शनिवार, 8 जुलाई 2017

****भाई आलम सिंघ जी शहीद****

भाई आलम सिंघ जी , चौहान राजपूत घराने से संबंध रखते थे।
सूरज प्रकाश ग्रंथ,भट्ट बहियों,गुरु कीआं साखीयां आदि रचनाओं में इसका स्पष्ट उल्लेख है ।
"आलम सिंघ धरे सब आयुध,जात जिसी रजपूत भलेरी ।
खास मुसाहिब दास गुरु को,पास रहै नित श्री मुख हेरी ।
बोलन केर बिलास करैं, जिह संग सदा करुणा बहुतेरी ।
आयस ले हित संघर के,मन होए आनंद चलिओ तिस बेरी ।"
(सूरज प्रकाश ग्रंथ- कवि संतोख सिंघ जी..रुत 6,अंसू 39,पन्ना 2948)

भाई आलम सिंघ जी का जन्म दुबुर्जी उदयकरन वाली,जिला स्यालकोट (अब पाकिस्तान) में सन् 1660 हुआ,जो उनके पूर्वजों ने सन् 1590 में बसाया था ।
भाई आलम सिंघ जी के पिता राव (भाई)दुर्गा दास जी, दादा राव (भाई)पदम राए जी, परदादा राव (भाई)कौल दास जी ,सिख गुरु साहिबान के निकटवर्ती सिख व महान योद्धा थे ।
भाई आलम सिंघ जी के दादा के भ्राता राव (भाई ) किशन राए जी छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब जी द्वारा  मुगलों के खिलाफ लड़ी करतारपुर की जंग में 27 अप्रैल 1635 को शहीद हुए थे ।
भाई आलम सिंघ जी सन् 1673 में 13 वर्ष की आयु में अपने पिता राव (भाई) दुर्गा दास जी के साथ गुरु गोबिन्द सिंघ जी के दर्शन करने आए ।
गुरु जी ने उनको अपने खास सिखों में शामिल कर लिया । वो इतने फुर्तीले थे कि गुरु जी ने उनका नाम 'नचणा' रख दिया था ।
फरवरी 1696 में मुगल फौजदार हुसैन खान ने जब पहाड़ी राजपूत रियासत गुलेर पर आक्रमण किया तो वहां के राजा गज सिंह ने गुरु गोबिन्द सिंघ जी से मदद मांगी । गुरु जी ने अपने चुनिंदा सेनापतियों के नेतृत्व मे सिख फौज भेजी । राजपूतों व सिखों की संयुक्त सेना ने मुगल फौज को बुरी तरह परास्त किया लेकिन इस युद्ध में भाई आलम सिंघ जी के ताऊ जी के 2 पुत्र कुंवर (भाई) संगत राए जी व कुंवर भाई हनुमंत राए जी शहीद हो गए । साथ में राव भाई मनी सिंघ जी (पंवार) के भाई राव (भाई) लहणिया जी भी शहीद हुए ।
19 अगस्त 1695 को लाहौर के गवर्नर दिलावर खान के पुत्र रुस्तम खान ने आनन्दपुर साहिब पर हमला किया तो भाई आलम सिंघ जी व भाई उदय सिंघ जी के नेतृत्व में सिख फौज ने इतनी जोर से बोले सो निहाल सत श्री अकाल के जयकारे बोले और नगारे बजाए कि रुस्तम खान व मुगल फौज भयभीत होकर बिना लड़े भाग गई ।
23 जून 1698 को गुरु गोबिन्द सिंघ जी कटोच इलाके में शिकार खेलने गये तो दो कटोच राजाओं बलिया चंद व आलम चंद ने गुरु जी के साथ कम फौज देख कर उन पर हमला कर दिया लेकिन मुट्ठी भर सिंघों ने इनको बुरी तरह रौंद दिया । राजा आलम चंद की बांह भाई आलम सिंघ जी चौहान ने काट डाली व राजा बलिया चंद भी भाई उदय सिंघ जी पंवार के हाथों बुरी तरह घायल हुआ ।
गुरु गोबिन्द सिंघ जी द्वारा जुल्म के खिलाफ लड़े गए हर युद्ध में भाई आलम सिंघ जी की मुख्य भूमिका रही और बड़ी बात ये भी है कि वो गुरु गोबिन्द सिंघ जी के शस्त्र विद्या के उस्ताद भाई बज्जर सिंघ जी (राठौड़) के दामाद थे ।
भाई आलम सिंघ जी के समस्त परिवार ने गुरु जी द्वारा मुगलों के खिलाफ युद्धों में मोर्चा संभाला व समय समय पर शहीदीयां दी ।
भाई आलम सिंघ जी भी अपने एक भ्राता भाई बीर सिंघ जी व अपने दो पुत्रों भाई मोहर सिंघ जी, भाई अमोलक सिंघ जी सहित चमकौर की जंग में 7 दिसंबर 1705 को शहीद हुए ।

भाई आलम सिंघ जी की वंशावली

महाराजा सधन वां (अहिच्छेत्रपुर के महाराजा)
महाराजा चांप हरि
महाराजा कोइर सिंह
महाराजा चांपमान
महाराजा चाहमान (चौहान)
महाराजा नरसिंह
महाराजा वासदेव
महाराजा सामंतदेव
महाराजा सहदेव
महाराजा महंतदेव
महाराजा असराज
महाराजा अरमंतदेव
महाराजा माणकराव
महाराजा लछमन देव
महाराजा अनलदेव
महाराजा स्वच्छ देव
महाराजा अजराज
महाराजा जयराज
महाराजा विजयराज
महाराजा विग्रह राज
महाराजा चन्द्र राज
महाराजा दुर्लभ राज
महाराजा गूणक देव
महाराजा चन्द्र देव
महाराजा राजवापय
महाराजा शालिवाहन
महाराजा अजयपाल
महाराजा दूसलदेव
महाराजा बीसलदेव
महाराजा अनहलदेव
महाराजा विग्रह राज
महाराजा मांडलदेव
महाराजा दांतक जी
महाराजा गंगवे
महाराजा राण जी
महाराजा बीकम राय
महाराजा हरदेवल
महाराजा गोल राय
महाराजा गोएल राय
महाराजा गज़ल राय
राव उदयकरन जी
राव अंबिया राय
राव कौल दास
राव पदम राय
राव दुर्गा दास
राव आलम सिंघ जी

लेखक - श्री सतनाम सिंह जी पंवार

रविवार, 23 अप्रैल 2017

मैनपुरी का स्वतंत्रता सेनानी महाराजा तेजसिंह चौहान




#दुख है #मैनपुरी वाले सब भूल गए....
#अतिमहत्वपूर्ण_जानकारी.
#मैनपुरी जिले का इतिहास वीर गाथाओं से भरा पड़ा है। यहां की माटी में जन्मे लालहमेशा गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए हर सम्भव कोशिश करते रहे। ब्रिटिश राजमें स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यहां की माटी वीर सपूतों के खून से लाल हुई है।पृथ्वीराज चौहान के बाद उनके वंश के वीर देशभर में बिखर गए। उन्हीं में से एक  प्रतापरुद्र् जो की नीमराना से आये थे उन्होंने 1310 ई. में मैनपुरी में सर्वप्रथम चौहान वंश की स्थापनाकी। 1857 में जब स्वतंत्रता आंदोलन की आग धधकी तो महाराजा तेजसिंह की अगुवाई में मैनपुरी में भी क्रांति का बिगुल फूंक दिया गया। तेज सिंह वीरता से लड़े। और अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए। घर के भेदी की वजह से उन्हें भले ही अंग्रेजों को खदेड़ने में सफलता न मिली हो लेकिन इसमें उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। तेजसिंह ने जीवन भर मैनपुरी की धाक पूरी दुनिया में जमाए रखी।इतिहास गवाह है कि 10 मई 1857 को मेरठ से स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत हुई, जिसकी आग की लपटें मैनपुरी भी पहुंची। इस आंदोलन से पांच साल पहले ही महाराजा तेजसिंह को मैनपुरी की सत्ता हासिल हुई थी। उन्हें जैसे-जैसे अंग्रेजोंके जुल्म की कहानी सुनने को मिली, उनकी रगों में दौड़ रहा खून अंग्रेजी हुकूमत कोजड़ से उखाड़ फेंकने के लिए खौल उठा और 30 जून 1857 को अंग्रेजी हुकूमत केविरुद्ध तेजसिंह ने आंदोलन का बिगुल फूंक दिया। उन्होंने मैनपुरी के स्वतंत्र राज्य की घोषणा करते हुए ऐलान कर दिया। फिर क्या था राजा के ऐलान ने आग में घी का काम किया और उसी दिन तेजसिंह की अगुवाई में दर्जनों अंग्रेज अधिकारी मौत के घाट उतार दिए गए। सरकारी खजाना लूट लिया गया। अंग्रेजों की सम्पत्ति पर तेजसिंहकी सेना ने कब्जा कर लिया। तेजसिंह ने तत्कालीन जिलाधिकारी पावर को प्राण की भीख मांगने पर छोड़ दिया और मैनपुरी तेजसिंह की अगुवाई में क्रांतिकारियों की कर्मस्थली बन गयी। मगर स्वतंत्र राज्य अंग्रेजों को बर्दाश्त नहीं था। फलस्वरूप 27 दिसम्बर 1857 को अंग्रेजों ने मैनपुरी पर हमला बोल दिया। इस युद्ध में तेजसिंह के 250 सैनिक भारत माता की चरणों में अर्पित हो गए। प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन में तेजसिंह की भूमिका ने क्रांतिकारियों को एक जज्बा प्रदानकर दिया। हालांकि उनके चाचा राव भवानी सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध तेजसिंह का साथ नहीं दिया। फलस्वरूप तेजसिंह अंग्रेजों से लड़ते हुए गिरफ्तार होगए और अंग्रेजों ने उन्हें बनारस जेल भेज दिया। इसके बाद भवानी सिंह को मैनपुरीका राजा बना दिया गया। 1897 में बनारस जेल में ही तेजसिंह की मौत हो गयी।मैनपुरी के इस क्रांतिकारी राजा को उनकी प्रजा की तरफ से शत शत नमन...

आगे का वंशावली--प्रतापरुद्रजी के दो पुत्र हुये१.राजा विरसिंह जू देव जो मैनपुरी में बसे२. धारक देवजू जो पतारा क्षेत्र मे जाकर बसेमैनपुरी के राजा विरसिंह जू देव के चार पुत्र हुये१. महाराजा धीरशाह जी इनसे मैनपुरी के आसपास के गांव बसे२.राव गणेशजी जो एटा में गंज डुडवारा में जाकर बसे इनके २७ गांव पटियाली आदि हैं३. कुंअर अशोकमल जी के गांव उझैया अशोकपुर फ़कीरपुर आदि हैं४.पूर्णमल जी जिनके सौरिख सकरावा जसमेडी आदि गांव हैंमहाराजा धीरशाह जी के तीन पुत्र हुये१. भाव सिंह जी जो मैनपुरी में बसे२. भारतीचन्द जी जिनके नोनेर कांकन सकरा उमरैन दौलतपुर आदि गांव बसे२. खानदेवजू जिनके सतनी नगलाजुला पंचवटी के गांव हैंखानदेव जी के भाव सिंह जी हुयेभावसिंह जी के देवराज जी हुयेदेवराज जी के धर्मांगद जी हुयेधर्मांगद जी के तीन पुत्र हुये१. जगतमल जी जो मैनपुरी मे बसे२. कीरत सिंह जी जिनकी संतति किशनी के आसपास है३. पहाड सिंह जी जो सिमरई सहारा औरन्ध आदि गावों के आस पास बसे.

गुरुवार, 23 मार्च 2017

"घुड़ला पर्व" की ऐसी सच्चाई जिसे जान आप रह जाएँगे दंग


हिन्दुत्व को बचाने के लिये आपके द्वारा इस सत्य से हिन्दुओं को अवगत कराना आवश्यक है नही तो कालांतर मे अर्थ का अनर्थ हो सकता है !
मारवाड़ में होली के बाद एक पर्व शुरू होता है ,जिसे *घुड़ला पर्व* कहते है
कुँवारी लडकिया अपने सर पर एक मटका उठाकर उसके अंदर दीपक जलाकर गांव में घूमती है और घर घर घुड़लो जैसा गीत गाती है !
अब यह घुड़ला क्या है ?
कोई नहीं जानता है ,
घुड़ला की पूजा शुरू हो गयी
यह भी ऐसा ही घटिया ओर घातक षड्यंत्र है जैसा की अकबर को महान बोल दिया गया !
दरअसल हुआ ये था की घुड़ला खान अकबर का मुग़ल सरदार था और अत्याचारऔर पैशाचिकता मे भी अकबर जैसा ही गंदा पिशाच था ! ज़िला नागोर राजस्थान के पीपाड़ गांव के पास एक गांव है कोसाणा !उस गांव में लगभग 200 कुंवारी कन्याये गणगोर पर्व की पूजा कर रही थी ,वे व्रत में थी उनको मारवाड़ी भाषा में तीजणियां कहते है !
गाँव के बाहर मौजूद तालाब पर पूजन करने के लिये सभी बच्चियाँ गयी हुई थी उधर से ही घुडला खान मुसलमान सरदार अपनी फ़ौज के साथ निकल रहा था ,उसकी गंदी नज़र उन बच्चियों पर पड़ी तो उसकी वंशानुगत पैशाचिकता जाग उठी ! उसने सभी बच्चियों का बलात्कार के उद्देश्य से अपहरण कर लिया , जिस भी गाँव वाले ने विरोध किया उसको उसने मौत के घाट उतार दिया ! इसकी सूचना घुड़सवारों ने जोधपुर के राव सातल सिंह जी राठौड़ को दी ! राव सातल सिंह जी और उनके घुड़सवारों ने घुड़ला खान का पीछा किया और कुछ समय मे ही घुडला खान को रोक लिया , घुडला खान का चेहरा पीला पड़ गया उसने सातल सिंह जी की वीरता के बारे मे सुन रखा था ! उसने अपने आपको संयत करते हुये कहा , राव तुम मुझे नही दिल्ली के बादशाह अकबर को रोक रहे हो इसका ख़ामियाज़ा तुम्हें और जोधपुर को भुगतना पड़ सकता है ? राव सातल सिंह बोले , पापी दुष्ट ये तो बाद की बात है पर अभी तो मे तुझे तेरे इस गंदे काम का ख़ामियाज़ा भुगता देता हुँ ! राजपुतो की तलवारों ने दुष्ट मुग़लों के ख़ून से प्यास बुझाना शुरू कर दिया था , संख्या मे अधिक मुग़ल सैना के पांव उखड़ गये , भागती मुग़ल सैना का पीछा कर ख़ात्मा कर दिया गया ! राव सातल ने तलवार के भरपुर वार से घुडला खान का सिर धड़ से अलग कर दिया ! राव सातल सिंह ने सभी बच्चियों को मुक्त करवा उनकी सतीत्व की रक्षा करी !


इस युद्दध मे वीर सातल सिंह जी अत्यधिक घाव लगने से वीरगति को प्राप्त हुये ! उसी गाँव के तालाब पर सातल सिंह जी अंतिम संस्कार किया गया, वहाँ मौजूद सातल सिंह जी की समाधि उनकी वीरता ओर त्याग की गाथा सुना रही है ! गांव वालों ने बच्चियों को उस दुष्ट घुडला खान का सिर सोंप दिया ! बच्चियो ने घुडला खान के सिर को घड़े मे रख कर उस घड़े मे जितने घाव घुडला खान के शरीर पर हुये उतने छेद किये और फिर पुरे गाँव मे घुमाया और हर घर मे रोशनी की गयी ! यह है घुड़ले की वास्तविक कहानी !
हिन्दु राव सातल सिंह जी को तो भूल गए
और पापी दुष्ट घुड़ला खान को पूजने लग गये ! अब बताओ कैसे हो हिन्दुओं का उद्गार ?
इतिहास से जुडो और सत्य की पूजा करो !
सातल सिंह जी को याद करो घुड़ले खान को जूते मारो ....
कुँवर वीरेन्द्र सिंह शेखावत
प्रदेश अध्यक्ष , अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा युवा राजस्थान



सोमवार, 23 जनवरी 2017

वीर योद्धा कान्हड़देव चौहान




जालौर के वीर शासक कान्हड़देव का नाम आते ही लेखकों की कलमें ठहर जाती है तो पढ़ने वालों के कलेजे सिंहर उठते हैं। कारण यह नहीं कि उसने अपने से कई गुना शक्तिशाली दुश्मन को मात दी और अंत में बलिदान दिया। यह तो राजस्थान की उस समय की पहचान थी। कलम के ठहरने और कलेजों के कांपने का कारण यह था कि कान्हड़देव जैसे साहसी एवं पराक्रमी शासक का अंत ऐसा क्यों हुआ ? क्यों नहीं अन्य शासक उसके साथ हुए, क्यों नहीं सोचा कि कान्हड़देव की पराजय के बाद अन्य शासकों का क्या होगा। शायद डॉ. के.एस. लाल ने अपने इतिहास ग्रंथ 'खलजी वंश का इतिहास' में सही लिखा है कि'पराधीनता से घृणा करने वाले राजपूतों के पास शौर्य था, किंतु एकता की भावना नहीं थी। कुछेक ने प्रबल प्रतिरोध किया, किंतु उनमें से कोई भी अकेला दिल्ली के सुल्तान के सम्मुख नगण्य था। यदि दो या तीन राजपूत राजा भी सुल्तान के विरुद्ध एक हो जाते तो वे उसे पराजित करने में सफल होते।'
डॉ. के.एस. लाल की उक्त टिप्पणी बहुत ही सटीक है। कान्हड़देव की वंश परम्परा के सम्बन्ध में ही उदयपुर के ख्यातिनाम लेखक एवं इतिहासवेता डॉ. शक्तिकुमार शर्मा 'शकुन्त' ने लिखा है कि- 'चाहमान (चौहान) के वंशजों ने यायव्य कोण से आने वाले विदेशियों के आक्रमणों का न केवल तीव्र प्रतिरोध किया अपितु 300 वर्षों तक उनको जमने नहीं दिया। फिर चाहे वह मुहम्मद गजनी हो, गौरी हो अथवा अलाउद्दीन खिलजी हो, चौहानों के प्रधान पुरुषों ने उन्हें चुनौती दी, उनके अत्याचारों के रथ को रोके रखा तथा अन्त में आत्मबलिदान देकर भी देश और धर्म की रक्षा अन्तिम क्षण तक करते रहे।
बस, यही सब कुछ हुआ था इस चौहान वं श के यशस्वी वीर प्रधान पुरुष जालौर के राजा कान्हड़देव के साथ भी। पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद चौहानों की एक शाखा रणथंभौर चली गई तो दूसरी शाखा नाडौल और नाडौल से एक शाखा जालौर में स्थापित हो गई। कीर्तिपाल से प्रारम्भ हुई यह शाखा समरसिंह, उदयसिंह, चा चकदेव, सामन्तसिंह से होती हुई कान्हड़देव तक पहुँची। किशोरावस्था से अपने पिता का हाथ बांटने के निमित्त कान्हड़देव शासन र्यों में रुचि लेना शुरूकर दिया था। संवत 1355 में दिली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात जाने के लिए मारवाड़ का रास्ता चुना। कान्हड़देव को इस समय तक अलाउद्दीन के मनसूबे का पता लग चुका था। वह अपने इस अभिमान के तहत सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ना चाहता था। उसने कान्हड़देव को खिलअत से सुशोभित करने का लालच भी दिया मगर वह किसी भी तरह तैयार नहीं हुआ और सुल्तान के पत्र के जवाब में पत्र लिखकर साफ-साफ लिख भेजा-'तुम्हारी सेना अपने प्रयाण के रास्ते में आग लगा देती है, उसके साथ विष देने वाले व्यक्ति होते हैं, वह महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करती है, ब्राह्मणों का दमन करती है और गायों का वध करती है, यह सब कुछ हमारे धर्म के अनुकूल नहीं है, अत: हम तुम्हें यह मार्ग नहीं दे सकते हैं।”
कान्हड़देव के इस उत्तर से अलाउद्दीन खिलजी का क्रोधित होना स्वाभाविक था। उसने समूचे मारवाड़ से निपटने का मन बना लिया। गुजरात अभियान तो उसने और रास्ते से पूरा कर लिया लेकिन वह कान्हड़देव से निपटने की तैयारी में जुट गया और अपने सेनापति उलुग खां को गुजरात से वापसी पर जालौर पर आक्रमण का आदेश दिया।उलुगखां अपने सुल्तान के आदेशानुसार मारवाड़ की और बढ़ा ओर सर्वप्रथम सकराणा दुर्ग पर आक्रमण किया। सकाराणा उस समय कान्हड़देव के प्रधान जेता के जिम्मे था। द्वार बन्द था। मुस्लिम सेनाओं ने दुर्ग के बाहर जमकर लूटपाट मचाई, लेकिन यह अधिक देर नहीं चली और जेता ने दुर्ग से बाहर निकलकर ऐसा हमला बोला जो उलुगखां की कल्पना से बाहर था, उसके पैर उखड़ गये और भाग खड़ा हुआ। जेता मुस्लिम सेना से सोमनाथ के मन्दिर से लाई पांच मूर्तियां प्राप्त करने में सफल रहा। इतिहास में अब तक इस युद्ध पर अधिक प्रकाश नहीं डाला गया है लेकिन गुजरात लूटनेवाली सुल्तान की सेना को पराजित करना आसान काम नहीं हो सकता था, अत: निश्चित ही जालौर विजय से पूर्व यह युद्ध कम नहीं रहा होगा। स्मरण रहे कि इस युद्ध में सुल्तान का भतीजा मलिक एजुद्दीन और नुसरत खां के भाई के मरने का भी उल्लेख है।
इस पराजय के बाद 1308 ई. में. अलाउद्दीन ने कान्हड़देव को अपने विश्वस्त सेनानायक व कुशल राजनीतिज्ञ के द्वारा दरबार में बुलाया, बातों में आ गया और वह चला भी गया। जब पूरा दरबार लगा था, अलाउद्दीन ने अपने आपको दूसरा सिकन्दर घोषित करते हुए कहा कि भारत में कोई भी हिन्दू या राजपूत राजा नहीं है जो उसके सामने किंचित् भी टिक सके। कान्हड़देव को यह बात खटक गई, उसका स्वाभिमान जग उठा, उसने तलवार निकाल ली और बोल पड़ा-"आप ऐसा न कहें, मैं हूँ, यदि आपको जीत नहीं सका तो युद्ध करके मर तो सकता हूँ, राजपूत अपनी इस मृत्यु को मंगल-मृत्यु मानता है।'

यह कह कान्हड़देव अलाउद्दीन खिलजी का दरबार छोड़कर वहाँ से चल पड़ा और जालौर आ गया। सुल्तान ने कान्हड़देव के इस व्यवहार को बहुत ही बुरा माना और 1311 ई. में तुरन्त दंड देने के लिए जालौर की ओर अपनी सेना भेजी। डॉ. के.एस. लाल का कहना है कि राजपूतों ने शाही पक्षों को अनेक मुठभेड़ों में पराजित किया और उन्हें अनेकबार पीछे धकेल दिया। उन्होंने यह भी माना कि जालौर का युद्ध भयानक था और संभवत: दीर्घकालीन भी। गुजराती महाकाव्य 'कान्हड़दे प्रबन्ध' के अनुसार संघर्ष कुछ वर्षों तक चला और शाही सेनाओं को अनेक बार मुँह की खानी पड़ी। इन अपमान जनक पराजयों के समाचारों ने सुल्तान को उतेजित कर दिया और उसने अनुभवी मलिक कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। सुल्तान की सेना का जालौर से पूर्व ही सिवाणा के सामंत सीतलदेव ने सामना किया। दोनों के बीच ऐसा युद्ध हुआ जिसकी कलपना संभवत: सुल्तानी सेना नायकों के मस्तिष्क में थी भी नहीं। यही कारण था कि एक बार पुन: पराजय झेलनी पड़ी और वहाँ से दूर तक भागना पड़ा। सुल्तान को ज्यों ही पुन: पराजय का समाचार मिला, कहते हैं कि वह स्वयं इस बार पूरी शक्ति के साथ जालौर पर चढ़ आया।
अब तक सुल्तान को यह आभास अच्छी तरह हो गया था कि युद्ध में रणबांकुरे राजपूतों को पराजित करना कठिन ही नहीं असम्भव है। परिणाम स्वरूप अब सुल्तान की ओर से कूटनीतिक दांव-पेच शुरू हो गये और दुर्ग के ही एक प्रमुख भापला नामक व्यक्ति को प्रचूर धन का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। भापला ने दुर्ग के द्वार खोल दिये और मुस्लिम सेना ने दुर्ग में प्रवेश कर लिया। दुर्ग में तैयारियां पूर्ण थी। ज्यों ही सुल्तान की सेना का प्रवेश हुआ, अन्दर राजपूतों महिलाएं जौहर करने के लिए आगे बढ़ी तो पुरुष भूखे शेरों की तहर टूट पड़े। घमासान छिड़ गया। संख्या में राजपूत कम अवश्य थे लेकिन युद्ध को देखकर ऐसा लग रहा था मानो हजारों की सेना आपस में भिड़ रही हों। यहाँ यदि यह कहा जाए तो अतिश्योति नहीं होगी कि मुट्ठीभर राजपूतों ने पुन: यह बता दिया कि वे मर सकते हैं लेकिन हारते नहीं। देखते ही देखते जालौर के दुर्ग में मरघट की शान्ति पसर गई। 18 वर्ष का संघर्ष समाप्त हो गया। कान्हड़देव का क्या हुआ, इतिहास के स्रोत मौन है लेकिन जालौर का पतन हो गया और साथ ही उस शौर्य गाथा को भी विराम मिल गया जिसका प्रारम्भ चौहान वंशीय वीर-पुत्र कान्हड़देव ने किया था।
अलाउद्दीन को जालौर-विजय की खुशी अवश्य थी, लेकिन उसने यह समझने में किंचित् भी भूल नहीं की कि राजपूताने को जीतना कठिन है। यही कारण है कि इस विजय के उपरांत उसने यहाँ के राजपूत शासकों के संग मिलकर चलने में ही अपनी भलाई समझी और फिर कोई बड़ा अभियान नहीं चलाया। स्वयं डॉ. के.एस. लाल ने अपनी पुस्तक 'खलजी वंश का इतिहास' के पृष्ठ 114 पर लिखा है.राजपूताना पर पूर्ण आधिपत्य असंभव था और वहाँ अलाउद्दीन की सफलता संदिग्ध थी।" अपनी इस बात को स्पष्ट करते हुए डॉ. लाल लिखते हैं कि-'राजपूताना में सुल्तान की विजय स्वल्पकालीन रही, देशप्रेम और सम्मान के लिए मर मिटनेवाले राजपूतों ने कभी भी अलाउद्दीन के प्रांतपतियों के सम्मुख समर्पण नहीं किया। यदि उनकी पूर्ण पराजय हो जाती तो वे अच्छी तरह जानते थे कि किसी प्रकार अपमानकारी आक्रमण से स्वयं को और अपने परिवार को मुक्त करना चाहिए, जैसे ही आक्रमण का ज्वार उतर जाता वे अपने प्रदेशों पर पुन: अपना अधिकार जमा लेते। परिणाम यह रहा कि राजपूताना पर अलाउद्दीन का अधिकार सदैव संदिग्ध ही रहा। रणथम्भौर, चित्तौड़ उसके जीवनकाल में ही अधिपत्य से बाहर हो गये। जालौर भी विजय के शीघ्र बाद ही स्वतन्त्र हो गया। कारण स्पष्ट था, यहाँ के जन्मजात योद्धाओं की इस वीर भूमि की एक न एक रियासत दिल्ली सल्तनत की शक्ति का विरोध हमेशा करती रही, चाहे बाद में विश्व का सर्वशक्तिमान सम्राट अकबर ही क्यों न हो, प्रताप ने उसे भी ललकारा था और अनवरत संघर्ष किया था।
(लेखक – तेजसिंह तरुण “राजस्थान के सूरमा” )