इस साल फिर सावन भी खाली गया,
जानवरों के खाने के लिये कुछ ना बचा था सुखी घास भी अब खत्म थी ।
मारवाड़ और अकाल का नाता कुछ पुराना था इस बंजर भूमि और इसकी
वीरता से इन्द्र को भी सदैव रुष्ट रहे है ।
रावले मे पंचायत शुरु हुयी ठाकुर साहब ने स्थिति को ठिक ठिक जानकर
जानवरों को मालवा क्षैत्र मे ले जाया जाये का फैसला किया ।
नागौर क्षैत्र के बैल प्रसिद्धि थे, गाँव मे उस जमाने मे गायों कि अधिकता थी गाड़ी जोतने के लिये बैल उपयोग में लिये जाते थे पर दूरी ज्यादा होने के कारण गधो पर सामान ढोया गया ।
गाय व अन्य जानवरों कि रक्षा हेतु बल्लू जी व उम्मेद सिंग जी चाचा भतीजे को चुना गया ।
दोनों ने घोड़े पर अपनी जिन कसी । अजमेर क्षैत्र मे मुगलिया हुकूमत थी और औरंगजेब का समय था धर्म संकट मंडरा रहा था चारों और,
एक तरफ जसवंत सिंह जी जौधपूर काबुल में धर्मरक्षार्त वीर गति को प्राप्त हुवे ।
औरंगजेब ने जौधपूर महाराजा धर्म रक्षक जसवंत सिंह जी को जब काबुल अभियान पर भेजा तो पिछे से जौधपूर क्षैत्र मे मंदिर तुडवाने लगा ।
ये समाचार जब जसवंत सिंह जी को मिले तो वह काबूल मे मस्जिदे तुङवाने लगे इस अभियान मे वीर दूर्गादास राठौड़ उनके साथ थे और उसी अभियान मे महाराजा काम आये ।
बल्लू जी व उम्मेद सिंह जी ने दिन ढलते ही सारे जानवरों सहित कारवा मालवा कि तरफ रवाना किया ।
कोई चार-छः ग्वाले और एक-दो कामदार साथ थे ।
तलवार और ढाल के सिवा ना कोई साथी ना संगी हाँ मे भूल गया इनके घोड़े बड़े फुर्तीले व वफादार थे कई अभियानों मे देखा गया था ।
अजमेर ये सूचना पहले पहुंचे चुकी थी कि रणतगढ़ कि गायों का कारवा मालवा क्षैत्र के लिये रवाना हो चुका है ।
वहाँ के सुल्तान ने बैठक बुलायी और धर्म के नाम पर गायों कि कुर्बानी कि बात शुरु कि,
नजीमखान नही भूला था रणतगढ़ कि वीरता कि कहानी उसे याद थी वो बात कैसे निहता होकर घुटनों के बल बैठकर अरदास करने पर उसकी जान बख्शी गयी थी, उसके चेहरे का पसीना ये सब बया कर रहा था ।
रणतगढ़ का नाम सुनकर वहाँ सब सिपाहियों कि हवाईयाँ उड़ चुकी थी,
पर एक संदेह वाहक दौड़ा दौड़ा आया और बताया कि रक्षा दल मे सिर्फ दो ही राजपूत है और कोई 200 गायें है ।
बल्लू जी व उम्मेद सिंह जी जानते थे कि अजमेर क्षैत्र से गायें निकालना कठिन होगा ।
रात को जब खाने के बाद सोने का समय हुवा तो चाचा भतिजा पुष्कर घाट पर बैठकर आने वाले संकट के लिये तैयारी कर चुके थे अंधेरी रात का पल पल लंबा हो रहा था दोनो कि आंखों मे निन्द नही थी शायद वो जानते थे उन्हे चिर निन्द्रा कि गोद मे सोना है ।
आधी रात जा चुकी थी अंधेरा अब भी कायम था और कोई सैकड़ों मुगल सैनिकों के घोड़े कि टापे व हिनहिनाहट से पुष्कर घाट घिर चुका था ।
आज खुद विश्वामित्र भी यहाँ तपस्या कर रहे होते तो उनकी आँख खुल गयी होती ।
आक्रमण का सामना करने के लिये दोनों वीर तैयारी कर चुके थे गायें पहले ही पिछे धकेल दी गयी,
ग्वाले व कामदार बैलों कि सवारी करते हुवे गायों को तेजी से पिछे धकेलने लगे ।
बल्लू जी व उम्मेद सिंह जी घिर चुके थे पर कोई 20 कदम पिछे ही मुगल सैनिक व घोड़े खड़े थे नजीमखान के होठो पर फेफङी जम गयी ।
वह जानता था कि पिछले अभियान मे बल्लू जी के पिता ने उसे जीवनदान दिया था ।
बल्लू जी और उम्मेद सिंह जी दो अलग दिशाओं मे अपने घोड़े को तेजी से दौङाते हुवे,
शत्रु दल को चिर कर निकल जाते है कोई 5-5 शत्रु का रक्त पान उनकी तलवारे कर चुकी है ।
अगले धावे से पहले अब दोनों हाथों मे तलवारे है निश्चित ही चार सिर एक साथ धङ से अलग होंगे और ऐसा ही कुछ हुआ कोई 20-25 मिनट के संघर्ष मे आधी मुगल सेना रजपूती तरवारो के काट दी गयी ।
लेकिन बल्लू जी ने देखा कोई बीस सैनिक युद्ध छोड़ भाग खड़े हुवे है पर वो उसी दिशा मे जा रहे थे जिस तरफ गायें गयी है ।
दोनों वीर खुन से लतफत थे पर जल्द ही निश्चय करना होगा कि गायों कि तरफ बढ़ रहे मुगलों को कैसे रोका जाये ।
उम्मेद सिंह जी ने युद्ध करते हुवे आदेश दिया कि इन 20-25 मुगलों से तो में निपट लूंगा बल्लू गाये बचाओं ।
बल्लू जी ने जाते जाते कोई चार सिर अपनी तलवार के भेंट फिर चढा दिये ।
उम्मेद सिंह जी का 70 साल का वृद्ध शरीर अब जबाब दे चुका था पर उनकी तलवार अब भी नही रुकी ।
अंत मे एक सैनिक ने पिछे से वार कर दिया और उम्मेद सिंह जी बुरी तरह कट चुके थे पर उन्होंने फिर भी संघर्ष जारी रखा और वीर गति को प्राप्त हुवे ।
बल्लू जी शत्रुओं का पिछा करते हुवे उनके बीच पहुंच चुके थे पर उनके जवान शरीर से बहुत खुन बह चुका था मुगल सैनिक भी बुरी तराह भयभीत थे ।
नजीमखाँ पठान का घोड़ा एक कदम आगे तो चार कदम पिछे जा रहा था ।
आरण मंड चुका था और घिरे हुवे बल्लू जी कि तलवार कैसे छक छक करती निकल रही थी शायद आज से पहले ऐसा कौशल दिखाने का मौका उन्हें मिला नही था और एक अजीब घटना घटित हुई ।
बल्लू जी अब बिना सिर के लङ रहे थे काफि देर चले युद्ध के बाद वहाँ सनाटा था अब कोई मुगल सैनिक नही बचा था ।
सारी गाये बचा ली गयी, रातो रात इन्द्र भी प्रसन्न हो गये और बारिश शुरु हो गयी,
बल्लू जी का घोड़ा तेजी से रणतगढ़ कि तरफ बढ़ रहा था पर गर्म खुन पर ठण्डी बारिश कि बूंदे जहर का काम कर गयी और बल्लू जी का घङ व घोड़ा बीच रास्ते मे ही गिर गये ।
आज रणतगढ़ व उम्मेदसिंह और बल्लू जी इतिहास के पन्ने से गायब है और उनके बलिदान कि गाथा भी ।
ऐसे वीरों को मे अपनी आत्मा कि गहराई से नमन करता हुँ ।
लेखन - बलवीरसिंह राठौड़ डढ़ेल
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