सोमवार, 2 मार्च 2015

वीर बालक जोरावरसिंह और फ़तेहसिंह

जोरावर सिंह और फतेह सिंह ने कहा था-
हमें मरना स्वीकार है, पर इस्लाम नहीं
घटना औरंगजेब के शासनकाल की है। उसने सिखों के नौवें गुरु तेगबहादुर को मार डालने के उद्देश्य से दिल्ली बुलवाया था।
दिल्ली जाने से पहले गुरु तेगबहादुर ने अपने पुत्र गोविंद सिंह को बुलाकर कहा, "बेटा, आज से तुम ही सिखों के गुरु हो। तुम अपने प्राण देकर भी धर्म की रक्षा करना। लो, बाबा हरगोविंद सिंह की यह तलवार पकड़ो।"
तलवार पर अंकित था- "सिर दिया शेर (धर्म) न दिया"। वास्तव में गुरु तेगबहादुर ने अपना सिर कटा दिया, पर अपना धर्म नहीं छोड़ा।
गुरु गोविंद सिंह के चार पुत्र थे। चारों ने धर्म की रक्षा में अपने प्राण न्योछावर कर दिए। उन्होंने न तो अपने परिवार की आन तोड़ी और न ही अपनी शान में बट्टा लगने दिया।
गुरु गोविंद सिंह की दो पत्नियां थीं- सुंदरी देवी और ज्योति देवी। सुंदरी से अजीत सिंह और ज्योति से जुझार, जोरावर और फतेह सिंह का जन्म हुआ था।
कहा जाता है कि एक बार मुगल सेना ने गुरु गोविंद सिंह को घेर लिया। वह उस समय अपने परिवार सहित चमकौर दुर्ग में थे। किसी प्रकार उन्होंने अपनी माता गूजरी और दो छोटे बालकों- जोरावर व फतेह सिंह को बाहर भिजवा दिया।
कई दिनों तक युद्ध होता रहा। अंत में जब रसद और युद्ध-सामग्री कम होती गई और विजय की आशा भी समाप्त होती गई तो सबने बाहर निकलकर शत्रुओं को मारते हुए वीरगति पाने का निश्चय किया। उसी समय दोनों बड़े बेटे-अजीत और जुझार सिंह गुरु गोविंद सिंह के पास आए। वे बहुत भूखे-प्यासे थे।
गुरु गोविंद सिंह ने उनसे कहा, "जाओ, दुश्मनों के खून से अपनी भूख-प्यास बुझाओ।"
दोनों किशोर बालक अपने पिता की आज्ञा मानकर किले से बाहर निकले और शत्रुओं को मारते-काटते वीरगति को प्राप्त हुए। उधर माता गूजरी देवी और दोनों छोटे बालक मुगलों की पकड़ में आ गए। उन्हें बंदी बनाकर सरहिंद के सूबेदार वजीर खां के सामने पेश किया गया। दोनों बालकों के चेहरे पर भय का कोई चिह्न न था।
बालकों का भोला चेहरा देखकर सूबेदार को तरस आ गया। वह बोला, "मासूम बच्चो, अगर तुम मुस्लिम मजहब को स्वीकार कर लो तो तुम्हारी जान बच सकती है।"
बालकों ने सूबेदार को टके-सा जवाब दे दिया, "हम इस्लाम को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। हमें अपना हिन्दू धर्म प्राणों से भी प्यारा है।"
सूबेदार ने बालकों को लालच देकर फुसलाना चाहा, "मेरी बात मान लो तो तुम्हें दौलत मिलेगी। हम तुम्हारी शादी हूर की परियों से करा देंगे।"
वे बालक अपनी बात से जरा भी नहीं डिगे। उन्होंने साफ-साफ कह दिया, "हम स्वर्ग के बदले भी अपना धर्म नहीं छोड़ सकते। हमारा धर्म अमर है।"
यह सुनकर वजीर खां ने जल्लादों को हुक्म दिया, "इन्हें दीवार में जिंदा चिनवा दो।"
जब बालक दीवार में छाती तक चिन गए तब एक बार फिर वजीर खां ने कहा, "बच्चो, अभी भी समय है। बेकार ही जान मत गंवाओ। मेरी बात मान लो।"
"हमें मरना स्वीकार है, इस्लाम नहीं", बच्चों ने एक स्वर में कहा।
कहते हैं जब दीवार में छोटा भाई फतेह सिंह गले तक चिन गया तो बड़े भाई जोरावर सिंह की आंखों में आंसू आ गए। यह देखकर छोटे भाई ने पूछा, "भैया, क्या मौत से डरते हो? तुम रो क्यों रहे हो? क्या तुम्हें पिता की आज्ञा याद नहीं?"
"नहीं भैया, मैं मौत से नहीं डरता। मुझे तो दुख इस बात का है कि मैं पहले पैदा हुआ, पर यह दीवार तुम्हें पहले ढक लेगी। तुम्हें पहले स्वर्ग मिलेगा।"
दोनों बालकों ने हिन्दू धर्म की जयजयकार की और हमेशा के लिए आंखें बंद कर लीं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें