बुधवार, 23 सितंबर 2015

जब शरणागत 140 सुमरा-मुस्लिम कन्या को बचाने के लिए जाडेजा राजपुतो ने किया जौहर और शाका

बात है विक्रम सवंत 1356(ई.स. 1309) की तब गुजरात के कच्छ क्षेत्र में जाडेजा राजपुतो का राज था |कच्छ के वडसर में जाडेजा राजवी जाम अबडाजी गद्दी पर बिराजमान थे | जाम अबडाजी एक महाधर्मात्मा और वीरपुरुष होने की वजह से उनको “अबडो-अडभंग, अबडो अणनमी” नाम से भी जाना जाता था |

उस समय सिंध के उमरकोट में हमीर सुमरा(सुमरा परमार वंश की शाखा थे जो धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन गए थे।अब सिंध पाकिस्तान में हैं) जिसको सोरठ के चुडासमा राजवी रा’नवघन ने अपनी मुँह बोली बहेन जासल का अपहरण करने पर मार डाला था, उसके वंश में धोधा और चनसेर नामके दो मुस्लिम-सुमरा शाशक राज करते थे | इन दोनों भाईओ के बिच में आपसी कलह बहुत चलता रहेता था, जिसकी वजह से छोटे भाई चनसेर ने उमरकोट की गद्दी हथियाने के लिए दिल्ली के शाशक अलाउदिन-खिलजी से जाके कहा की “आपके जनान-खाने के लिए अच्छी सी सुन्दर सुमरी कन्या मैंने राखी हुई थी, पर मेरे भाई धोधे ने मेरा राज्य हथिया लिया और खुद सिंध की गद्दी पर बैठ गया | इसलिए में आपके पास सहायता मांगने के लिए आय हु” और कहा की “आप खुद सिंध पधारिए और मुझे मेरी गद्दी वापस दिलवाए तथा स्वयं उस स्वरूपवान सुमरी कन्याओ को कब्जे में ले कर दिल्ही अपने जनान-खाने के लिए ले जाए |

इस बात को सुनकर अलाउदीन खिलजी ने अपना लश्कर लेकर सिंध पर चड़ाई की और अपने सेनापति हुसैन खान के द्वारा धोधा को संदेसा भिजवाया की दिल्लीपति अलाउदीन खिलजी के साथ उस सुमरी कन्याओ का विवाह करवाओ” लेकिन धोधा ने इस बात से मन कर दिया और वो अलाउदीन के साथ लड़ने के लिए तैयार हो गया | और युद्ध में जाते समय उसने अपने वफादार भाग सुमरे को कहा की अगर मुझे कुछ हो जाए तो इन सुमरियो को कच्छ के जाम अबडाजी के पास भेज देना, एक वो ही वीर पुरुष हे जो इन सुमरियो को बचा सकते हे | इतना कह कर धोधा सुमरा अपनी फ़ौज के साथ अलाउदीन से भीड़ गया | उसकी सेना अलाउदीन की विशाल सेना के सामने बहुत छोटी होने के कारण वो युद्ध भूमि में ही मारा गया | जब सरदार हुसैन खान ने घोघे की लाश को पैरो से लात मरी तब उसके भाई चनसेर को बहुत अफ़सोस हुआ और उसने हुसैन खान का सिर धड से अलग कर दिया, बाद में वो भी अलाउदीन के लश्कर द्वारा मारा गया | बाद में अलाउदीन ने जब उमरकोट नगर में जाके देखा तो वह पे सुमरि कन्याओ का नमो निशान नहीं था | उसे बाद में पता चला की सभी सुमरी कन्या कच्छ की तरह जा चुकी हे, इसलिए उसने अपने लश्कर को कच्छ की तरफ कुच करवाया |

इस तरफ कच्छ में भाग सुमरा उस 147 मुस्लिम कन्याओ के साथ कच्छ के वडसर के पास आए, पर ये सुमरी कन्या बहुत चलने के कारण थकी हुई थी जिससे उनको कच्छ के रोहा पर्वत पर आराम करने के लिए कहेकर खुद जाम अबडाजी से मिला और उनसे कहा की “मुझे सिंध के धोधा सुमरा ने आपके पास भेजा हे और सब हकीकत जाम अबडाजी को बताई की अब आप ही इन सुमरी कन्याओ को अलाउदीन के जनान खाने से बचा सकते हे” इसे सुनकर अबडाजी ने संदेशा भिजवाया की की...

भले आवयु भेनरू, अबडो चयतो ईय
अनदिठी आडो फीरां, से डिठे दियां किय...?
(अर्थ:- मेरी बहेनो अच्छा किया आप मेरे पास आ गई, अगर मेरे ध्यान में भी कुछ नही हो फिर भी में उसको बचाने के लिए जाता हु, आप तो स्वयं मेरे पास आई हों अब आपको कैसे जाने दूँ, आप निश्चिंत रहिये।)
और इन सुमरी कन्या को लाने के लिए जाम अबडाजी ने बैल-गाडे भिजवाए पर इन बैल-गाड़े को सुमरी कन्या दुश्मन का लश्कर समज बैठी और डर के मारे इन 147 सुमरी कन्या में से 7 ने वही पर आत्म-हत्या कर लि | बाकि की 140 सुमरी कन्या वहा से वडसर आ पहुची | बादशाह का लश्कर वडसर की तरफ आ रहा हे इस बात को जानकर जाम अबडाजी ने रोहा पर्वत के उपर रात को मशाले जलवाकर खुद बादशाह के लश्कर को युद्ध के लिए आमत्रित किया...!!!अलाउदीन का लश्कर वडसर के पास आ कर रुक गया और दोनों तरफ फौजे इक्कठा हो गई |
जाम अबडाजी की सेना में ओरसा नामका एक मेघवाल जाती का आदमी भी था जो बहुत ही बहादुर था, उसने जाम अबडाजी को कहा की अगर आज्ञा दे तो में अकेला ही रात को जाकर उस अलाउदीन का सिर काट के आपके पास रख दु, लेकिन जाम अबडाजी ने उसे कहा की “ऐसे कपट से वार दुशमन को मारने वाला में जाम अबडाजी नहीं हु फिर भी तुम कुछ ऐसा करो जिससे अलाउदीन की रूह कांप उठे” | ये ओरसा मेघवाल जाती से था जो मृत पशुओ की खाल उतारने का कम करते थे, उसने एक युक्ति निकाली और रात को वो कुत्ते की खाल पहेनकर अलाउदीन के लश्कर में भीतर जाता हुआ उसके तंबू में घुस गया, उसका मन तो सोते हुए अलाउदीन का सिर काटने का ही था, पर जाम अबडाजी के मना करने की वजह से उसने अलाउदीन का शाही खंजर निकल लिया और उसकी जगह अपना खाल उधेड़ने वाला खंजर रख दिया | सुबह फिर जाम अबडाजी ने अलाउदीन खिलजी को संदेशा भिजवाया की “अगर में चाहू तो कपट से तेरा सिर धड से अलग करवा सकता था लेकिन क्षत्रिय ना ही ऐसा करते हे न ही दुसरो से करवाते हैे, इसलिए अब अभी समय है चला जा यहाँ से और भूल जा मुस्लिम सुमरी कन्या को”, और निशानी के तौर पर उसको उसका शाही खंजर भिजवाया | जिसे देखकर अलाउदीन हक्का-बक्का रह गया | उसने सोचा की जिसका एक आदमी उसके इशारे पे ये कार्य कर सकता हे उसके साथ युद्ध नही करता ही अच्छा हैे | इसलिए उसने जाम अबडाजी जो पत्र लिखा की अगर आप उस मुस्लिम सुमरी कन्याओ को मेरे हवाले कर दे तो में आपको कोई भी नुकशान नहीं करूँगा | लेकिन जाम अबडाजी ने जवाब दिया की “मैंने उन सुमरी कन्या को वचन दिया हे की जब तक में जिन्दा हु तब तक आपको उनके साथ कुछ नहीं करने दूंगा, और क्षत्रिय कभी अपनी जुबान से नहीं हिलता” भूल जा उस कन्या को |

इसे सुनकर दुसरे दिन सुबह फिर अलाउदीन ने अबडाजी के लश्कर पर हमला बोल दिया | जाम अबडाजी और ओरसा अपनी सेना के साथ अलाउदीन के लश्कर को काटते काटते उसके हाथी के पास पहुच गए थे तभी ओरसा पर किसी ने पीछे से हमला कर उसे मार डाला | इस पराक्रम को देखकर अलाउदीन ने दूसरी बार जाम अबडाजी को सुलह के लिए संदेसा भिजवाया लेकिन जाम अबडाजी अपनी बात से हिलने वाले कहा थे | दुसरे दिन फिर युद्ध शुरु हो गया इस तरह ये युद्ध ७२ दिनों तक चलता रहा धीरे धीरे जाम अबडाजी का सैन्य कम होता जा रहा था | आखिर में उन्होंने अपनि राणी और राज घराने की औरतो को बुलाकर कहा की अब अंत आ गया हे हम ज्यादा देर तक अलाउदीन के लश्कर का सामना नहीं कर सकेंगे | और उन्होंने सुमरी कन्याओ को वडसर गाव से 2 कोस दूर पर्वत पर भिजवाया और साथ में दूध का प्याला देकर कहा की जब इस दूध का रंग लाल हो जाए तो समाज लेना में इस दुनिया में नहीं रहा |

जिसे सुनकर राजपुत क्षत्राणी ने वडसर के गढ़ के बीचो बिच चंदन की लकड़ी इकठ्ठा की उसकी श्रीफल धुप आदि से पूजा करके फिर चिता जलाके एक के बाद एक राजपुत क्षत्राणी “जय भवानी” के नारे के साथ चिता पर चड गई और इस तरह जौहर व्रत का अनुष्ठान किया | जिसके बाद सभी राजपुत योध्दाओं ने माथे पे राजपुत क्षत्राणी की भस्म लगाकर केसरिया साफा पहेनकर “हर हर महादेव” के नारे के साथ अलाउदीन के लश्कर पर टूट पडे |

जाम अबडाजी अदभुत पराक्रम दिखाकर युद्ध भूमि में सहीद हो गए | एस तरफ सुमरी कन्या के पास रखे दूध के प्याले में दूध का रंग लाल हो गया | वे समज गई की अब उनको बचाने वाला कोई नहीं रहा | कहेते है की उस समय उनकी ऊपरवाले की प्रार्थना से ज़मीन फट गई और सभी सुमरी कन्या उसमे समा गई, एक कन्या का दुप्पटा बहार रह गया था क्योकि उसको किसी मर्द ने छुआ था | अलाउदीन के हाथ में कुछ नहीं लगा और वो भारी पस्तावे के साथ वापस चला गया | बाद में वडसर की गद्दी पे अबडाजी के पुत्र डुंगरसिंह जो लड़ाई के वक़्त उसके माम के यहाँ थे वो बेठे |

ये घटना विक्रम सवंत 1356 में फागुन वद 1 को हुई थी | इस युद्ध में जाम अबडाजी के भाई जाम मोडजी भी सहीद हुए थे | आज भी वडसर गाव जो कच्छ जिल्ले की नलिया तहेसिल में स्थित हे, उस वडसर गाव में नदी के किनारे जाम अबडाजी और जाम मोडजी दोनों के स्मारक मौजूद हे, और हर साल वहा पे होली के दुसरे दिन यानि फागुन वद 1 को इन स्मारकों को लोग वहा पे आकर पूजा करते हैे | और हर साल जन्माष्टमी को वह पे मेला भी लगता है |

कच्छ का लोकसाहित्य में आज भी जाम अबडाजी को याद किया जाता हे उनपे बने काव्यो द्वारा, जिसमे से कुछ पंक्तिया यहाँ पे रख रहे हे....

अठ मुंठुं जे ज्युं मुछदियुं, सोरो हाथ धडो,
सरण रखंधळ सुमरीऊँ, अभंग भड अबडो ||
(अर्थ:- जिसकी मुछे आठ मुठ जितनी लंबी है, और जिसका शरीर सोलह बाज़ुओ जितना ताकतवर है, वो अनभंग अबडा ही शरणागत सुमरियो की रक्षा कर सकता है)

जखरा ! तू जस खरो ब्या मीडे ऐ खान,
मिट्टी उन मकान, असल हुई इतरी ||
(अर्थ:- हे जाम जखरा(अबडाजी का दूसरा नाम) सही में यशस्वी तो तू ही है. दुसरे तो मात्रा कहेने के है | तू जिस मिट्टी से बना है, वो सिर्फ तेरे लिए ही बनी थी किसी और के लिए नहीं |)

जखरा ! तुं जिए, तोजो, मंचो केनि म सुणा,
अखिये ने हिये, नालो तोजे नेहजो ||
(अर्थ:- हे जखरा जाम , तू सदा इतिहास में अमर रहेगा | हमारी आंखे और अंतर में तेरा नाम हमेशा अमर रहेगा |)

जखरे जेडो जुवान, दिसां न को देहमे,
मिट्टी उन मकान असल हुई इतरी ||
(अर्थ:- जाम जखरा जेसा वीर पुरे देशमें एक भी नहीं है, वो जिस मिट्टी से बना था उस मिट्टी से और कोई नहीं बना |)

राजपुताना सोच और क्षत्रिय इतिहास

---जय श्री गौरक्षक पनराज जी---

्री पनराज जी का जीवन परिचय--
महारावल विजयराज लांझा (जिनको "उत्तर भड़ किवाड़" की पदवी मिली थी ) के द्वितीय पुत्र राहड़जी (रावल भोजदेव के छोटे भाई), राहड़जी के भूपतजी, भूपतजी के अरड़कजी, अरड़कजी के कांगणजी व कांगणजी के पुत्र के रूप में व माता देवकंवर की कोख से वीर पनराज का जन्म 13वीं सदी के अंतिम चरण में हुआ...
श्री पनराज जी जैसलमेर महारावल घड़सी जी के समकालीन थे तथा वे उनके प्रमुख सलाहकार भी थे, क्षत्रियोचित संस्कारो से अलंकृत पनराज जी बचपन से ही होनहार व विशिष्ट शोर्य व पराक्रम की प्रतिमुर्ति थे,
श्री पनराजजी ने घड़सीजी के बंगाल अभियान में भाग लेकर गजनी बुखारे के बादशाह के इक्के की मल्लयुद्ध में उसकी भुजा उखाड़कर उसे पराजित कर अपने अद्भुत शोर्य का परिचय दिया, जिससे प्रसन्न होकर बादशाह ने घड़सी जी को "गजनी का जैतवार" का खिताब दिया..
      --- शूरवीर पनराज का बलिदान --
एक दिन की बात हैं, काठौड़ी गांव में वीर पनराजजी की धर्मबहिन पालीवाल ब्राह्मण बाला रहती थी, एक दिन पनराजजी अपनी धर्म बहन से मिलने काठौड़ी गांव गए तो उन्होंने देखा कि कई मुसलमान वहां लूटपाट करके उनकी गायों को ले जा रहे थे ,
लोगो की चीख पुकार सुन व अपनी धर्म बहिन को रोते देख उस रणबांकुरे की त्यौरियां चढ़ गई व भृकुटी तन गई, वीर पनराजजी ने अपनी बहिन व समस्त लोगों को वचन दिया कि मैं तुम्हारी पूरी गायें वापस ले आऊंगा..उनकी बहिन ब्राह्मण बाला ने पनराज को युद्ध में जाने से रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन यह तो क्षत्रियता की परीक्षा थी जिसमें वीर पनराज जैसा रणबांकुरा कैसे पीछे हट सकता था....
शूरवीर पनराज अपने नवलखे तुरंग पर सवार होकर दुश्मन की दिशा मेँ पवन वेग से बढ़ चले ,घमासान युद्ध छिड़ गया, शूरवीर पनराज की तलवार दुश्मनों के रक्त से प्यास बुझाती हुई उन्हे यमलोक भेज रही थी..
वीर पनराज के हुँकारो से सारा वातावरण गुंजायमान हो रहा था..
पनराज के रणकौशल से शत्रु सेना मे भगदड़ मच गई, तुर्क मौत को नजदीक पाकर गायों को छोड़कर भागने लगे, वीर पनराज सम्पूर्ण गायों को मुक्त करवाकर विजयी चाल से वापस लौट रहा था, वीर की धर्मबहिन ब्राह्मण बाला अपने भाई की जीत की खुशी में फूला नही समा रही थी, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है, विधाता को कुछ और ही मंजुर था, एक तुर्क ने छल कपट से काम लेते हुए पीछे से वार कर वीर पनराज का सिर धड़ से अलग कर दिया ...
लेकिन यह क्या...वीर पनराज का बिना सिर का धड़ अपने दोनों हाथो से तलवार चलाकर शत्रुओं के लिए प्रलय साबित हो रहा था,
सिर कट जाने के बाद भी तुर्कों को मौत के घाट उतारता हुआ शूरवीर का सिर बारह कोस तक बहावलपुर (पाक) तक चला गया ,वीर पनराज की तलवार रणचण्डी का रूप धारण कर शत्रुओं के रक्त से अपनी प्यास बुझा रही थी, तुर्को मे त्राहि-त्राहि मच गई और वे अल्लाह-अल्लाह चिल्लाने लगे, तब किसी वृद्ध तुर्क की सलाह पर वीर पनराज के शरीर पर नीला(गुळी) रंग छिड़क दिया गया ,वीर पनराज का शरीर ठंडा पड़कर धरती मां की गोद मे समा गया,
उसी स्थान (बहावलपुर) पर वीर पनराज का स्मारक बना हुआ है जहां मुस्लिम उनकी 'मोडिया पीर' व 'बंडीया पीर' के नाम से पूजा करते है.....
प्रणवीर पनराज ने क्षात्र धर्म का पालन करते हुए गौ माता व ब्राह्मणों की रक्षार्थ अपना बलिदान दिया तथा अपने पूर्वज विजयराज लांझा से प्राप्त पदवी " उत्तर भड़ किवाड़ भाटी " को गौरवान्वित किया.......
यह एक विडम्बना ही रही या तत्कालीन शासकों की लेखन कार्यों में अरुचि कह सकते है कि शूरवीर पनराज की शौर्य गाथा जहां इतिहास के स्वर्णिम पन्नो में लिखी जानी थी वो स्थानीय चारण-भाट कवियों तक ही सीमित रह गई......
महारावल घड़सी जी को जैसलमेर की राजगद्दी पर बिठाने में पनराज जी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी, घड़सी जी ने पनराज जी का सम्मान करते हुए उन्हें सोनार दुर्ग के उतर नें सूली डूंगर पर स्थित भुर्ज प्रदान की....
महारावल घड़सीजी ने पनराज जी को 45 कोस की सीमा मे घोड़ा घुमाने पर उन्हें 45 कोस की जागीर दी जो क्षैत्र अाज राहड़की के नाम से जाना जाता है तथा यहां राहड़ भाटियों के गांव स्थित है..
स्वयं पनराजजी द्वारा निर्मित पनराजसर तालाब, जहां उनका सिर गिरा था उस स्थान पर पीले रंग की मूर्ति स्वतः प्रकट हुई,इसी स्थान पर वर्ष में दो बार भाद्रपद व माघ सुदी दशम को भव्य मेला लगता है तथा हजारों श्रदालु यहां मन्नत मांगने आते है व दादाजी उनकी मुरादे पूरी करते है|
रज उडी रजथाँण री, ग्रहया नर भुजंग |
दुश्मण रा टुकड़ा किया, रंग राहड़ पन्नड़ रंग||

जय वीर पनराजजी

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

राणा वीरधवल वाघेला

यह उस समय की बात हे जब अणहिलवाड पाटण पर भीमदेव (2nd) सोलंकी का राज था। अंधाधुँधी और घोर युध्धो के उस समय मे पाटण का राज छिन्न भिन हो रहा था। पाटण के सामंत राजा ओर अमात्य स्वतंत्र होकर सत्ता हथिया रहे थे, लेकिन धोळका मंडल के वाघेला राणा पाटण के प्रति हमेशा वफादार रहते आए थे।पीढ़ी दर पीढ़ी वाघेला राणाओ ने पाटण की रक्षा के लिये अपनी कुर्बानीया दि थी।जब भीमदेव (2nd) के ही दुसरै सामंतो ने राज हडपना चाहा तब धोळका के राणा अर्णोराज वाघेला ने भीमदेव के पक्ष मे रहकर युध्ध किया था और सोलंकीयो के राज को बचाया था। वोह युध्ध मे ही वीरगति को प्राप्त हुए और गुजरात की रक्षा की जिम्मेदारी अपने पुत्र लावण्यप्रसाद को देते गए थे।लावण्यप्रसाद वाघेला भी पाटण के सब से वफादार सामंत एवं सेनापति बन के रहै। पाटण के राज की रक्षा के लिये अपना पुरा जीवन समर्पित कर दिया। धोळका मे रहकर भी पुरे राज्य की बागडोर संभालते रहे इसलिए वह "सर्वेश्वर" के नाम से भी जानें गये। इन्ही के पुत्र थे वीरधवल वाघेला! वीरधवल बड़े पराक्रमी और शुरविर थे।पाटण के लिये उन्होंने जिंदगी भर लडाईया लड़ी। विरधवल ने सभी सामंत राजाओ को हराया। खंभात के सामंतशंख (संग्रामसिंह) को हराकर वफादार मंत्री वस्तुपाल को सोप दिया। गोधरा के कुख्यात लुटैरे और भील सरदार घुघुल का वध किया। इसतरह राणक विरधवल ने पाटण के सभी सामंतो को अपने वश मे कर के पाटण को अंदर से मजबूत और सुरक्षित बनाया ।वीरधवल और लावण्यप्रसादजी ने एक सच्चे राजपूत की तरह वफादारी और कर्तव्य निभाकर पाटण को मजबुत बनाया और जीवनभर पाटणपति की सेवा की। अगर ऊन्होने चाहा होता तो आसानी से राज हडप् कर जाते कयोकी वो इतने पराक्रमी ओर बलवान थे। मगर उन्होंने पाटणपति को ही अपना स्वामी माना और जीवनभर पाटण की तरफ से युध्ध ही किये। उनकी राजभक्ति को मेरुदंड समान अचल माना गया है।गुजरात का सुगठित और सुरक्षित समय काल राणावीरधवल वाघेला का कहा जा सकता हे, राणावीरधवल वाघेला प्रजाप्रेम और शौर्य का समन्वय थे, वीरधवल के समयकाल में उनकी प्रजा आपसी मन-मिटाव भूलकर हिलमिल कर रहती थी, जंगल के भीलो को भी उन्होंने अपने वश में किया था।राजा के डर से चोर भी चोरी जैसा निच काम भूल गए थे। राणा वीरधवल ने उनको खेत उपयोगी सामान देकर महेनत कर पेट भरने वाले बना दिए थे।पाल विस्तार में ऐसा कहा जाता था की वहा से अगर कोई व्यक्ति अपने पहने हुए कपडे भी सही सलामत लेकर आ जाये तो वो धन्य हे, ऐसे प्रदेश में भी राणा वीरधवल ने कांटो की जालों को सुवर्ण आभूषण मूल्यवान वस्त्रो आदि से सुशोभित कर बिना चोकी पहरे के खुले छोड़ रखे थे, पर फिर भी उसे वहा से चुराने की कोई हिम्मत नही कर सकता था।इस बात से आप अंदाजा लगा सकते हो की राणावीरधवल का राज्य कितना सुगठित और संस्कारी होगा।वीरधवल के डर से उनके राज्य में व्यभिचार बिलकुल बंध हो गया था। गुणिकाए भी बहु-पति छोड़ एकपति के साथ अपना जीवन निर्वाह करने लगी थी।ऐसी मर्यादाए राणा वीरधवल ने अपनी प्रजा हेतु बंदोबस्त की थी और गुजरात को समृद्ध और संस्कारी बनाया था।राणा वीरधवल ने अपने सामंतो से कर वसूल कर गुजरात को फिर से धन-धान्य से समृद्ध किया था, देश विदेशो में गुजरात की कीर्ति फैलनी लगी थी। और गुजरात की ऐसी ख्याति सुन कर दक्षिण का सिंधण राजा अपनी विशाल सेना के साथ गुजरात पर अपने अधिपत्य जमाने के मनसूबे से आया।गुजरात की प्रजा के मन में डर व्याप्त होने लगा शत्रुओ की सैन्य की विशालता देखकर, पर राणावीरधवल वाघेला ने अपनी प्रजा के मन से डर दूर किया उनको दिलासा दिया। सिंधण की सेना गुजरात की सिमा में दाखल हुई, और गुजरात के गाँवों को जलाती, प्रजा को मारती, परेशान करती हुई आगे बढ़ती जा रही थी।सिंधण की सेनाओ ने जलाये हुए गाँवों से उठते धुंए से सूर्य भी नही दिख रहा था, इसी पर से सिंधण की सेना की विशालता का अंदाजा लगाया जा शकता हे।वाघेला राणा वीरधवल वाघेला और उनके पिताजी लावण्यप्रसादजी ने अपनी सेना को सज्ज किया। सिंधण के मुकाबले वाघेला की सेना संख्या में बहुत कम थी, पर पराक्रम, शौर्य और युद्धकला में सिंधण को मात दे शके एसी गुजरात की सेना थी। सिंधण की सेना तापी नदी के किनारे तक पहुच चुकी थी,दोनों सेनाए आमने-सामने आ गयी,और गुजरात के इतिहास में उस युद्ध का प्रारंभ हुआ जो शौर्य में अव्वल कहा जा शके पर बहुत कम लोगो को इस पराक्रमी युद्ध के इतिहास का पता होगा, इतिहास में कुछ एसी बाते दब कर रह गयी हे जो साहस शौर्य में अव्वल रहनी चाहिए, यह हमारा कम नसीब हे की ऐसी गाथाये, कहानिया,इतिहासिक बाते चर्चा का विषय न बनकर मात्र कुछ किताबो में बंध पड़ी रही है, खैर मूल बात पर वापस आते हे. लावण्यप्रसाद अपने दोनों हाथो में आयुध धारण कर, मुखमंडल पर क्रोध की रेखाए अंकित हो चुकी थी, सिंधण सेना को त्राहिमाम कराने लगे थे।पर गुजरात का भविष्य धुंधला सा होने लगा था,कहा जाता हे की कोई संकट आता हे तो अकेला नही आता... उस हिसाब से, मारवाड़ पंथक के 4 राजाओ ने गुजरात की सेना को सिंधण के युद्ध में व्यस्त देख गुजरात पर कब्जा जमाने हेतु अपनी सेनाओ के साथ आ गए, इस तरह राणा वीरधवल वाघेला की सेना को दुगना संकट खड़ा हो गया, एसी विकटस्थिति में भी वीरधवल ने स्वयं पर संयम बनाये रखा,और एक तरफ मारवाड़ की सेना के सामने भी युद्ध आरंभ हुआ।मारवाड़ी सेना और सिंधण के सेना से युद्ध चालु ही था, पर वाघेला वीरधवल के लिए समस्या और भी बढ़ने ही वाली थी।भरुच और गोधरा के राजा राणा वीरधवल वाघेला के सामंत थे। वे दोनों इस युद्ध में राणा वीरधवलवाघेला की और से लड़ने आये थे। पर शत्रु ओ की बढ़ती संख्या देख उन दोनों ने क्षत्रित्व को कलंक लगाने वाला अति हीन काम किया, गुप्त तरीके से वे दोनों मारवाड़ी राजो से मंत्रणा करने लगे। उन दोनों राजवी ओ को पाटण के सामन्त पद से स्वतंत्र होने का यह बहोत ही अच्छा मौका दिख रहा था। और वे दोनों ने अपनी सेना मारवाड़ी सेना के साथ मिला दी और गुजरात के विरुद्ध हो गए।वाघेला राणा वीरधवल की सेना और भी कम हो गयी। पर वीरधवल मजबूत मनोबलि व्यक्तित्वधारी थे। उनको पता था की ऐसे राजा और उनकी सेना अपने साथ होकर भी न होने के बराबर थी।क्योंकि जो अन्तःकरण से अपना न हो वह अपने लिए बहोत बड़ा खतरा बन शकता हे। संकट बहोत बड़ा हो गया था पर फिर भी वीरधवल ने हार नही मानी और युद्ध चालू रखा। इस समय 4 मारवाड़ी राजा, दक्षिण का सिंधण राजा और दो फूटे हुए सामंत- गोधरा और भरुच के राजा, मतलब एक साथ 7 राजा ओ का सामना करना पड रहा था। पर इस बात से लावण्यप्रसादजी और वीरधवल की मुखमुद्रा पर कोई भय यादिलगीरी की रेखा नही दिखी। सम्पूर्ण क्षात्रत्व धारी थे वे दोनों पिता-पुत्र। सच्चा क्षत्रिय व्ही हे जो राजसभा और युद्ध दोनों ही स्थलो पर समान स्थिति में रहे, जरा भी विचलित न हो। और होना भी नही चाहिए, अन्यथा बहोत बड़ा नुकशान हो शकता हे।उन्होंने सिंधण की सेना के साथ बहोत ही वीरता और शौर्य के साथ युद्ध किया। वृद्धलावण्यप्रसादजी ने पूरी बहादुरी के साथ सिंधणकी बहोत सी सेना को काट डाला और सिंधणका बल कम किया। उसके बाद वे मारवाड़ी सेना परटूट पड़े।सिंधण की सेना वाघेला ओ से इतनी ज्यादा त्रस्तहो गयी थी की जिस समय लावण्यप्रसादजी पुरेजोश के साथ मारवाड़ी सेना को मार रहे थे उस समय वे चाहते तो वाघेला ओ को परेशान कर शकते थे।पर शेर के मार्ग में, अगर शेर गुफा से दूर भी गया होतो भी हिरण उस मार्ग से नही चल शकता। इसी तरह सिंधण की सेना वाघेला ओ के पीछे नही जा शकी, इतना डर उनके मन में बैठ गया वाघेलाओ के प्रति,अगर वे वीरधवल से पुनः युद्ध करते तो वे जित शकते थे।लावण्यप्रसादजी को 4 मारवाड़ी राजाओ और अपने 2 विश्वासघाती सामंतो पर अतिशय क्रोधआया, जो उनको हराने के पश्चात ही शांतहोनेवाला था। पर एक तरफ नयी मुसीबत खड़ी हो उठी थी।

सिंधु के बेटे शंख जो घोघा बन्दर के पास वडुआ बेट का राजा था, उसने दूत द्वारा वीरधवल के मंत्री वस्तुपाल को युद्ध के लिए तैयार होने का संदेश भिजवाया।

प्रसंग कुछ यु हुआ था की - एक बार जब धोळका से वस्तुपाल, राजा की आज्ञा से खंभात(खंभात वीरधवल वाघेला का राज्य का ही एक प्रदेश/बंदर) गया, वहा पुरे खंभात नगर ने उसकी आगता-स्वागता की, अमीर-उमराव उस से मिलने आये, दरबार में उसे बहुत मान मिला, पर एक सदीक नामक अमीर मिलने नही आया, वस्तुपालने सेवक भेज कर उसे मिलने बुलाया पर सदीक ने सेवक से कहा"में कोई अधिकारी से मिलने नही जाता, और ना ही किसी अधिकारी के सामने झुकता हु, पर अगर आप मुझसे मिलने आओ तो में आपकी हर इच्छा पूरी करूँगा, पर में आपसे मिलने नही आऊंगा॥"

सदीक खंभात नगर का एक बहुत अमीर आदमी था, अहंकारी और घमंडी भी था, घोघा के पास वडुआ बेट का राजा शंख उसका मित्र था, साथ में हंमेशा हथियारधारी आदमी रखकर राजा-महाराजा जैसा दंभ भी करता था, जिस वजह से वस्तुपाल ने दबाव बनाया की अगर मिलने नही आओगे तो दंड होगा।

सदीक ने अपने मित्र शंख से इस बारे में सहायता मांगी जिस पर शंख ने दूत भिजवाकर वस्तुपाल से कहा की "सदीक मेरा मित्र हे उसे परेशान ना करे अन्यथा परिणाम अच्छा नही होगा"

वस्तुपाल ने उसी दूत से कहवाया की "आप वडुआ के राजा हे और यह हमारा आपसी मामला हे, खंभात हमारा प्रदेश जिस पर आप दखलअंदाजी नही कर शकते, और आप को लड़ने की इच्छा हो तो आप ख़ुशी से आ शकते हे..."

अब जहा एक साथ 7 राजाओ से युद्ध चल रहा था उस समय शंख ने अपना दूत भेजा यह सोचकर की यह अच्छा समय हे खंभात पर कब्जा ज़माने के लिए। वाघेलाओ की सेना वेसे ही 7 राजाओ से युद्ध में व्यस्त हे, वस्तुपाल के पास दूत भिजवाकर कुछ इस तरह संदेश भेजा "हे चतुर मंत्री, तू समजदार हे और बहादुर भी, तेरे राजा पर बहुत बड़ा संकट आ गया हे, तुजे भी पता ही होगा की खंभात हमारे पूर्वजो की नगरी हे, वोह अब हमें वापस चाहिए, अगर तुजे उस नगर का मंत्री बनना हे तो तू मुझे आकर सलाम कर, में तुजे उस नगरी का हमेश के लिए मंत्री नियुक्त करूँगा, तुजे इनाम और जमीने दूंगा, पर यदि तूने मेरी बात स्वीकार नही की तो में खंभात तुम लोगो से छीन लूंगा, तेरी जगह पर किसी और को नियुक्त करूँगा, तूभी जानता हे तेरा अकेला राजा एक साथ 8 बड़े राजाओ से जित नही पायेगा, या मेरी बात मान ले या युद्ध के लिए तैयार हो जा."

ये बात वस्तुपाल को वज्र के घाव बराबर लगी, पर वह चतुर वणिक मंत्री ने बिना अभिमान दूत को उत्तर दिया "भले ही तेरा राजा युद्ध के लिए आ जाये, हम युद्ध के लिए तैयार हे, यदि गंगा नदी पर अगर हवा के साथ कुछ धूल-मिटटी या कचरा आकर गिरे तो वह नदी को मलिन नहीं कर शकता, पर नदी उस धूल-कचरे को कादव बनाकर पानी के निचे दबा देती हे, और स्वयंम असल स्थिति के मुताबिक़ निर्मल ही रहती हे। इसी लिए तुम लोग आकर खंभात पर कब्जा कर शको यह होना असंभव हे। शूरा क्षत्री राजाओ का तो धर्म ही हे की उसे अपना कर्तव्य कर के यश प्राप्त करना, पर तेरे जेसे के डराने से डर जाए वह नामर्द ही हो शकता हे। तेरा स्वामी राजा होकर भी खंभात मांग रहा हे, जब की हमारे राजा ने शस्त्रो के जोर पर खंभात को प्राप्त किया हे। अगर तेरे राजाको खंभात वापस चाहिए तो आयुध के जोर पर ही लेने की आशा रखे, तेरा राजा कहता हे की वीरधवल अकेला कैसे एक साथ सब से मुकाबला कर पायेगा? तो उसे कहना की वे दृढ और निश्चल पुरुष है, उनकी सहायता से वे कितने भी कठिन युद्ध में विजयश्री को हासिल करते हे, इस लिए हमें परमेश्वर पर पूरा विश्वास हे, खंभात नगरी का पति राणा वीरधवल वाघेला हे, और हमें एक पति छोड़ कर दूसरा पति लाने की कोई इच्छा नही हे। इसी लिए अगर खंभात नगरी तेरा राजा अपनी करना चाहता हे तो वो मारा जायेगा"एसा संदेश दूत ने अपने राजा को सुनाते ही शंख क्रोधायमान हुआ, अपनी सेना को सज्ज कर तुरंत तीव्र गति से वह खंभात के सरोवर किनारे आकर अपनी सेना को तैयार किया, वस्तुपाल को युद्ध के लिए सूचित करने हेतु जोर जोर से ढोल बजवाये.वस्तुपाल जानता ही था की शंख जरूर आएगा इस लिए वह भी युद्ध की पूर्ण तैयारिया कर के तैयार ही था। और भीषण लड़ाई हुई, वस्तुपाल खुद जैनधर्मि था, और जैन धर्म में हिंसा बहुत बड़ा पाप हे, पर फिर भी वह अपने राजा वीरधवल के प्रति पूरी वफादारी और कर्मनिष्टता से बाण-वर्षा करने लगा।मैदानी युद्ध में वस्तुपाल के दो श्रेष्ट क्षत्री वीर भुवनादित्य और संग्रामसिंह को शंख ने मार दिया जिस से वस्तुपाल क्रोधित हो उठा, वाचिंगदेव, उदयसिंह, विक्रमसिंह, सोमसिंह, भुवनपाल और हिरप्रधान की राजपूत टुकड़ी अपने जाबांज की शहादत देख शंख पर टूट पड़ी, शंख घोड़े से निचे गिर गया और भुवनपाल या वस्तुपाल ने उसे मोत के घाट उतार दिया। चारों ओर जोर से विजयनाद हुआ।

उस तरफ वीरधवल वाघेला से त्रस्त सिंधण ने बहुत बड़ी रकम का दंड भर कर संधि कर ली, मारवाड़ी और फूटे हुए सामंत को हार का मुह देखना पड़ा, चारों ओर वीरधवल की जयकार हो चली, गुजरात पुनः एक बार अपना सर आसमान से ऊँचा कर गौरवान्वित हो गया था।शत शत नमन वंदन ऐसे वीरो को जिन्होंने इतने बड़े संकट में भी अपने आप पर संयम बनाये रख कर बुलंद हौसले के साथ एक समेत 8 राजाओ को हरा दिया।

पुस्तक : वाघेला वृतांत
संयोजक : सत्यपाल सिंह वाघेला (धनाळा)
अनुवाद : दिव्यराज सिंह सरवैया (देदरड़ा)