शुक्रवार, 19 जून 2015

मेहाजी मांगळिया(सिसोदिया)

‘बाँकीदास री ख्यात’ के अनुसार मांगळिया शाखा का उद्भव बाप्पा रावल के बेटे आणंददे से माना जाता है| इस शाखा का नामकरण आणंददे के वंशज मंगल से हुआ माना जाता है | आपसी रंजिश के चलते शिशोदिया राजपूतों की यह शाखा मारवाड़ में आ गई| मारवाड़ का प्रसिद्द कस्बा ‘खींवसर’ इसी शाखा के खींवसी मांगळिया ने बसाया था | राव जोधा के बेटे करमसी को साळाकटारी जब खींवसर मिला तो मांगळियों का खींवसर से अधिकार समाप्त हो गया | पर उनके प्रभुत्व काल के स्मारक-छतरियाँ अभी भी मौजूद है | राव मालदेव के काल तक सत्ता में इनका प्रभुत्व था, इसके प्रमाण वीरम मांगळिया को नागौर के शासक मुहम्मद खान पर विजय के बाद नागौर के हाकिम बनाने और सिवाणा विजय के बाद मांगळिया देवा भादावत को सिवाणा के किलेदार बनाने के रूप में मिलती है | जोधपुर की ख्यात के अनुसार रोहिट के वरजांग भींवोत का प्रधान कल्ला मांगळिया था, इसी का बसाया ‘कल्याणपुर’ वर्तमान में बाड़मेर जिले में है |
मेहाजी का जन्म विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में माना जाता है | इनके पिता का नाम ‘कीलूजी’ था | राजस्थानी में कीलू, किल्ला, किलो आदि शब्द ‘कल्याण’ के ही देशज रूप हैं | इनके पितामह करणसी थे | मेहाजी की माता मायउदे ख्यातविश्रुत राणा रूपड़ा पड़िहार मँडोर-शासक की बहन थी | मेहाजी के पिता केलूजी संघर्षमय उस काल में तापू नामक ग्राम में आकर रहने लगे | मांगळियों की शक्ति उस वक्त उतार पर थी | केलूजी के दो बेटे व एक बेटी का उल्लेख मिलता है| बेटों के नाम दूलग और मेहा मिलता है |
केलूजी की बेटी जांगलू के राणा गोपालसी सांखला को ब्याही गई थी| गोपालसी सांखला आपसी गृह-कलह में मारे गए, तब बीठनोक के बीठू धरमे ने गर्भवती केलूजी की पुत्री को बाप के पास पहुंचाया | यहीं मेहराज सांखला का जन्म हुआ | यहीं पला और बढ़ा | इस कारण इतिहासकारों को भ्रम हुआ और उन्होंने मेहा मांगळिया व मेहराज सांखला को एक मान लिया | यह मेहराज सांखला प्रसिद्द पीर हरभम अथवा ‘हड़बू’ का पिता है |
मेहाजी मांगळिया उदार क्षत्रिय थे और क्षत्रियोचित गुणों से विभूषित थे | वीरता, करुणा, सेवा-सहानुभूति और वचनपालन के लिए जीने वाले मेहाजी गौरक्षा को समर्पित थे | बचपन में ही पिता का छाया सिर से उठ जाने के कारण वे संघर्षशील बने और बापिणी, ईसरू, वेदू सहित सम्पूर्ण माँगळियावाटी पर अधिकार किया | उनकी शादी रावल मल्लीनाथ की पुत्री हीराकंवर के साथ हुई थी | फेरों के समय हीराकंवर की भतीजी जगमाल की पुत्री सुहागकंवर बुआ के साथ घूमने लगी | पारम्परिक रूप से तब सुहागकंवर भी पत्नी रूप में स्वीकार्य हुई| एक बार मेहाजी अपनी माँ के साथ पुष्कर तीर्थयात्रा पर गए तब वहां एक गूजरी उनकी मुंहबोली बहन बन गई थी | मेहाजी ने उसे कहा कि किसी भी संकट के समय अपने इस भाई को याद करना | गूजरी के पास गायों का बड़ा समूह था और गौधन-लुटेरे उन पर नजरें गड़ाये रहते थे | वह काल खंड अकालों – अभावों का था | अकाल पड़ने पर मुंहबोली बहन गूजरी मेहाजी के पास ‘बापिणी’ उनके गाँव गायें लेकर आई | जहाँ उसने गोळ ( डेरा ) किया था वह स्थान आज भी ‘गूजर-टंकी’ के नाम से मशहूर है | गूजरों के पास काफी गौधन था | पडौसी राज्य जैसलमेर के भाटियों की नजरें इस गौधन पर थी | उन्होंने उन गायों का हरण कर लिया | वचनबद्ध मेहाजी ने उनका पीछा किया| अपने साथियों के साथ वाहर चढ़े मेहाजी का लुटेरों से भीकमकोर के पास झिंगोर- नाडी के पास सामना हुआ | गूजरी की गायें वापिस ले आए किन्तु एक सांड पीछे छूट गया था उसे लाते समय घात लगाए लुटेरों ने उनका वध कर दिया | बापिणी ग्राम में इनका सुप्रसिद्ध मंदिर है |
कुछ आधुनिक कवियों (जसुदान वीठू व भंवरदान किनिया ) ने भाटियों से हुए युद्ध के कारण इसका सम्बन्ध जैसलमेर के तत्कालीन शासक दूदा (दुर्जनसाल) और उसके वीर भाई तिलोकसी के साथ जोड़ा हैं जो इतिहास सम्मत नहीं है | दूदा-तिलोकसी जैसलमेर के दूसरे जौहर-शाके में काम आए थे | वस्तुतः यह संघर्ष हुआ किन्हीं भाटियों से था और गौरव देने के कारण इसे दूदा-तिलोकसी से जोड़ दिया गया | दूदा के समकालीन किसी प्रसिद्द कवि ने इसका कहीं भी उल्लेख नहीं किया है जो इतिहास में ख्यात है ,जिनमें रतनू आसराव, रतनू तिहणराव, वीठू बोहड़ और सांदू हूँफा महत्वपूर्ण है | पर उन्होंने परोपकार के लिए प्राण दी थे चाहे सामने कोई भी क्यों न हो, इसलिए मेहाजी की कीर्ति अक्षुण्ण है |
मेहाजी के उत्तराधिकारी उनके भाई दूलगजी के बेटे वैरसी हुए,क्योंकि उनका वंश नहीं चला | इसी वैरसी ने देवी करनीजी के पिता मेहजी किनिया को ‘सुवाप’ गाँव दिया था | मेहाजी पर जसुदान वीठू ने ‘वीर मेहा प्रकास’ , मध्यकालीन डिंगल देवीदास किनिया ने गीत और देवकरण बारठ इंदोकली ने ‘वीर छत्रियां रा कवत्त’ में मेहाजी के प्रति श्रद्धा इस तरह व्यक्त की है-
‘पाबू, हड़बू पीर, गोग चहुवाण गिणीजै |
मांगळियो मेहोजू ,देव मिळियां चित्त दीजै |’
राजस्थान के पांचों पीरों में माने जाने वाले केळू-सुत मेहाजी की कीर्ति उनके सद्कर्मों से अमर है |
मांगलिक अवसरों पर दिए जाने ‘रंग’ में, जिसमें कीर्ति-पुरुषों को याद किया जाता है, मेहाजी को इस तरह याद करते हैं –
‘केळू सूत चढ़ती कळा, भळहळ ऊगो भांण |
अमलां वेळा आपनै, रंग मेहाजळ रांण ||
बणियौ गायां वाहरू, जुड़ियौ जायर जंग |
निरमळ कीरत केळनंद, रंग मेहाजळ रंग ||’

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