देपालदे की कहानी सदियों पुरानी है | सिंध के उत्तरी शिरे पर बसा शहर देपालदेपुर उनकी कीर्ति का साक्षी है | यदुवंशी भाटी जब थार के रेगिस्तान में आए तब केहर के पुत्र राव तणु ने तणुकोट की स्थापना की, जिसे आज कल ‘तन्नौट’ नाम से पुकारा जाता है | इनके भाई कुँवर जाम की संतान ‘भाटिया’ नाम से ख्यातिप्राप्त व्यावसायी है| कहा भी गया है –
‘नख चौरासी भाटिया केहर रौ कुळ जाण |’
इसी राव तणु के एक राजकुमार जयतुंग के वंशज थे- देपालदे | इस जयतुंग के वंशजों के बसाए गाँव-कस्बे थार में कोल्हासर, गिरिराजसर, नगरासर आदि नामों से आज भी ख्यात है | देपालदे की राजधानी बीकमपुर थी, जो पहले पूगल और बाद में जैसलमेर रियासत में मिल गई थी | इन्ही देपालदे की उदारता और करुणा की यह कहानी लोक अत्यंत चाव से सदियों से एक दूसरे को सुनाता आ रहा है |
एक बार की बात है कि देपालदे अपने एक सैनिक के साथ अपनी प्रजा का हाल जानने निकले | वे दयालू प्रकृति के राजा थे | अभावग्रस्त की सहायता करतेथे | वे भेष बदल कर घूम रहे थे | वर्षा हो चुकी थी | किसान अपने खेतों में हल चला रहे थे | खुशनुमा माहौल था | देपालदे का मन-मयूर नाच उठा | अचानक उनके सामने एक अजीबोगरीब नजारा आ खड़ा हुआ | एक किसान हल चला रहा था और एक तरफ बैल जुता था तथा दूसरी ओर एक बैल की जगह एक स्त्री हल में जुती हुई थी | देपालदे किसान के पास पहुंचे और नम्रता से किसान को इसका कारण पूछा| किसान उग्र स्वभाव का था | उसने देपालदे की तरफ टेडी नजर से देखा और हल चलाता रहा | देपालदे ने पास जाकर उसे स्त्री को हल से अलग करने का कहा | किसान इस बार और उग्र होकर बोला – ‘मेरी पत्नी है, चाहे जैसे रखूंगा, तुझे दया आ रही है तो बैल लाकर दे दे | मेरे पास एक ही बैल है |’
देपालदे ने साथ के सैनिक को बैल लेकर आने को कहा | सैनिक चला गया पर किसान रुका नहीं, हल चलाता रहा| हल चलता ही नहीं रहा अपितु बैल के साथ ही साथ स्त्री को भी कौड़े मारने लगा | देपालदे से यह सब देखा नहीं गया , वे बोले –
‘भले आदमी रुक जा, मेरा आदमी बैल लेकर आ ही रहा है |’
किसान तो एक ही तरह का आदमी था | आवेशित होकर बोला –
‘देख नहीं रहा है, मेरा खेत सूखा जा रहा है ? तुझे ज्यादा ही दया आ रही है तो तूं आकर हल में जुत जा |’
यह कह कर उसने फिर स्त्री पर कौड़ा फटकारा | देपालदे ने इस बार किसान को रोका और स्त्री की जगह खुद हल में जुत गए | किसान हल चलाता रहा | उसने एक दो कौड़े भी देपालदे पर फटकार दिए | हल की दो ओड़ें ( बीज बोई लकीरें ) देपालदे ने पूरी की,तब तक उनका सैनिक बैल लेकर आ गया | देपालदे को किसान ने मुक्त कर दिया |
किसान की इस बार फसल भरपूर हुई | पूरा खेत बाजरी की बालियों से लद गया | उसकी ख़ुशी का पार नहीं रहा |
‘पर यह क्या हुआ?’ किसान सोच रहा था | जिन दो ओड़ों में देपालदे ने हल चलाया था, उस कतार की बालियों में एक भी दाना नहीं था | किसान ने फिर देपालदे को एक गाली दी –
‘ कैसा कर्महीन राजा था, जहां हल चलाया उन बालियों में दाना तक नहीं पड़ा |’
तब तक वह जान चुका था कि बैल दिलाने वाला व्यक्ति और कोई नहीं उस अंचल के राजा देपालदे थे | किसान सारी बालियाँ काटने के बाद पशुओं के चारे के लिए सूखी हुई घाड़ें ( डंठल ) काटने लगा | सारे खेत की सफाई करने के बाद वह उन दो लकीरों के डंठलों के पास आया | उसके मन में राजा के प्रति अब भी रोष था | अनमना सा उन डंठलों को काटने लगा | लोक आख्यानों की जुबान पर कथा है कि उन सूखी बालियों से मोती झरे | किसान उन मोतियों की गंठड़ी बाँध कर देपालदे के दरबार में पहुंचा | किसान चारण था, कविता करने वाला | राजपूत राजाओं के दरबार में मान पाने वाला | देपालदे ने सम्मान पूर्वक कहा – ‘ आओ देवीपुत्र ! कैसे आना हुआ ?
चारण ने गंठड़ी दरबार में नीचे रखी और उसे खोला | दरबारियों की आँखें चौंधिया गई | झिलमिलाते मोती, आबदार मोती गंठड़ी में भरे पड़े थे | लोग कुछ समझते इससे पहले चारण किसान ने दोहा कहा –
‘जे जाणूं जिण बार, नग कण मोती नीपजै |
(तो) बातो वारो ही वार, देव तनै देपालदे ||’
( हे देवतुल्य देपालदे ! अगर में यह जानता कि तुम्हारे हल चलाने से मोतियों की फसल निपजेगी, तो मैं पूरे खेत में तुझसे ही हल चलवाता |)
यह दोहा आज भी लोग देपालदे के सम्मान में कहते हैं | समझदार कहते हैं कि किसान की भरपूर फसल हुई और खूब धन आया | इसलिए मोतियों की गंठड़ी भर गई | कवि कहते हैं कि देपालदे ने एक स्त्री का मान रखा इसलिए प्रतीक में उनके हल चलाने को ‘मान के मोती’ कहा | कारण जो भी हो एक करुणाशील राजा की इस कथा को लोक सदियों से दोहराता हुआ कहता है कि देपालदे ने जहां हल चलाया था ‘वहां मोती निपजे थे |’
इस भारत भूमि पर कई वीर योद्धाओ ने जन्म लिया है। जिन्होंने अपने धर्म संस्कृति और वतन पर खुद को न्यौछावर कर दिया। सत् सत् नमन है इन वीर योद्धाओं को।
शुक्रवार, 19 जून 2015
करुणाशील राजा देपालदे भाटी
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