकरेल ||
४ कोप से गढ़ कांपता शत्रु भूलता साँस |
   बिन हथियार मारियो बेरी बन्दुक धारी बदमास ||
५ अमर तेजल नाम आपरो असंख्य  जुगो इख्यात |
   रंग हो राम सिंह रा बांकी तुम्हारी विख्यात  ।।

:: दोहा ::
तेजल डेरा तंवारा गेह ऊपर गेहतूल |
रमण पधारो राम रा हाथाली हाबुर ||
विलाले ऊपर कियो पाखडो भीड़या तंग अलल |
किंण ऊपर कोपयो तू भाटी तेजल |

:: गगर निशानी ::
गगर निशानी अच्छी वाणी ढाढ़ी पेच चडाईंदा |
भाटी तेजल रा भारत भला बागन जेम बेड़ाईंदा ||
शाक्त साजोड़ो घुमर घोड़ो दूरो द्रप दिखाईंदा ||
पेरे बागा सिंधे लागा पागों पेच झुकाईंदा |
कड़ीधर कछ्ची ओढ़ण अच्छी पामड़ीया फरराईंदा ||
तेरा तप ऐसा सूरज जैसा दुनिया ज्योति ज्योत दिखाईंदा |
रामावत रुड़ा कथन न कूड़ा सायब बंदा साईंन्दा   ||

:: छन्द ::
कियो ओसोण बढ़ कारणे देश री रक्षा कर शरण दीधो |
भाटी जैसाण रे भड़ ऊसर भांज्या कोट शीशे रो चोचाड़ कीधों ||
वैर रतनू तनों धणी बालियों पालियो वचन ज्यों राव पाबू |
आवता लुटवा देश उसराण रा कटक बहता किया सब काबू ||
झाटके खाग सु अरी सिर झाडयो धरा पर पाड़यो पड़ धाके |
सिराईयों तणा बहे अकल दल साबल हिले ने मारयो पवंग ||
पांच हजार बिच पाड़ दल पाटवी माड़पत अमर हाके जस नाम कीधो |
गूड़ ऊसर तनों उधर भर बीधणी पात भर जोगणी रूधिर पीधो ||
मारयो ऐकले बाघ ज्यों मिरगलो झुण्ड में तुरंत भड़लियो झाटे  |
साकवे चोचाल देख सिचोण ने बिखर गया तुरकड़ा घाट बांटे ||
खेल तुझ सरीखो नहीं कोई खेलवे रेल कर खलकिया रक्त  रेले |
रामासुत अरियो ने धाक सू रोकया झोक्या तुरक तरवार झेले ||
स्वाग नृप विजय ने आवड़ा समापी तेजल आ अरी रे शीश ताड़ी |
खेताहर रण जीत कर खट्यो वीर जयसोणे रे वार बजायी |
भोड़ ऊसर तनों लायो भेंट में चारणी माता रे थड़ चाडे  ||
कियों घण चोज रेणुओं कारण पांथू कज सारण  |
दुष्ट  पाड़यो कियो ओसोण बढ़ चारणों कारणे ||

मंगलवार, 24 मार्च 2015

विरांगना हाड़ी रानी की अनोखी निशानी

राजस्थान के इतिहास की वह घटना है, जब एक रानी ने
विवाह के सिर्फ 7 दिन बाद ही अपना शीश अपने
हाथों से काटकर युद्ध के लिए तैयार अपने पति की
भिजवा दी, ताकि उनका पति अपनी नई नवेली पत्नी
की खूबसूरती में उलझकर अपना कर्तव्य भूल न जाए। कहते
हैं एक पत्नी द्वारा अपने पति को उसका फर्ज याद
दिलाने के लिए किया गया इतिहास में सबसे बड़ा
बलिदान है।
यह रानी कोई और नहीं, बल्कि बूंदी के हाड़ा शासक
की बेटी थी और उदयपुर (मेवाड़) के सलुम्बर ठिकाने के
रावत चूड़ावत की रानी थी। इतिहास में यह हाड़ी
रानी की नाम से प्रसिद्ध है।
हाड़ी रानी का सरदार चूड़ावत से विवाह :
अभी रानी के हाथों की मेंहदी भी नहीं छूटी थी ।
सुबह का वक्त था। रानी सज-धजकर राजा को जगाने
आई। उनकी आखों में नींद की खुमारी साफ झलक रही
थी। रानी ने हंसी ठिठोली से उन्हें जगाना चाहा।
इसी बीच दरबान वहां आकर खड़ा हो गया। राजा का
ध्यान न जाने पर रानी ने कहा, महाराणा का दूत
काफी देर से खड़ा है। वह ठाकुर से तुरंत मिलना चाहते हैं।
आपके लिए कोई आवश्यक पत्र लाया है उसे अभी देना
जरूरी है। असमय दूत के आगमन पर ठाकुर हक्का बक्का रह
गए। वह सोचने लगे कि अवश्य कोई विशेष बात होगी।
राणा को पता है कि वह अभी ही ब्याह कर के लौटे हैं।
आपात की घड़ी ही हो सकती है।
सहसा बैठक में बैठे राणा के दूत पर ठाकुर की निगाह
जा पड़ी। औपचारिकता के बाद ठाकुर ने दूत से कहा,
अरे शार्दूल तू। इतनी सुबह कैसे? क्या भाभी ने घर से
खदेड़ दिया है? सारा मजा फिर किरकिरा कर दिया।
सरदार ने फिर दूत से कहा, तेरी नई भाभी अवश्य तुम पर
नाराज होकर अंदर गई होगी। नई नई है न। इसलिए
बेचारी कुछ नहीं बोली। शार्दूल खुद भी बड़ा हंसोड़
था। वह हंसी मजाक के बिना एक क्षण को भी नहीं रह
सकता था, लेकिन वह बड़ा गंभीर था। दोस्त हंसी
छोड़ो। सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ गई है। मुझे भी
तुरंत वापस लौटना है। यह कहकर सहसा वह चुप हो गया।
अपने इस मित्र के विवाह में बाराती बनकर गया था।
उसके चेहरे पर छाई गंभीरता की रेखाओं को देखकर
हाड़ा सरदार का मन आशंकित हो उठा। सचमुच कुछ
अनहोनी तो नहीं हो गई है! दूत संकोच रहा था कि इस
समय राणा की चिट्ठी वह मित्र को दे या नहीं।
हाड़ी सरदार को तुरंत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का
निर्देश लेकर वह लाया था। उसे मित्र के शब्द स्मरण हो
रहे थे। हाड़ी के पैरों के नाखूनों में लगे महावर की
लाली के निशान अभी भी वैसे के वैसे ही उभरे हुए थे।
नव विवाहित हाड़ी रानी के हाथों की मेंहदी भी
तो अभी सूखी न होगी। पति पत्नी ने एक-दूसरे को
ठीक से देखा पहचाना नहीं होगा। कितना दुखदायी
होगा उनका बिछोह! यह स्मरण करते ही वह सिहर
उठा। पता नहीं युद्ध में क्या हो? वैसे तो राजपूत मृत्यु
को खिलौना ही समझता है। अंत में जी कड़ा करके
उसने हाड़ी सरदार के हाथों में राणा राजसिंह का पत्र
थमा दिया। राणा का उसके लिए संदेश था।
क्या लिखा था पत्र में :
वीरवर। अविलंब अपनी सैन्य टुकड़ी को लेकर औरंगजेब
की सेना को रोको। मुसलमान सेना उसकी सहायता
को आगे बढ़ रही है। इस समय औरंगजेब को मैं घेरे हुए हूं।
उसकी सहायता को बढ़ रही फौज को कुछ समय के
लिए उलझाकर रखना है, ताकि वह शीघ्र ही आगे न बढ़
सके तब तक मैं पूरा काम निपटा लेता हूं। तुम इस कार्य
को बड़ी कुशलता से कर सकते हो। यद्यपि यह बड़ा
खतरनाक है। जान की बाजी भी लगानी पड़ सकती है।
मुझे तुम पर भरोसा है। हाड़ी सरदार के लिए यह
परीक्षा की घड़ी थी। एक ओर मुगलों की विपुल सेना
और उसकी सैनिक टुकड़ी अति अल्प है। राणा राजसिंह
ने मेवाड़ के छीने हुए क्षेत्रों को मुगलों के चंगुल से मुक्त
करा लिया था। औरंगजेब के पिता शाहजहां ने अपनी
पूरी ताकत लगा दी थी। वह चुप होकर बैठ गया था।
अब शासन की बागडोर औरंगजेब के हाथों में आई थी।
इसी बीच एक बात और हो गई थी जिसने राजसिंह और
औरंगजेब को आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया था।
यह संपूर्ण हिन्दू जाति का अपमान था। इस्लाम को
कुबूल करो या हिन्दू बने रहने का दंड भरो। यही कहकर
हिन्दुओं पर उसने जजिया कर लगाया था। राणा
राजसिंह ने इसका विरोध किया था। उनका मन भी
इसे सहन नहीं कर रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कई
अन्य हिन्दू राजाओं ने उसे अपने यहां लागू करने में
आनाकानी की। उनका साहस बढ़ गया था। गुलामी
की जंजीरों को तोड़ फेंकने की अग्नि जो मंद पड़ गई
थी फिर से प्रज्ज्वलित हो गई थी। दक्षिण में
शिवाजी, बुंदेलखंड में छत्रसाल, पंजाब में गुरु गोविंद
सिंह, मारवाड़ में राठौड़ वीर दुर्गादास मुगल सल्तनत
के विरुद्ध उठ खड़े हुए थे। यहां तक कि आमेर के मिर्जा
राजा जयसिंह और मारवाड़ के जसवंत सिंह जो मुगल
सल्तनत के दो प्रमुख स्तंभ थे। उनमें भी स्वतंत्रता
प्रेमियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो गई थी। मुगल
बादशाह ने एक बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर आक्रमण कर
दिया था। राणा राजसिंह ने सेना के तीन भाग किए
थे। मुगल सेना के अरावली में न घुसने देने का दायित्व
अपने बेटे जयसिंह को सौपा था। अजमेर की ओर से
बादशाह को मिलने वाली सहायता को रोकने का
काम दूसरे बेटे भीम सिंह का था। वे स्वयं अकबर और
दुर्गादास राठौड़ के साथ औरंगजेब की सेना पर टूट पड़े
थे। सभी मोर्चों पर उन्हें विजय प्राप्त हुई थी।
बादशाह औरंगजेब की बड़ी प्रिय बेगम बंदी बना ली गईं
थी। बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार औरंगजेब प्राण
बचाकर निकल सका था । मेवाड़ के महाराणा की यह
जीत ऐसी थी कि उनके जीवन काल में फिर कभी
औरंगजेब उनके विरुद्ध सिर न उठा सका था। अब उन्होंने
मुगल सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करन के लिए हाड़ी
सरदार को पत्र लिखा था। वही संदेश लेकर शार्दूल
सिंह मित्र के पास पहुंचा था। एक क्षण का भी विलंब
न करते हुए हाड़ा सरदार ने अपने सैनिकों को कूच करने
का आदेश दे दिया था। अब वह पत्नी से अंतिम विदाई
लेने के लिए उसके पास पहुंचा था।
केसरिया बपहने पहने युद्ध वेष में सजे पति को देखकर
हाड़ी रानी चौंक पड़ीं। उसने पूछा, कहां चले स्वामी?
इतनी जल्दी। अभी तो आप कह रहे थे कि चार छह
महीनों के लिए युद्ध से फुरसत मिली है, आराम से
कटेगी। लेकिन, यह क्या? आश्चर्य मिश्रित शब्दों में
हाड़ी रानी पति से बोली। प्रिय, पति के शौर्य और
पराक्रम को परखने के लिए लिए ही तो क्षत्राणियां
इसी दिन की प्रतीक्षा करती हैं। वह शुभ घड़ी अभी
ही आ गई। देश के शत्रुओं से दो-दो हाथ होने का अवसर
मिला है। मुझे यहां से अविलंब निकलना है। हंसते-हंसते
विदा दो। पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो,
हाड़ी सरदार ने मुस्करा कर पत्नी से कहा। हाड़ी
सरदार का मन आशंकित था। सचमुच ही यदि न लौटा
तो। मेरी इस अर्धांगिनी का क्या होगा? एक ओर
कर्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह। इसी
अन्तर्द्वंद में उसका मन फंसा था। उसने पत्नी को
राणा राजसिंह के पत्र के संबंध में पूरी बात विस्तार से
बता दी थी। विदाई मांगते समय पति का गला भर
आया है यह हाड़ी राना की तेज आंखों से छिपा न रह
सका।
यद्यपि हाड़ा सरदार ने उन आंसुओं को छिपाने की
कोशिश की। हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले
जाता है। उस वीर बाला को यह समझते देर न लगी कि
पति रणभूमि में तो जा रहा है पर मोहग्रस्त होकर। पति
विजयश्री प्राप्त करें इसके लिए उसने कर्तव्य की वेदी
पर अपने मोह की बलि दे दी। वह पति से बोली स्वामी
जरा ठहरिए। मैं अभी आई। वह दौड़ी-दौड़ी अंदर गई और
आरती का थाल सजाया। पति के मस्तक पर टीका
लगाया, उसकी आरती उतारी। वह पति से बोली। मैं
धन्य हो गई, ऐसा वीर पति पाकर। हमारा आपका तो
जन्म जन्मांतर का साथ है। राजपूत रमणियां इसी दिन
के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं, आप जाएं स्वामी। मैं
विजय माला लिए द्वार पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी।
उसने अपने नेत्रों में उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया था।
पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी। चलते-चलते पति
ने कहा, मैं तुमको कोई सुख न दे सका, बस इसका ही दुख
है मुझे। भूल तो नहीं जाओगी ? यदि मैं न रहा तो! उसके
वाक्य पूरे भी न हो पाए थे कि हाड़ी रानी ने उसके
मुख पर हथेली रख दी। न न स्वामी। ऐसी अशुभ बातें न
बोलें। मैं वीर राजपूतनी हूं, फिर वीर की पत्नी भी हूं।
अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं आप निश्चित
होकर प्रस्थान करें। देश के शत्रुओं के दांत खट्टे करें। यही
मेरी प्रार्थना है। इसके बाद रानी उसे एकटक निहारती
रहीं जब तक वह आंखे से ओझल न हो गया। उसके मन में
दुर्बलता का जो तूफान छिपा था जिसे अभी तक उसने
बरबस रोक रखा था वह आंखों से बह निकला। हाड़ी
सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बातें करता उड़ा जा
रहा था, किन्तु उसके मन में रह रहकर आ रहा था कि
कहीं सचमुच मेरी पत्नी मुझे भुला न दें? वह मन को
समझाता, पर उसक ध्यान उधर ही चला जाता। अंत में
उससे रहा न गया। उसने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त
सैनिकों के रानी के पास भेजा। उसको फिर से स्मरण
कराया था कि मुझे भूलना मत। मैं जरूर लौटूंगा। संदेश
वाहक को आश्वस्त कर रानी ने लौटाया। दूसर दिन
एक और वाहक आया। फिर वही बात। तीसरे दिन फिर
एक आया। इस बार वह पत्नी के नाम सरदार का पत्र
लाया था। प्रिय मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं।
अंगद के समान पैर जमारक उनको रोक दिया है। मजाल
है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं। यह तो तुम्हारे रक्षा
कवच का प्रताप है। पर तुम्हारे बड़ी याद आ रही है। पत्र
वाहक द्वारा कोई अपनी प्रिय निशानी अवश्य भेज
देना। उसे ही देखकर मैं मन को हल्का कर लिया करुंगा।
हाड़ी रानी पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गईं।
युद्धरत पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा उनके
नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह
शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे। विजय श्री का वरण कैसे करेंगे? उसके
मन में एक विचार कौंधा। वह सैनिक से बोली वीर ? मैं
तुम्हें अपनी अंतिम निशान दे रही हूं। इसे ले जाकर उन्हें दे
देना। थाल में सजाकर सुंदर वस्त्र से ढककर अपने वीर
सेनापति के पास पहुंचा देना। किन्तु इसे कोई और न
देखे। वही खोल कर देखें। साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना।
हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था- प्रिय, मैं तुम्हें अपनी
अंतिम निशानी भेज रही हूं। तुम्हारे मोह के सभी बंधनों
को काट रही हूं। अब बेफिक्र होकर अपने कर्तव्य का
पालन करें। पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपने कमर से
तलवार निकाल, एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया।
वह धरती पर लुढ़क पड़ा। सिपाही के नेत्रों से
अश्रुधारा बह निकली। कर्तव्य कर्म कठोर होता है,
सैनिक ने स्वर्ण थाल में हाड़ी रानी के कटे सिर को
सजाया। सुहाग के चूनर से उसको ढका। भारी मन से
युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा। उसको देखकर हाड़ी
सरदार स्तब्ध रह गया, उसे समझ में न आया कि उसके
नेत्रों से अश्रुधारा क्यों बह रही है? धीरे से वह बोला
क्यों यदुसिंह। रानी की निशानी ले आए? यदु ने कांपते
हाथों से थाल उसकी ओर बढ़ा दिया। हाड़ी सरदार
फटी आंखों से पत्नी का सिर देखता रह गया। उसके मुख
से केवल इतना निकला उफ् हाय रानी। तुमने यह क्या कर
डाला। संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली! खैर,
मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं।
हाड़ी सरदार के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे। वह शत्रु पर
टूट पड़ा। इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया था कि
उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन है। जीवन की
आखिरी सांस तक वह लंड़ता रहा। औरंगजेब की सहायक
सेना को उसने आगे नहीं बढऩे दिया, जब तक मुगल
बादशाह मैदान छोड़कर भाग नहीं गया था। इस विजय
का श्रेय आप किसे देना चाहेंगे? राणा राजसिंह को
या हाड़ी सरदार को? हाड़ी रानी को अथवा उसकी
इस अनोखी निशानी को?

वीर दुर्गाजी शेखावत और उनकी दृढ-प्रतिज्ञा

   भारतीय इतिहास में अपने पिता की राज गद्दी पाने के लिए भाइयों में खुनी संघर्ष, भाईयों का कत्ल, और बूढ़े पिता को जेल में डाल देना या मार देने के कई प्रकरण पढ़े व सुनें होंगे | पर क्या आपने भीष्म पितामह के बाद ऐसे प्रकरण के बारे में कहीं सुना या पढ़ा है जहाँ अपने पिता के लिए, अपने छोटे भाई के लिए या किसी स्त्री के प्रण का मान रखने के लिए किसी भारतीय वीर ने राज्य पाने के अपने उतराधिकार के अधिकार का त्याग किया हो ?
जी हां ! दुर्गा जी शेखावत भारतीय इतिहास में ऐसे ही एक दृढ प्रतिज्ञ वीर थे जिन्होंने एक राजपूत राजकुमारी द्वारा किये गए प्रण को पुरा करने में सहयोग के लिए अपने पिता के राज्य के उतराधिकार का अधिकार का त्याग करने की दृढ प्रतिज्ञा की व उसे निभाया भी|
वीर वर दुर्गा जी शेखावाटी और शेखावत वंश के प्रवर्तक महान योद्धा राव शेखाजी के सबसे बड़े पुत्र थे और अपने पिता के राज्य के उतराधिकारी थे| पर उन्होंने अपने भविष्य में पैदा होने वाले छोटे भाई के लिए राज्य के त्याग की प्रतिज्ञा की व उसे दृढ़ता पूर्वक निभाया भी|
इतिहासकारों के अनुसार- चोबारा के चौहान शासक स्योब्रह्म जी की राजकुमारी गंगकँवर ने राव शेखाजी की वीरता और कीर्ति पर मुग्ध होकर मन ही मन प्रण कर लिया कि वो विवाह शेखाजी के साथ ही करेगी| किन्तु उसके पिता को अपनी पुत्री का यह हठ स्वीकार नहीं था| क्योंकि उस समय तक शेखाजी के चार विवाह हो चुके थे और उनकी रानियों सेशेखाजी को कई संताने भी थी| जिनमे उनके ज्येष्ट पुत्र दुर्गा जी उनके राज्य अमरसर के उतराधिकारी के तौर पर युवराज के रूप में मौजूद थे| और स्योब्रहम जी अपनी पुत्री का विवाह ऐसे किसी राजा से करना चाहते थे जिसके पहले कोई संतान ना हो और उन्हीं की पुत्री के गर्भ से उत्पन्न पुत्र उस राज्य का उतराधिकारी बने|
चौहान राजकुमारी के हठ व उनके पिता का असमंजस के समाचार सुन कुंवर दुर्गाजी चोबारा जाकर राव स्योब्र्ह्म जी से मिले और राजकुमारी की इच्छा को देखते हुए उसका विवाह अपने पिता के साथ करने का अनुरोध किया साथ ही चौहान सामंत के सामने यह प्रतिज्ञा की कि- इस चौहान राजकुमारी के गर्भ से शेखाजी का जो पुत्र होगा उसके लिए वे राज्य गद्दी का अपना हक त्याग देंगे और आजीवन उसकी सुरक्षा व सेवा में रहेंगे|
दुर्गाजी के इस असाधारण त्याग के परिणामस्वरूप महाराव शेखाजी का चौहान राजकुमारी गंगकँवर के साथ विवाह संपन्न हुआ और उसी चौहान राणी के गर्भ से उत्पन्न शेखाजी के सबसे छोटे पुत्र रायमल जी का जन्म हुआ जो शेखाजी की मृत्यु के बाद अमरसर राज्य के उतराधिकारी बन स्वामी बने| असाधारण वीर पुरुषों के साथ विवाह करने हेतु राजपूत स्त्रियों के हठ पकड़ने के कई प्रकरण राजस्थान के अनेक वीर पुरुषों के सबंध में प्रचलित है जिनमे राजस्थान के लोक देवता पाबूजी राठौड़, सादाजी भाटी और वीरमदेव सोनगराआदि वीरों के नाम प्रमुख है| वीरमदेव सोनगरा के साथ तो विवाह करने का हठ अल्लाउद्दीन खिलजी की पुत्री ने किया था|
वीरवर दुर्गा जी का जन्म शेखाजी की बड़ी राणी गंगाकंवरी टांक जी के गर्भ से वि.स्.१५११ में हुआ था| उनकी माता एक धर्मपरायण और परोपकारी भावनाओं वाली स्त्री थी| उसने अपने पुत्र दुर्गा में त्याग,बलिदान और शौर्यपूर्ण जीवन जीने के संस्कार बचपन में ही पैदा कर दिए थे| दुर्गाजी ने अपने पिता के राज्य विस्तार में वीरता पूर्वक लड़कर कई युद्धों में सहयोग किया और आखिर एक स्त्री की मानरक्षा के लिए उनके पिता द्वारा गौड़ राजपूतों के साथ किये घाटवा नामक स्थान पर किये युद्ध में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की| उस युद्ध में दुर्गा जी के बाद उनके पिता राव शेखाजी भी वीरगति को प्राप्त हुए थे| दुर्गा जी की माँ ने शेखाजी के साथ सती होने के बजाय दुर्गाजी के नाबालिक पुत्र के लालन पालन व संरक्षण के लिए जीने का निर्णय लिया और वह अन्य रानियों के साथ शेखाजी के साथ सती नहीं हुई|
दुर्गाजी के वीर वंशज दुर्गावत शेखावत नहीं कहलाकर उनके मातृपक्ष टांक वंश के नाम पर टकणेत शेखावत कहलाये जो आज भी राजस्थान के लगभग ८० गांवों में निवास करते है| दुर्गा जी की व उनके पिता राव शेखाजी की वीरगति घाटवा युद्ध में ही हुई थी अत: दुर्गा जी का दाह-संस्कार भी रलावता गांव के पास अरावली की तलहटी में शेखाजी की चिता के पास ही किया गया था| उस स्थान पर शेखाजी की स्मृति में एक छत्री बनी थी कहते है उस छत्री के पास दुर्गाजी की स्मृति में भी एक चबूतरा बना था पर आज वह मौजूद नहीं है| शेखाजी के इस स्मारक पर अब शेखाजी की एक विशाल मूर्ति लगी है जिसका अनावरण उन्हीं की कुल वधु तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल देवीसिंह शेखावत ने किया था| अब महाराव शेखा संस्थान ने शेखाजी की विशाल प्रतिमा के साथ ही वीरवर दुर्गाजी की स्मृति हेतु उनकी भी एक प्रतिमा लगाने निर्णय किया है जिसे जल्द पुरा करने हेतु महाराव शेखा संस्थान कार्यरत है|