मंगलवार, 21 जुलाई 2015

आन -बान एवं शरणागत रक्षक महान योद्धा -हम्मीरदेव चौहान की भी याद करो कुर्वानी

राजपूतों के छत्तीस राजकुलों में चौहान राजपूतों ने वीरता ,स्वाभिमान ,शौर्यता ,त्याग ,बलिदान और आन -बान -शान का सम्पूर्ण रक्षण करके भारतभूमि की राष्ट्रीयता और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने ब्राहाय् -सुखोपभोगों का ही नही ,प्रियतम आत्मीयजनों का और स्वयं के प्राणों का भी बलिदान करने में सदा उत्सुक और तत्पर रहे।ऐसा सर्वानुमते स्वीकार हुआ है ,और इस प्राचीन व् गौरवशाली वंश के नामांकित राजपुत्रों की प्रशंसा में प्रत्येक भाषा में पूर्वकाल से ही अनेक काव्य ग्रन्थ रचे हुए है ।स्वतंत्रता ,स्वाभिमान और नेक -टेक की धुन में ही मंच -पंच हठीले चौहानों ने वैभव ,सत्ता व् राज्य का लोभ नहीं करते हुये कीर्ति का लोभ रखने के कारण कई महान योद्धा मुग़ल शासन में गमा दिए ।
पृथ्वीराज चौहान के बाद चौहानों के इतिहास में राजा हमीर देव चौहान ही महान व्यकित्तव ,आन -बान वाला साहसी व् तेजस्वी महान योद्धा था ।पूर्वी राजस्थान के सवाईमाधोपुरसे लगभग 12किलोमीटर दूर रणथम्भोर अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा एक विकट ,अजेय ऐतिहासिक दुर्ग रणथम्भौर चौहान राजाओं का एक प्रमुख साम्राज्य रहा है ।जिसका शासन अंतिम हिन्दू सम्राट परमवीर साहसी पृथ्वीराज चौहान के वंशजों द्वारा किया जाता था ।रणथम्भौर को सर्वाधिक गौरव मिला यहाँ के वीर और पराक्रमी शासक राव हमीर देव चौहान केअनुपम त्याग और बलिदान से । हमीर चौहान वंशी राजा जैत्र सिंह का पुत्र था ।इसका शासन 1281 -1301 तक रहा था।गद्दी पर बैठने के बाद हम्मीर ने दिग्विजय प्राप्त की।इसके बाद उसने 1288 में अपने कुल पुरोहित विश्वरूपा की देख रेख मेंकोटि यज्ञ किया ।इसके 2वर्ष बाद 1290ई0 में जलालुदीन ख़िलजी ने रणथम्भौर पर चढ़ाई की तो जेन पर हमीर की सेना ने सेनापति गुरुदास के नेतृत्व में भीषण युद्ध किया ।यह स्थान अब छान का दर्रा कहलाता है ।युद्ध में जब हमीर का सेनापति मारा गयातब सुलतान की सेना दर्रा पार कर रणथम्भौर पहुंची ।किला फतह करने हेतु उसने मंजीकने लगवायेऔर साबातें बनबाई परन्तु सभी अथक प्रयासों के बाद भी सफलता न मिलने पर दिल्ली लौट गया ।इसके दिल्ली लौटते ही हमीर ने जैन को वापस विजय कर लिया ।पुनः 1292ई0 में सुलतान जलालुद्दीन ख़िलजी ने हमीर पर चढ़ाई की किन्तु इस बार भी विफल रहा ।
जलालुद्दीन को क़त्ल कर उसका भतीजा अल्लाउद्दीन ख़िलजी दिल्ली का सुलतान बन गया था ।उसने सेनापति उलगाखां और नसरतखां को गुजरात विजय करने हेतु भेजाजब इनकी सेना वापस लौट रही थी तो जालोर के पास बगावत हो गई ।वागीदल के नेता मोहम्मदशाह और उसका भाई मीर गाभरू भागकर रणथंभोर के राजा हमीर की शरण में आगये ।उस समय देश भर में ये दोनों सभी राजाओं व् महाराजाओं के पास शरण मांगते फिरे लेकिन किसी भी राजा ने अलाउद्दीन ख़िलजी साम्राज्य के इन भगोड़ों को शरण नहीं दी ।महाजनों ने राजा हमीर से शरण देने का घोर विरोध किया किन्तु हम्मीर ने उन्हें नही हटाया ।ख़िलजी ने भी उन्हें वापस माँगा किन्तु नही दिया इस पर सुलतान ख़िलजी ने अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु सेनापति अलगाखां को सन् 1299 -1300 ई0 की शर्दी में रणथंभोर पर आक्रमण करने भेजा लेकिन किले की घेरेबंदी करते समय हम्मीर के सैनिकों द्वारा दुर्ग से की गई पत्थर वर्षा से वह मारा गया ।इस पर क्रुद्ध हो अलाउद्दीन स्वयं रणथंभोर पर चढ़ आया तथा विशाल सेना के साथ दुर्ग को घेर लिया ।पराक्रमी हम्मीर ने इस आक्रमण का जोरदार मुकाबला किया ।हम्मीर की सेना ने दुर्ग के भीतर से ही ख़िलजी की सेना को काफी क्षति पहुंचाई ।इस तरह रणथंभोर का घेरा लगभग एक वर्ष तक चला ।अंततः ख़िलजी ने छल और कूटनीति का आश्रय लिया तथा हम्मीर के दो मंत्रियों रतिपाल और रणमल को बूंदी का परगना इनायत करने का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया ।इस विश्वासघात के फलस्वरूप हम्मीर को पराजय का मुख देखना पड़ा ।अंततः उसने केसरिया करने की ठानी ।दुर्ग की ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया तथा राव हम्मीर अपने कुछ विश्वस्त सामंतों तथा मह्मांशाह सहित दुर्ग से बाहर आ शत्रु सेना से युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ ।जुलाई 1301 ई0 में रणथंभोर पर अलाउदीन ख़िलजी का अधिकार हो गया ।इस प्रकार राव हम्मीर चौहान ने शरणागत बत्सलता के आदर्श का निर्वाह करते हुये राज्य लक्ष्मी सहित अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया ।भारतीय इतिहास की यह एक मात्र घटना है ,जिसमें किसी परमवीर महाराजा ने अपनी संप्रभुता अपने राज्य के लिए नहीं ,बल्कि शरणागत मुग़ल के परिजनोंकी रक्षार्थ ,अपने विशाल साम्राज्य ,अपना जीवन 25 हजार,राजपूत वीरांगनाओं और 3 लाख केसरिया वाना पहने राजपूत वीरों का सर्वस्व बलिदान कर दिया ।
हम्मीर के शौर्य और बलिदान की प्रशंसा करते हुये किसी ने लिखा है कि उसमें वे सब गुण थे ,जो एक आदर्श राजपूत चरित्र में होने चाहिए ।राजा हम्मीर के इस अदभुत त्याग और बलिदान से प्रेरित हो संस्कृत ,प्राकृत ,राजस्थानी व् हिंदी आदि सभी प्रमुख भाषाओं में कवियों ने उसे अपना चरित्रनायक बनाकर उसका यशोगान किया है ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।
साभार -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव -लढोता ,सासनी ,जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।

1 टिप्पणी:

  1. गंगासिंह जी आपके द्वारा दी इतिहास की जानकारी वास्तव मे अद्भुत है परन्तु श्रीमान ये मोहम्मद शाह कोन था और इसके साथ यहाँ किस किस ने शरण ली ???

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