सोमवार, 2 मार्च 2015

** संत पीपाजी **

अनत न जाऊं राजा राम की दुहाई।
कायागढ़ खोजता मैं नौ निधि पाई॥
राजस्थान प्रदेश के झालावाड़ जिला मुख्यालय के निकट आहू और कालीसिंध नदी के किनारे बना प्राचीन जलदुर्ग गागरोन संत पीपाजी की जन्म और शासन स्थली रहाहै। इसी के सामने दोनों नदियों के संगम पर उनकी समाधि, भूगर्भीय साधना गुफा और मंदिर आज भी स्थित हैं।
उनका जन्म 14वीं सदी के अंतिम दशकों में गागरोन के खीची राजवंश में हुआ था। वे गागरोन राज्य के एक वीर, धीर और प्रजापालक शासक थे। शासक रहते हुए उन्होंने दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान फिरोज तुगलक से लोहा लेकर विजय प्राप्त की थी, किन्तु युद्धजन्य उन्माद, हत्या, लूट-खसोट के वातावरण और जमीन से जल तक के रक्तपात को देख उन्होंने तलवार तथा गागरोन की राजगद्दी का त्याग कर दिया था। ऐसे त्याग के तत्काल बाद उन्होंने काशी जाकर स्वामी रामानन्द का शिष्यत्व ग्रहण किया। शिष्य की कठिन परीक्षा में सफल होकर वे स्वामी रामानन्द के बारह प्रधान शिष्योंमें स्थान पाकर संत कबीर के गुरुभाई बने।
उनका जीवन चरित्र देश के महान समाज सुधारकों में एक नायाब नमूना है। इसलिये भक्ति आंदोलन के संत ही नहीं अपितु बाद के समाजसुधारक संतों के लिए वे एक उदाहरण बन गए। उनकी ऐसी विचारधारा के कारण ही वे कई भक्त मालाओं के आदर्श चरित्र पुरुष बनकर लोकवाणियों में गाये गये।
संत पीपाजी ने अपनी पत्नी सीता सहचरी के साथ राजस्थान में भक्ति एवं समाज सुधार समन्वय का अलख जगाने में विलक्षण योगदान दिया। उन्होंने उत्तरी भारत के सारे सन्तों को राजस्थान के गागरोन में आने का न्यौता दिया। स्वामी रामानन्द, संत कबीर, रैदास, धन्ना सहित अनेक संतों की मण्डलियों का पहली बार राजस्थान की धरती पर आगमन हुआ और युद्धों में उलझते राजस्थान में भक्ति और समाज सुधार की एक महान क्रांति का सूत्रपात हुआ। पीपाजी और सीता सहचरी ने उसी समय अपना राज्य त्याग कर गागरोन से गुजरात तक संतों की यात्रा का नेतृत्व किया। उन्होंने समुद्र स्थित द्वारका तीर्थ को खोजा और
परदु:खकातरता, परपीड़ा तथा परव्याधि की पीड़ा की अनुभूति कराने वाली वैष्णव विचारधारा को जन-जन के लिए समान भावों से जीवनोपयोगी सिद्ध किया। कालान्तर में गुजरात के महान भक्त नरसी मेहता ने उनकी इसी विचारधारा से प्रभावित होकर ‘वैष्णव जन तो तैने कहिये, पीर पराई जाण रै’ पद लिखा, जो महात्मा गांधी के जीवन में भी प्रेरणादायी सिद्ध हुआ।
संत पीपाजी को निर्गुण भावधारा का संत कवि एवं समाज सुधार का प्रचारक माना जाता है। भक्त मीराबाई उनसे बहुत प्रभावित थी, तभी तो उन्होंने लिखा—
‘पीपा को प्रभू परच्यो दिन्हो, दियो रे खजानापूर’।
वहीं भक्तमाल लेखन की परम्परा का प्रवर्तन करने वाले नाभादास ने पीपाजी के जीवन चरित्र पर देश में सर्वप्रथम ‘छप्पय’ की रचना की थी।
संत पीपाजी बाहरी आडम्बरों, थोथे कर्मकाण्डों और रूढिय़ों के प्रबल विरोधी थे। उनका मानना था कि ‘ईश्वर निर्गुण, निराकार, निर्विकार और अनिर्वचनीय है। वह बाहर-भीतर, घट-घट में व्याप्त है।वह अक्षत है और जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में व्याप्त है।’ उनके अनुसार, ‘मानव मन (शरीर) में ही सारी सिद्धियां और वस्तुएं व्याप्त हैं।’ उनका यह विराट चिन्तन ‘यत्पण्डेतत्ब्रह्माण्डे’ के विराट सूत्र को मूर्त करता है और तभी वे अपनी काया में ही समस्त निधियों को पा लेते हैं। गुरु ग्रन्थ साहिब में समादृत इस महान्वि भूति का यह पद इसी भावभूमि पर खड़ा हुआ भारतीय भक्ति साहित्य का कण्ठहार माना जाता है :
॥ जय माता दि ॥

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