अजमेर पर चौहान राजवंश का राज था पृथ्वीराज चौहान के पुर्वजों ने ही अजमेर बसाया था ।
तारागढ़ व गढ़ बिठली जैसे नामों से जाना जाने वाला ये राजपूत शहर प्राचीन था और इसकी गौरव गाथा भी बङी समृद्ध रही है ।
अजमेर के बीच झील और पहाड़ियों से घिरा यह शहर उस काल में भी हर किसी को रोमांचित कर देने वाला था तो एक तरफ उँचि पहाङी पर बना सुदृढ़ किला चौहान वंश के यश का बखान करता था ।।
इस तराह कि भव्यता के और सुन्दरता होते किसी का मन राज-काज व मोह माया से उठकर भगवान कि भक्ति में लग जाना एक सच्चे क्षत्रिय तक ही सीमित है, हर कोई कर पाये संभव नही ।।
राजपूत जाति मे कभी भी इतिहास लेखन कि परम्परा नही रही थी इसी लिये उस काल का समयाकन में ठिक ठिक नहीं कर पाऊंगा ।।
यह बात है अजयराज जी चौहान कि उस समय बाहरी आक्रमणकारी भारत में प्रवेश कर चुके थे,
और उनके मुख्य उद्देश्य धर्म व लूट थे ।।
अजयराज जी ने उम्र के आखिरी पङाव मे राज-काज छोड़ प्रभु भक्ति कि तरफ मुंह किया ।
उस जमाने में राजपूत जब इस उम्र में घर त्याग करते तो अपना घोड़ा व तलवार साथ रखते थे और सफेद वस्त्र धारण कर एकांत वास को चले जाते थे ।।
अजयराज जी चौहान राज्य भोग से दूर अजमेर कि पहाड़ियों में चले गये ।
उस समय मुस्लिम आक्रमणकारीयों द्वारा उस क्षेत्र में गायों को चरवाहो से जबरदस्ती ले जाने कि घटना घटित हुयी ।।
जब अजयराज जी चौहान को यह बात ज्ञात हुयी तो उसी समय उनके वृद्ध शरीर में फिर फुर्ती आ गयी और वह अपनी तलवार और घोड़ा लेकर गाय रक्षार्थ निकल पङे ।।
यह घटना सिर्फ जनश्रुतियों से ही ज्ञात होती है लिखित इतिहास कि कमी के चलते ।।
एक पुरी मुस्लिम सेना कि टुकङी से अकेला वृद्ध राजपूत जा टकराता है और इतना भीषण संग्राम होता है जिसकी कल्पना भी नही कि जा सकती है ।
इसी जगह वह वीर-गति को प्राप्त होते है ।।
सबसे रोचक घटना यहाँ यह है कि उनका सिर युद्ध करते समय अजमेर कि इन्हीं पहाड़ियों में कट जाता है और फिर भी उनका धङ रण जारी रखता है,
उनका धङ आक्रमणकारीयों को गुजरात के अंजार जिले तक खदेड़ता है ।।
गुजरात के अंजार जिले मे उनका धङ गिरा और वहाँ भी उनकी समाधी व छतरी बनी हुई है वहाँ भी वह पूजे जाते है,
अजमेर के पास जहाँ सिर गिरा यहाँ भी उनकी समाधी व छतरी बनी हुई है यहाँ भी उनकी पुजा होती है ।।
अजमेर से अंजार गुजरात कोई 400-500 किलोमीटर कि दूरी बिना सिर युद्ध करते हुवे जाना किसी क्षत्रिय के ही वश कि बात है अन्यत्र तो एसी कल्पना भी विध्यमान नही है ।।
लेखन - बलवीर राठौड़ डढेल ।।
साभार - जनश्रुतियाँ ।।
इस भारत भूमि पर कई वीर योद्धाओ ने जन्म लिया है। जिन्होंने अपने धर्म संस्कृति और वतन पर खुद को न्यौछावर कर दिया। सत् सत् नमन है इन वीर योद्धाओं को।
बुधवार, 29 जुलाई 2015
अनुठी वीरता जो अन्यत्र ना मिले
मंगलवार, 21 जुलाई 2015
आन -बान एवं शरणागत रक्षक महान योद्धा -हम्मीरदेव चौहान की भी याद करो कुर्वानी
राजपूतों के छत्तीस राजकुलों में चौहान राजपूतों ने वीरता ,स्वाभिमान ,शौर्यता ,त्याग ,बलिदान और आन -बान -शान का सम्पूर्ण रक्षण करके भारतभूमि की राष्ट्रीयता और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने ब्राहाय् -सुखोपभोगों का ही नही ,प्रियतम आत्मीयजनों का और स्वयं के प्राणों का भी बलिदान करने में सदा उत्सुक और तत्पर रहे।ऐसा सर्वानुमते स्वीकार हुआ है ,और इस प्राचीन व् गौरवशाली वंश के नामांकित राजपुत्रों की प्रशंसा में प्रत्येक भाषा में पूर्वकाल से ही अनेक काव्य ग्रन्थ रचे हुए है ।स्वतंत्रता ,स्वाभिमान और नेक -टेक की धुन में ही मंच -पंच हठीले चौहानों ने वैभव ,सत्ता व् राज्य का लोभ नहीं करते हुये कीर्ति का लोभ रखने के कारण कई महान योद्धा मुग़ल शासन में गमा दिए ।
पृथ्वीराज चौहान के बाद चौहानों के इतिहास में राजा हमीर देव चौहान ही महान व्यकित्तव ,आन -बान वाला साहसी व् तेजस्वी महान योद्धा था ।पूर्वी राजस्थान के सवाईमाधोपुरसे लगभग 12किलोमीटर दूर रणथम्भोर अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा एक विकट ,अजेय ऐतिहासिक दुर्ग रणथम्भौर चौहान राजाओं का एक प्रमुख साम्राज्य रहा है ।जिसका शासन अंतिम हिन्दू सम्राट परमवीर साहसी पृथ्वीराज चौहान के वंशजों द्वारा किया जाता था ।रणथम्भौर को सर्वाधिक गौरव मिला यहाँ के वीर और पराक्रमी शासक राव हमीर देव चौहान केअनुपम त्याग और बलिदान से । हमीर चौहान वंशी राजा जैत्र सिंह का पुत्र था ।इसका शासन 1281 -1301 तक रहा था।गद्दी पर बैठने के बाद हम्मीर ने दिग्विजय प्राप्त की।इसके बाद उसने 1288 में अपने कुल पुरोहित विश्वरूपा की देख रेख मेंकोटि यज्ञ किया ।इसके 2वर्ष बाद 1290ई0 में जलालुदीन ख़िलजी ने रणथम्भौर पर चढ़ाई की तो जेन पर हमीर की सेना ने सेनापति गुरुदास के नेतृत्व में भीषण युद्ध किया ।यह स्थान अब छान का दर्रा कहलाता है ।युद्ध में जब हमीर का सेनापति मारा गयातब सुलतान की सेना दर्रा पार कर रणथम्भौर पहुंची ।किला फतह करने हेतु उसने मंजीकने लगवायेऔर साबातें बनबाई परन्तु सभी अथक प्रयासों के बाद भी सफलता न मिलने पर दिल्ली लौट गया ।इसके दिल्ली लौटते ही हमीर ने जैन को वापस विजय कर लिया ।पुनः 1292ई0 में सुलतान जलालुद्दीन ख़िलजी ने हमीर पर चढ़ाई की किन्तु इस बार भी विफल रहा ।
जलालुद्दीन को क़त्ल कर उसका भतीजा अल्लाउद्दीन ख़िलजी दिल्ली का सुलतान बन गया था ।उसने सेनापति उलगाखां और नसरतखां को गुजरात विजय करने हेतु भेजाजब इनकी सेना वापस लौट रही थी तो जालोर के पास बगावत हो गई ।वागीदल के नेता मोहम्मदशाह और उसका भाई मीर गाभरू भागकर रणथंभोर के राजा हमीर की शरण में आगये ।उस समय देश भर में ये दोनों सभी राजाओं व् महाराजाओं के पास शरण मांगते फिरे लेकिन किसी भी राजा ने अलाउद्दीन ख़िलजी साम्राज्य के इन भगोड़ों को शरण नहीं दी ।महाजनों ने राजा हमीर से शरण देने का घोर विरोध किया किन्तु हम्मीर ने उन्हें नही हटाया ।ख़िलजी ने भी उन्हें वापस माँगा किन्तु नही दिया इस पर सुलतान ख़िलजी ने अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु सेनापति अलगाखां को सन् 1299 -1300 ई0 की शर्दी में रणथंभोर पर आक्रमण करने भेजा लेकिन किले की घेरेबंदी करते समय हम्मीर के सैनिकों द्वारा दुर्ग से की गई पत्थर वर्षा से वह मारा गया ।इस पर क्रुद्ध हो अलाउद्दीन स्वयं रणथंभोर पर चढ़ आया तथा विशाल सेना के साथ दुर्ग को घेर लिया ।पराक्रमी हम्मीर ने इस आक्रमण का जोरदार मुकाबला किया ।हम्मीर की सेना ने दुर्ग के भीतर से ही ख़िलजी की सेना को काफी क्षति पहुंचाई ।इस तरह रणथंभोर का घेरा लगभग एक वर्ष तक चला ।अंततः ख़िलजी ने छल और कूटनीति का आश्रय लिया तथा हम्मीर के दो मंत्रियों रतिपाल और रणमल को बूंदी का परगना इनायत करने का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया ।इस विश्वासघात के फलस्वरूप हम्मीर को पराजय का मुख देखना पड़ा ।अंततः उसने केसरिया करने की ठानी ।दुर्ग की ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया तथा राव हम्मीर अपने कुछ विश्वस्त सामंतों तथा मह्मांशाह सहित दुर्ग से बाहर आ शत्रु सेना से युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ ।जुलाई 1301 ई0 में रणथंभोर पर अलाउदीन ख़िलजी का अधिकार हो गया ।इस प्रकार राव हम्मीर चौहान ने शरणागत बत्सलता के आदर्श का निर्वाह करते हुये राज्य लक्ष्मी सहित अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया ।भारतीय इतिहास की यह एक मात्र घटना है ,जिसमें किसी परमवीर महाराजा ने अपनी संप्रभुता अपने राज्य के लिए नहीं ,बल्कि शरणागत मुग़ल के परिजनोंकी रक्षार्थ ,अपने विशाल साम्राज्य ,अपना जीवन 25 हजार,राजपूत वीरांगनाओं और 3 लाख केसरिया वाना पहने राजपूत वीरों का सर्वस्व बलिदान कर दिया ।
हम्मीर के शौर्य और बलिदान की प्रशंसा करते हुये किसी ने लिखा है कि उसमें वे सब गुण थे ,जो एक आदर्श राजपूत चरित्र में होने चाहिए ।राजा हम्मीर के इस अदभुत त्याग और बलिदान से प्रेरित हो संस्कृत ,प्राकृत ,राजस्थानी व् हिंदी आदि सभी प्रमुख भाषाओं में कवियों ने उसे अपना चरित्रनायक बनाकर उसका यशोगान किया है ।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।
साभार -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव -लढोता ,सासनी ,जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।
बुधवार, 15 जुलाई 2015
महाराणा कुम्भा
35 वर्ष की अल्पायु में उनके द्वारा बनवाए गए बत्तीस दुर्गों में चित्तौड़गढ़,कुंभलगढ़,अचलगढ़जहां सशक्त स्थापत्य में शीर्षस्थ हैं, वहीं इन पर्वत-दुर्गों में चमत्कृत करने वाले देवालय भी हैं। उनकी विजयों का गुणगान करता विश्वविख्यात विजय स्तंभ भारत की अमूल्य धरोहर है। कुंभा का इतिहास केवल युद्धों में विजय तक सीमित नहीं थी बल्कि उनकी शक्ति और संगठन क्षमता के साथ-साथ उनकी रचनात्मकता भी आश्चर्यजनक थी। ‘संगीत राज’ उनकी महान रचना है जिसे साहित्य का कीर्ति स्तंभ माना जाता है।महाराणा कुम्भकर्ण, महाराणा मोकल के पुत्र थे और उनकी हत्या के बाद गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सहायता से शीघ्र ही अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया। पूर्व उन्होंने देवड़ा चौहानों को हराकर आबू पर अधिकार कर लिया।मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को भी उन्होंने उसी साल सारंगपुर के पास बुरी तरह से हराया और इस विजय के स्मारक स्वरूप चित्तौड़ का विख्यात कीर्ति स्तंभ बनवाया। राठौड़ कहीं मेवाड़ को हस्तगत करने का प्रयत्न न करें, इस प्रबल संदेह से शंकित होकर उन्होंने रणमल को मरवा दिया और कुछ समय के लिए मंडोर का राज्य भी उनके हाथ में आ गया। राज्यारूढ़ होने के सात वर्षों के भीतर ही उन्होंने सारंगपुर,नागैर,नराणा,अजमेर,मंडोर,मोडालगढ़,बूंदी,खाटू,चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया और दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया। उनके शत्रुओं ने अपनी पराजयों का बदला लेने का बार-बार प्रयत्न किया, किंतु उन्हें सफलता नमिली। मालवा के सुलतान ने पांच बार मेवाड़ पर आक्रमण किया। नागौर के स्वामीशम्स खाँने गुजरात की सहायता से स्वतंत्र होने का विफल प्रयत्न किया। यही दशा आबू के देवड़ों की भी हुई।
मालवा और गुजरात के सुलतानों ने मिलकर महाराणा पर आक्रमण किया किंतु मुसलमानी सेनाएँ फिर परास्त हुई। महाराणा ने अन्य अनेक विजय भी प्राप्त किए। उसने डीडवाना(नागौर)की नमक की खान सेकरलिया और खंडेला,आमेर,रणथंभोर,डूँगरपुर,सीहारे आदि स्थानों को जीता। इस प्रकार राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ भाग जीतकर उसने मेवाड़ को महाराज्य बना दिया।किंतु महाराणा कुंभकर्ण की महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया।कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है।बंसतपुर को उन्होंने पुन: बसाया और श्रीएकलिंगके मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभतो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। वे विद्यानुरागी थे, संगीत के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और चंडीशतक एवं गीत गोविंदआदि ग्रंथों की व्याख्या की। वेनाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणा वादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तंभों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए।
जय राजपूताना||
जय क्षात्र धर्म||
ममता से बढ़कर कर्तव्य
नन्हा सा बालक जगतसिंग अपनी माँ से पुछ बैठा.....
कुँवर सा युद्ध के लिये तैयार हो रहे है क्या ?
युद्ध का प्रयाय ये 4 साल कि नन्ही जान क्या जाने जो तलवार और ढाल को खिलौने से ज्यादा कुछ नही समझता !!
रगो मे रजपूती खुन है तो तलवार, ढाल, घोड़ा व युद्ध कि वेशभूषा के प्रति आकर्षण है ।
टप टप नन्हीं सी आँखें सब कुछ देख रही थी पिता का पत्थर हृदय भी पिघल आया और आज पहली बार अपने खुन को गोद में उठाने का विचार आया पर लोकलाज से डरकर कदम रोक लिये !!
कही कल कोई ये न कह दे बिकमसिंह के कर्त्तव्य पर ममता भारी पङ गयी ।
माजीसा ये सब देख रहे थे और समझ भी रहे थे पर क्षात्र धर्म कि रक्षार्थ विदा होते अपने पुत्र को कमजोर होते कोई भी क्षत्राणी नही देख सकती ।
समाचार पहुँचे चुके थे बलुन्दा गढ़ से..........
बलुन्दा कि सेना तैयार थी आज बलुन्दा राव मालदेव कि सेना कि और से युद्ध भूमि में उतरने वाला है,
सामने शेरशाह सुरी व विरमदेव मेङता कि संयुक्त सेना है ।
आज बलुन्दा पर धर्मसंकट भारी है एक तरफ मेङता कि सेना है और दूसरी तरफ जौधपूर कि सेना सभी तराह के समझाने के प्रयास बहुत पहले ही खत्म हो चुके थे ।
एक तरफ राव मालदेव कि जीद्द थी और दूसरी तरफ विरमदेव मेङतिया इनकी आपसी अनबन अब पुरानी हो चुकी थी और कई बार आपसी सेनाओं कि झङप भी ।
एक तरफ जौधपूर के राव होने का गुमान था तो दुसरी तरफ मेङतियों का स्वाभिमान, पर बलुन्दागढ़ का धर्मसंकट भारी था आखिर फैसला हुआ शेरशाह सुरी के विरुद्ध मालदेव कि सेना कि तरफ से युद्ध करेंगे ।
बिकमसिंह ने अपने घोड़े पर जिन कसली थी इन बड़े ठिकानों कि लङाईयों मे एक आम राजपूत का साथ उसकी तलवार देती है बस......
पिता इससे पहले मेङता कि तरफ से अजमेर अभियान मे रणखेत रहे थे और मेङता ने अजमेर विजय किया था ।
इनाम स्वरूप मिली थोड़ी सी जमीन ही जीविकोपार्जन का साधन थी ।
अब घर मे माजीसा पत्नी तेजकँवर व 4 साल कि नन्ही जान जगत सिंह है ।
विदा होते समय माजिसा ने अपने दूध कि व खून कि लाज रखने कि बात कहते हुवे मुंह फैर लिया ।
तेजकँवर झरोखे से यह सब देख रही थी और जगतसिंह बाहर खङा हो कर ये सब विचित्र क्षण ना समझते हुवे भी देखे जा रहा था ।
तेजकँवर जगतसिंह को तेजी अन्दर लेकर जाती है वह नही चाहती अपने पति पर कोई लांछन लगे ।
बिकमसिंह के कदम ना चाहते हुवे भी पिछे कि तरफ मुङ गये ।
(तभी मेरे मुंह से निकल पङे कुछ शब्द कितना कठिन है मेरा क्षात्र धर्म )
आगे वही सब हुआ जो हर एक राजपूत योद्धा के साथ होता था,
वही सब बाते हुयी जो हर युद्ध के बाद होती है ।
बिकमसिंह ने कोई सैकड़ों शत्रुओं को अपनी तलवार से काटा और रणखेत रहे ।
जैता और कुम्पा के साथ वह भी गिरी-सुमेल कि भूमि पर लङते हुवे काम आये ।
शेरशाह कि सेना दिल्ली लोट गयी ।
मालदेव का जौधपूर सुरक्षित हो गया इनके बलिदान से ।
विरमदेव जी को मेङता मिला ।
बिकमसिंह को पिता कि तराह विर-गति,
तेजकँवर बिकमसिंह के साथ परमधाम को गमन कर गयी ।
अब बचे है जगतसिंह और माजिसा जिनके लिये बलुन्दा से बुलावा आया,
कि जगतसिंह को बलुन्दा सेना मे शामिल होना है अब उन्हें एक गाँव मिला है आजीविका चलाने के लिये ।
ऐसा है मेरा क्षात्र धर्म यहाँ ममता से बङा कर्त्तव्य है ।।
आज लोकतंत्र मे जगतसिंह के वंशज राजा कहे जाते है और इसीलिए उनके साथ ये सरकार भेदभाव करती है ।
आज भी जगतसिंह के वंशज देश के लिये सिर देने को तैयार है पर संविधान मे सिर्फ हमारे साथ भेदभाव लिखा है ।
लेखन - बलवीर राठौड़ डढेल ।
प्रेरणा आयुवानसिंह हुडील ममता और कर्त्तव्य ।
सोमवार, 13 जुलाई 2015
बल्लूजी चम्पावत के तीन अनुठे दाह-संस्कार
मुगल बादशाह शाहजहां के दरबार में राठौड़ वीर अमर सिंह एक ऊंचे पद के मनसबदार थे। एक दिन शाहजहाँ के
साले सलावत खान ने भरे दरबार में अमर सिंह को हिन्दू होने कि वजह से अपमानित कर दिया.....
अमरसिंह राठौड़ के अन्दर राजपूती खून था...
सैकड़ों सैनिको और शाहजहाँ के सामने भरे दरबार में अमरसिंह राठौड़ ने सलावत खान का सर काट
फेंका ! "ये कुछ ऐसा था जैसा 'ग़द्दर' फिल्म में सनी देओल हैंडपंप उखाड़ कर हज़ारों के सामने ही उस मुस्लिम
के जिस्म में ठोंकते है".....
शाहजहाँ कि सांस थम गयी..और इस शेर के कारनामे को देख कर मौजूद सैनिक वहाँ से भागने
लगे...अफरा तफरी मच गयी... किसी की हिम्मत नहीं हुई कि अमर सिंह को रोके या उनसे कुछ कहे।
मुसलमान दरबारी जान लेकर इधर-उधर भागने लगे। शाहजहाँ ख़ुद जनानखानें में भाग गया ! अमर सिंह निडर होकर अपनी हवेली लौट आये।
अमर सिंह के साले का नाम था अर्जुन गौड़। वह बहुत लोभी और नीच स्वभाव का था। बादशाह ने उसे
लालच दिया। उसने अमर सिंह को बहुत समझाया-बुझाया और धोखा देकर बादशाह के महल में ले गया।
वहां जब अमर सिंह आगरे के गढ़ के छोटे दरवाजे से होकर भीतर जा रहे थे, अर्जुन गौड़ ने पीठ पीछे से वार करके उन्हें मार दिया !
ऐसे हिजड़ों जैसी बहादुरी से उनको मरवाकर शाहजहाँ बहुत प्रसन्न हुआ ..उसने अमर सिंह की लाश को
किले की बुर्ज पर डलवा दिया। धिकार उस बादशाह को जिसनें उसकी वीरता की कद्र करनें की बजाय उनकी लाश को इस प्रकार चील-कौवों को खाने के लिए रखा !
अमर सिंह की रानी ने जब ये समाचार सुना तो सती होने का निश्चय कर लिया, लेकिन पति की देह के
बिना वह वो सती कैसे होती। रानी ने बचे हुए थोड़े राजपूतों सरदारो से अपनें पति की देह लाने को प्रार्थना की पर किसी ने हिम्मत नहीं कि और तब अन्त में उनको अमरसिंह के परम मित्र बल्लुजी चम्पावत की याद आई और उनको बुलवाने को भेजा ! बल्लूजी अपनें प्रिय घोड़े पर सवार होकर पहुंचे जो उनको मेवाड़ के महाराणा नें बक्शा था !
उसने कहा- 'राणी साहिबा' मैं जाता हूं या तो मालिक की देह को लेकर आऊंगा या मेरी लाश भी वहीं गिरेगी।'
वह राजपूत वीर घोड़े पर सवार हुआ और घोड़ा दौड़ाता सीधे बादशाह के महल में पहुंच
गया। महल का फाटक जैसे ही खुला द्वारपाल बल्लु जी को अच्छी तरह से देख भी नहीं पाये कि वो घोड़ा दौड़ाते हुवे वहाँ चले गए जहाँ पर वीरवर अमर सिंह की देह रखी हुई थी !
बुर्ज के ऊपर पहुंचते-पहुंचते सैकड़ों मुसलमान सैनिकों ने उन्हें घेर लिया।
बल्लूजी को अपनें मरने-जीने की चिन्ता नहीं थी। उन्होंने मुख में घोड़े की लगाम पकड़ रखी थी,दोनों हाथों से
तलवार चला रहे थे ! उसका पूरा शरीर खून से लथपथ था। सैकड़ों नहीं, हजारों मुसलमान सैनिक उनके पीछे थे
जिनकी लाशें गिरती जा रही थीं और उन लाशों पर से बल्लूजी आगे बढ़ते जा रहा थे ! वह मुर्दों की छाती पर
होते बुर्ज पर चढ़ गये और अमर सिंह की लाश उठाकर अपनें कंधे पर रखी और एक हाथ से तलवार चलाते हुवे घोड़े पर उनकी देह को रखकर आप भी बैठ गये और सीधे घोड़ा दौड़ाते हुवे गढ़ की बुर्ज के ऊपर चढ़ गए और घोड़े को नीचे कूदा दिया ! नीचे मुसलमानों की सेना आने से पहले बिजली की भाँति
अपने घोड़े सहित वहाँ पहुँच चुके थे
जहाँ रानी चिता सजाकर तैयार थी !
अपने पति की देह पाकर वो चिता में ख़ुशी ख़ुशी बैठ गई !
सती ने बल्लू जी को आशीर्वाद दिया- 'बेटा ! गौ,ब्राह्मण,धर्म और सती स्त्री की रक्षा
के लिए जो संकट उठाता है, भगवान उस पर प्रसन्न होते हैं। आपनें आज मेरी प्रतिष्ठा रखी है। आपका यश
संसार में सदा अमर रहेगा।' बल्लू चम्पावत मुसलमानों से लड़ते हुवे वीर गति को प्राप्त हुवे उनका दाहसंस्कार
यमुना के किनारे पर हुआ उनके और उनके घोड़े की याद में वहां पर स्म्रति स्थल बनवाया गया जो अभी भी मौजूद है !
जैसा इसी आलेख में है की बल्लूजी
के पास जो धोड़ा था जो मेवाड़ के
महाराणा ने बक्शा था तब बल्लूजी ने उनसें वादा किया की जब भी आप पर कोई विपति आये तो बल्लू को याद करना मैं हाजिर हो जाऊंगा उस के कुछ वक्त बाद में मेवाड़ पर ओरेंगजेब ने हमला कर दिया तो महाराणा ने उनको याद किया और हाथ जोड़कर निवेदन किया की है बल्लूजी आज मेवाड़ को आपकी जरुरत है ! तभी जनसमुदाय के समक्ष उसी घोड़े पर बल्लूजी दिखे और देबारी की घाटी में मेवाड़ की
जीत हुई ! बल्लूजी उस युद्ध में दूसरी बार काम आ गए ! देबारी में आज भी उनकी छतरी बनी हुई है !
बल्लूजी ने एक बार अपनी विपति के दिनों में लाडनूं के एक बनिये से कुछ कर्ज लिया इसके बदले में उन्होंने अपनी मूछ का बाल गिरवी रखा जो जीते जी वो छुड़ा न सके परन्तु उनकी छः पीढ़ी बाद में उनके वंसज हरसोलाव के ठाकुर सूरतसिंह जी
ने छुड़ाकर उसका विधि विधान के साथ दाह संस्कार करवाया और सारे बल्लुदासोत चम्पावत इकठे हुए और सारे शौक के दस्तूर पुरे किये ! इस तरह एक राजपूत वीर का तीन बार दाह संस्कार हुआ जो हिन्दुस्थान के इतिहास में उनके अलावा कही नही मिलता !!
(काश कोई इस तरह की सच्ची घटनाओं पर फिल्में बनाता तो लोगों को सही इतिहास का पता चलता )
डॉ.शक्ति सिंह 'खाखड़की'
गौ रक्षक क्षत्रियों की अनोखी वीर गाथा
इस साल फिर सावन भी खाली गया,
जानवरों के खाने के लिये कुछ ना बचा था सुखी घास भी अब खत्म थी ।
मारवाड़ और अकाल का नाता कुछ पुराना था इस बंजर भूमि और इसकी
वीरता से इन्द्र को भी सदैव रुष्ट रहे है ।
रावले मे पंचायत शुरु हुयी ठाकुर साहब ने स्थिति को ठिक ठिक जानकर
जानवरों को मालवा क्षैत्र मे ले जाया जाये का फैसला किया ।
नागौर क्षैत्र के बैल प्रसिद्धि थे, गाँव मे उस जमाने मे गायों कि अधिकता थी गाड़ी जोतने के लिये बैल उपयोग में लिये जाते थे पर दूरी ज्यादा होने के कारण गधो पर सामान ढोया गया ।
गाय व अन्य जानवरों कि रक्षा हेतु बल्लू जी व उम्मेद सिंग जी चाचा भतीजे को चुना गया ।
दोनों ने घोड़े पर अपनी जिन कसी । अजमेर क्षैत्र मे मुगलिया हुकूमत थी और औरंगजेब का समय था धर्म संकट मंडरा रहा था चारों और,
एक तरफ जसवंत सिंह जी जौधपूर काबुल में धर्मरक्षार्त वीर गति को प्राप्त हुवे ।
औरंगजेब ने जौधपूर महाराजा धर्म रक्षक जसवंत सिंह जी को जब काबुल अभियान पर भेजा तो पिछे से जौधपूर क्षैत्र मे मंदिर तुडवाने लगा ।
ये समाचार जब जसवंत सिंह जी को मिले तो वह काबूल मे मस्जिदे तुङवाने लगे इस अभियान मे वीर दूर्गादास राठौड़ उनके साथ थे और उसी अभियान मे महाराजा काम आये ।
बल्लू जी व उम्मेद सिंह जी ने दिन ढलते ही सारे जानवरों सहित कारवा मालवा कि तरफ रवाना किया ।
कोई चार-छः ग्वाले और एक-दो कामदार साथ थे ।
तलवार और ढाल के सिवा ना कोई साथी ना संगी हाँ मे भूल गया इनके घोड़े बड़े फुर्तीले व वफादार थे कई अभियानों मे देखा गया था ।
अजमेर ये सूचना पहले पहुंचे चुकी थी कि रणतगढ़ कि गायों का कारवा मालवा क्षैत्र के लिये रवाना हो चुका है ।
वहाँ के सुल्तान ने बैठक बुलायी और धर्म के नाम पर गायों कि कुर्बानी कि बात शुरु कि,
नजीमखान नही भूला था रणतगढ़ कि वीरता कि कहानी उसे याद थी वो बात कैसे निहता होकर घुटनों के बल बैठकर अरदास करने पर उसकी जान बख्शी गयी थी, उसके चेहरे का पसीना ये सब बया कर रहा था ।
रणतगढ़ का नाम सुनकर वहाँ सब सिपाहियों कि हवाईयाँ उड़ चुकी थी,
पर एक संदेह वाहक दौड़ा दौड़ा आया और बताया कि रक्षा दल मे सिर्फ दो ही राजपूत है और कोई 200 गायें है ।
बल्लू जी व उम्मेद सिंह जी जानते थे कि अजमेर क्षैत्र से गायें निकालना कठिन होगा ।
रात को जब खाने के बाद सोने का समय हुवा तो चाचा भतिजा पुष्कर घाट पर बैठकर आने वाले संकट के लिये तैयारी कर चुके थे अंधेरी रात का पल पल लंबा हो रहा था दोनो कि आंखों मे निन्द नही थी शायद वो जानते थे उन्हे चिर निन्द्रा कि गोद मे सोना है ।
आधी रात जा चुकी थी अंधेरा अब भी कायम था और कोई सैकड़ों मुगल सैनिकों के घोड़े कि टापे व हिनहिनाहट से पुष्कर घाट घिर चुका था ।
आज खुद विश्वामित्र भी यहाँ तपस्या कर रहे होते तो उनकी आँख खुल गयी होती ।
आक्रमण का सामना करने के लिये दोनों वीर तैयारी कर चुके थे गायें पहले ही पिछे धकेल दी गयी,
ग्वाले व कामदार बैलों कि सवारी करते हुवे गायों को तेजी से पिछे धकेलने लगे ।
बल्लू जी व उम्मेद सिंह जी घिर चुके थे पर कोई 20 कदम पिछे ही मुगल सैनिक व घोड़े खड़े थे नजीमखान के होठो पर फेफङी जम गयी ।
वह जानता था कि पिछले अभियान मे बल्लू जी के पिता ने उसे जीवनदान दिया था ।
बल्लू जी और उम्मेद सिंह जी दो अलग दिशाओं मे अपने घोड़े को तेजी से दौङाते हुवे,
शत्रु दल को चिर कर निकल जाते है कोई 5-5 शत्रु का रक्त पान उनकी तलवारे कर चुकी है ।
अगले धावे से पहले अब दोनों हाथों मे तलवारे है निश्चित ही चार सिर एक साथ धङ से अलग होंगे और ऐसा ही कुछ हुआ कोई 20-25 मिनट के संघर्ष मे आधी मुगल सेना रजपूती तरवारो के काट दी गयी ।
लेकिन बल्लू जी ने देखा कोई बीस सैनिक युद्ध छोड़ भाग खड़े हुवे है पर वो उसी दिशा मे जा रहे थे जिस तरफ गायें गयी है ।
दोनों वीर खुन से लतफत थे पर जल्द ही निश्चय करना होगा कि गायों कि तरफ बढ़ रहे मुगलों को कैसे रोका जाये ।
उम्मेद सिंह जी ने युद्ध करते हुवे आदेश दिया कि इन 20-25 मुगलों से तो में निपट लूंगा बल्लू गाये बचाओं ।
बल्लू जी ने जाते जाते कोई चार सिर अपनी तलवार के भेंट फिर चढा दिये ।
उम्मेद सिंह जी का 70 साल का वृद्ध शरीर अब जबाब दे चुका था पर उनकी तलवार अब भी नही रुकी ।
अंत मे एक सैनिक ने पिछे से वार कर दिया और उम्मेद सिंह जी बुरी तरह कट चुके थे पर उन्होंने फिर भी संघर्ष जारी रखा और वीर गति को प्राप्त हुवे ।
बल्लू जी शत्रुओं का पिछा करते हुवे उनके बीच पहुंच चुके थे पर उनके जवान शरीर से बहुत खुन बह चुका था मुगल सैनिक भी बुरी तराह भयभीत थे ।
नजीमखाँ पठान का घोड़ा एक कदम आगे तो चार कदम पिछे जा रहा था ।
आरण मंड चुका था और घिरे हुवे बल्लू जी कि तलवार कैसे छक छक करती निकल रही थी शायद आज से पहले ऐसा कौशल दिखाने का मौका उन्हें मिला नही था और एक अजीब घटना घटित हुई ।
बल्लू जी अब बिना सिर के लङ रहे थे काफि देर चले युद्ध के बाद वहाँ सनाटा था अब कोई मुगल सैनिक नही बचा था ।
सारी गाये बचा ली गयी, रातो रात इन्द्र भी प्रसन्न हो गये और बारिश शुरु हो गयी,
बल्लू जी का घोड़ा तेजी से रणतगढ़ कि तरफ बढ़ रहा था पर गर्म खुन पर ठण्डी बारिश कि बूंदे जहर का काम कर गयी और बल्लू जी का घङ व घोड़ा बीच रास्ते मे ही गिर गये ।
आज रणतगढ़ व उम्मेदसिंह और बल्लू जी इतिहास के पन्ने से गायब है और उनके बलिदान कि गाथा भी ।
ऐसे वीरों को मे अपनी आत्मा कि गहराई से नमन करता हुँ ।
लेखन - बलवीरसिंह राठौड़ डढ़ेल