"क्या जीना क्या मरना अरे ये तो है निर्थक बात पलक झपकते मर जाऐँगे फिर जिऐँगे प्रभात!!! "
मित्रो राजस्थान का इतिहास शोर्य और बलिदानी गाथाओ से भरा है राजस्थान मे जहाँ भी जाऐँगे आपको विरो कि गाथाए सूनने को मिलेगी ऐसे स्थलो मे से एक है जालोर का स्वर्णगिरी दुर्ग जो देश भर मे अभेध दुर्गो मे गिना जाता है
"आभ फटे धर उलटे कटे बखत रा कोर सिर कटे धर लडपडे जद छूटे जालोर "
12 वीँ शताब्दी के अँतिम वर्षो मे जालोर दुर्ग पर चौहान राजा कान्हडदेव का शासन था इनका पुत्र कूँवर विरमदेव चौहान समस्त राजपूताना मे कुश्ती का प्रसिद्ध पहलवान था एवँ कूशल यौद्धा था छोटी आयू मे भी कई यूद्धो मे कुशल सैन्य सँचालन कर अपनी सैना को विजय दिलाई थी विरमदेव कि ख्याति सुनकर उसके प्रभावशाली व्यक्तित्व को देख कर दिल्ली के बादशाह अल्लाउदिन खिलजी कि बेटी शहजादी फिरोजा(सताई) का दिल विरमदेव पर आ गया तथा शहजादी ने किसी भी किमत पर विरमदेव से विवाह करने तथा अपनाने कि जिद पकड ली "वर वरुँ तो विरमदेव ना तो रहुँगी अकन कूँवारी " शहजादी कि हठ सूनकर दिल्ली दरबार मे कौहराम मच गया काफी सोच विचार के बाद अपना राजनैतिक फायदा देख बादशाह खिलजी इसके लिए तैयार हुआ शादी का प्रस्ताव जालोर दुर्ग पहुँचाया गया मगर विरमदेव ने तूरँत प्रस्ताव ठुकरा दिया और कहा "मामा लाजै भाटियाँ कूल लाजै चौह्वान जौ मे परणुँ तुरकाणी तो पश्चिम उगे भान" परिणामत युद्ध का ऐलान हुआ लगभग एक वर्ष तक तुर्को कि सैना जालोर पर घेरा लगाए बैठी रही फिर युद्ध प्रारँभ हुआ मात्र 22 वर्ष कि अल्पायू मे खुद विरमदेव केसरिया बाना पहन कर सबसे आगे सैना का नैतृत्व कर रहा था और इस भयँकर यूद्ध मे विरमदेव विरगति को प्राप्त हो गया तूर्कि सैना विरमदेव का सिर दिल्ली ले गयी तथा शहजादी के सामने रख दिया जब शहजादी ने मस्तक को थाली मे रखवाया और मस्तक से शादी करने की बात कही तो मस्तक अपने आप थाली से पलट गया लेकिन शहजादी भी अपने वादे पर अडीग थी शादी करुँगी तो विरमदेव से वर्ना कूँवारी मर जाऊँगी अतँत शहजादी मस्तक को अपने हाथ मे लेकर यमूना नदी मे कूद कर विरमदेव के पिछे सती हो गयी".................विरमदेव ने अपना कर्तव्य निभाया और एक हिन्दू होने के नाते मरने को तैयार हुआ पर एक तूर्कि मुस्लिम शहजादी से शादी नही की वही एक मुस्लिम शहजादी एक हिन्दू राजा के प्रेम मे इतनी कायल हुई कि उसके लिए अपनी जान तक दे दी।
इस भारत भूमि पर कई वीर योद्धाओ ने जन्म लिया है। जिन्होंने अपने धर्म संस्कृति और वतन पर खुद को न्यौछावर कर दिया। सत् सत् नमन है इन वीर योद्धाओं को।
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015
महारावल विरमदेव चौहान
महारावल विरमदेव चौहान
"क्या जीना क्या मरना अरे ये तो है निर्थक बात पलक झपकते मर जाऐँगे फिर जिऐँगे प्रभात!!! "
मित्रो राजस्थान का इतिहास शोर्य और बलिदानी गाथाओ से भरा है राजस्थान मे जहाँ भी जाऐँगे आपको विरो कि गाथाए सूनने को मिलेगी ऐसे स्थलो मे से एक है जालोर का स्वर्णगिरी दुर्ग जो देश भर मे अभेध दुर्गो मे गिना जाता है
"आभ फटे धर उलटे कटे बखत रा कोर सिर कटे धर लडपडे जद छूटे जालोर "
12 वीँ शताब्दी के अँतिम वर्षो मे जालोर दुर्ग पर चौहान राजा कान्हडदेव का शासन था इनका पुत्र कूँवर विरमदेव चौहान समस्त राजपूताना मे कुश्ती का प्रसिद्ध पहलवान था एवँ कूशल यौद्धा था छोटी आयू मे भी कई यूद्धो मे कुशल सैन्य सँचालन कर अपनी सैना को विजय दिलाई थी विरमदेव कि ख्याति सुनकर उसके प्रभावशाली व्यक्तित्व को देख कर दिल्ली के बादशाह अल्लाउदिन खिलजी कि बेटी शहजादी फिरोजा(सताई) का दिल विरमदेव पर आ गया तथा शहजादी ने किसी भी किमत पर विरमदेव से विवाह करने तथा अपनाने कि जिद पकड ली "वर वरुँ तो विरमदेव ना तो रहुँगी अकन कूँवारी " शहजादी कि हठ सूनकर दिल्ली दरबार मे कौहराम मच गया काफी सोच विचार के बाद अपना राजनैतिक फायदा देख बादशाह खिलजी इसके लिए तैयार हुआ शादी का प्रस्ताव जालोर दुर्ग पहुँचाया गया मगर विरमदेव ने तूरँत प्रस्ताव ठुकरा दिया और कहा "मामा लाजै भाटियाँ कूल लाजै चौह्वान जौ मे परणुँ तुरकाणी तो पश्चिम उगे भान" परिणामत युद्ध का ऐलान हुआ लगभग एक वर्ष तक तुर्को कि सैना जालोर पर घेरा लगाए बैठी रही फिर युद्ध प्रारँभ हुआ मात्र 22 वर्ष कि अल्पायू मे खुद विरमदेव केसरिया बाना पहन कर सबसे आगे सैना का नैतृत्व कर रहा था और इस भयँकर यूद्ध मे विरमदेव विरगति को प्राप्त हो गया तूर्कि सैना विरमदेव का सिर दिल्ली ले गयी तथा शहजादी के सामने रख दिया जब शहजादी ने मस्तक को थाली मे रखवाया और मस्तक से शादी करने की बात कही तो मस्तक अपने आप थाली से पलट गया लेकिन शहजादी भी अपने वादे पर अडीग थी शादी करुँगी तो विरमदेव से वर्ना कूँवारी मर जाऊँगी अतँत शहजादी मस्तक को अपने हाथ मे लेकर यमूना नदी मे कूद कर विरमदेव के पिछे सती हो गयी".................विरमदेव ने अपना कर्तव्य निभाया और एक हिन्दू होने के नाते मरने को तैयार हुआ पर एक तूर्कि मुस्लिम शहजादी से शादी नही की वही एक मुस्लिम शहजादी एक हिन्दू राजा के प्रेम मे इतनी कायल हुई कि उसके लिए अपनी जान तक दे दी।
गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015
बुंदेली केसरी छत्रसाल
छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय।
जित-जित घोड़ा मुख करे, तित-तित फत्ते होय।'
सत्ता और संघर्ष की बढ़ी-चढ़ी घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है, परंतु स्वतंत्रता और सृजन के लिए जीवन भर संघर्ष करने वाले विरले ही हुए हैं। मध्यकालीन भारत में विदेशी आतताइयों से सतत संघर्ष करने वालों में छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और बुंदेल केसरी छत्रसाल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, परंतु जिन्हें उत्तराधिकार में सत्ता नहीं वरन ‘शत्रु और संघर्ष’ ही विरासत में मिले हों, ऐसे बुंदेल केसरी छत्रसाल ने वस्तुतः अपने पूरे जीवनभर स्वतंत्रता और सृजन के लिए ही सतत संघर्ष किया। शून्य से अपनी यात्रा प्रारंभ कर आकाश-सी ऊंचाई का स्पर्श किया। उन्होंने विस्तृत बुंदेलखंड राज्य की गरिमामय स्थापना ही नहीं की थी, वरन साहित्य सृजन कर जीवंत काव्य भी रचे। छत्रसाल ने अपने 82 वर्ष के जीवन और 44 वर्षीय राज्यकाल में 52 युद्ध किये थे। शौर्य और सृजन की ऐसी उपलब्धि बेमिसाल है-
‘‘इत जमना उत नर्मदा इत चंबल उत टोंस।
छत्रसाल से लरन की रही न काह होंस।’’
वीरों और हीरोंवाली माटी के इस लाड़ले सपूत ने कलम और करवाल को एक-सी गरिमा प्रदान की थी।
मूल ऊर्जा का केंद्रः ओरछा बुंदेलखंड में सन 1531 से गढ़ कुंडार के उतरांत ओरछा ही राज्य के रूप मंे मूल ऊर्जा केंद्र रहा है। हेमकर्ण की वंश परंपरा में सन 1501 में ओरछा में रुद्रप्रताप सिंह राज्यारूढ़ हुए, जिनके पुत्रों में ज्येष्ठ भारतीचंद्र 1539 में ओरछज्ञ के राजा बने तब बंटवारे में राव उदयजीत सिंह को महेबा (महोबा नहीं) का जागीरदार बनाया गया, इन्ही की वंश परंपरा में चंपतराय महेबा गद्दी पर जिन परिस्थितियों में आसीन हुए उसके बारे में लाल कवि ने ‘छत्रप्रकाश’ में कहा है-
‘‘प्रलय पयोधि उमंग में ज्यों गोकुल जदुदाय
त्यों बूड़त बुंदेल कुल राख्यों चंपतराय।’’
किंतु पूरे जीवनभर विदेशी मुगलों से संघर्ष करते हुए इस रणबांकुरे बुंदेला को अपने ही विश्वासघातियों के कारण सन 1661 में अपनी वीरांगना रानी लालकुंआरि के साथ आत्माहुति देनी पड़ी।
इतिहास पुरुषः छत्रसाल
चंपतराय जब समय भूमि मे ंजीवन-मरण का संघर्ष झेल रहे थे उन्हीं दिनों ज्येष्ठ शुक्ल 3 संवत 1707 (सन 1641) को वर्तमान टीकमगढ़ जिले के लिघोरा विकास खंड के अंतर्गत ककर कचनाए ग्राम के पास स्थित विंध्य-वनों की मोर पहाड़ियों में इतिहास पुरुष छत्रसाल का जन्म हुआ। अपने पराक्रमी पिता चंपतराय की मृत्यु के समय वे मात्र 12 वर्ष के ही थे। वनभूमि की गोद में जन्में, वनदेवों की छाया में पले, वनराज से इस वीर का उद्गम ही तोप, तलवार और रक्त प्रवाह के बीच हुआ।
पांच वर्ष में ही इन्हें युद्ध कौशल की शिक्षा हेतु अपने मामा साहेबसिंह धंधेर के पास देलवारा भेज दिया गया था। माता-पिता के निधन के कुछ समय पश्चात ही वे बड़े भाई अंगद राय के साथ देवगढ़ चले गये। बाद में अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए छत्रसाल ने पंवार वंश की कन्या देवकुंअरि से विवाह किया।
जिसने आंख खोलते ही सत्ता संपन्न दुश्मनों के कारण अपनी पारंपरिक जागीर छिनी पायी हो, निकटतम स्वजनों के विश्वासघात के कारण जिसके बहादुर मां-बाप ने आत्महत्या की हो, जिसके पास कोई सैन्य बल अथवा धनबल भी न हो, ऐसे 12-13 वर्षीय बालक की मनोदशा की क्या आप कल्पना कर सकते हैं? परंतु उसके पास था बुंदेली शौर्य का संस्कार, बहादुर मां-माप का अदम्य साहस और ‘वीर वसुंधरा’ की गहरा आत्मविश्वास। इसलिए वह टूटा नहीं, डूबा नहीं, आत्मघात नहीं किया वरन् एक रास्ता निकाला। उसने अपने भाई के साथ पिता के दोस्त राजा जयसिंह के पास पहुंचकर सेना में भरती होकर आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया।
राजा जयसिंह तो दिल्ली सल्तनत के लिए कार्य कर रहे थे अतः औंरगजेब ने जब उन्हें दक्षिण विजय का कार्य सौंपा तो छत्रसाल को इसी युद्ध में अपनी बहादुरी दिखाने का पहला अवसर मिला। मइ्र 1665 में बीजापुर युद्ध में असाधारण वीरता छत्रसाल ने दिखायी और देवगढ़ (छिंदवाड़ा) के गोंडा राजा को पराजित करने में तो छत्रसाल ने जी-जान लगा दिया। इस सीमा तक कि यदि उनका घोड़ा, जिसे बाद में ‘भलेभाई’ के नाम से विभूषित किया गयाउनकी रक्षा न करता तो छत्रसाल शायद जीवित न बचते पर इतने पर भी जब विजयश्री का सेहरा उनके सिर पर न बांध मुगल भाई-भतीजेवाद में बंट गया तो छत्रसाल का स्वाभिमान आहत हुआ और उन्होंने मुगलों की बदनीयती समझ दिल्ली सल्तनत की सेना छोड़ दी।
इन दिनों राष्ट्रीयता के आकाश पर छत्रपति का सितारा चमचमा रहा था। छत्रसाल दुखी तो थे ही, उन्होंने शिवाजी से मिलना ही इन परिस्थितियों में उचित समझा और सन 1668 में दोनों राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो शिवाजी ने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियेां का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु राम दास के आशीषों सहित ‘भवानी’ तलवार भेंट की-
करो देस के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे।
दौर देस मुगलन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने
करि हो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषंे।
शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर सन 1670 में छत्रसाल वापस अपनी मातृभूमि लौट आयी परंतु तत्कालीन बुंदेल भूमि की स्थितियां बिलकुल मिन्न थीं। अधिकाश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे, छत्रसाल के भाई-बंधु भी दिल्ली से भिड़ने को तैयार नहीं थे। स्वयं उनके हाथ में धन-संपत्ति कुछ था नहीं। दतिया नरेश शुभकरण ने छत्रसाल का सम्मान तो किया पर बादशाह से बैर न करने की ही सलाह दी। ओरछेश सुजान सिंह ने अभिषेक तो किया पर संघर्ष से अलग रहे। छत्रसाल के बड़े भाई रतनशाह ने साथ देना स्वीकार नहीं किया तब छत्रसाल ने राजाओं के बजाय जनोन्मुखी होकर अपना कार्य प्रारंभ किया। कहते हैं उनके बचपन के साथी महाबली तेली ने उनकी धरोहर, थोड़ी-सी पैत्रिक संपत्ति के रूप में वापस की जिससे छत्रसाल ने 5 घुड़सवार और 25 पैदलों की छोटी-सी सेना तैयार कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार वि.सं. 1728 (सन 1671) के शुभ मुहूर्त में शहंशाह आलम औरंगजेब के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वराज्य स्थापना का बीड़ा उठाया।
संघर्ष का शंखनाद
छत्रसाल की प्रारंभिक सेना में राजे-रजवाड़े नहीं थे अपितु तेली बारी, मुसलमान, मनिहार आदि जातियों से आनेवाले सेनानी ही शामिल हुए थे। चचेरे भाई बलदीवान अवश्य उनके साथ थे। छत्रसाल का पहला आक्रमण हुआ अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरों पर। मुगल मातहत कुंअरसिंह को ही कैद नहीं किया गया बल्कि उसकी मदद को आये हाशिम खां की धुनाई की गयी और सिरोंज एवं तिबरा लूट डाले गये। लूट की सारी संपत्ति छत्रसाल ने अपने सैनिकों में बांटकर पूरे क्षेत्र के लोगों को उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए आकर्षित किया। कुछ ही समय में छत्रसाल की सेना में भारी वृद्धि होने लगी और उन्हेांने धमोनी, मेहर, बांसा और पवाया आदि जीतकर कब्जे में कर लिए।
ग्वालियर-खजाना लूटकर सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया, बाद में नरवर भी जीता। सन 1671 में ही कुलगुरु नरहरि दास ने भी विजय का आशीष छत्रसाल को दिया।
ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड़ रुपये प्राप्त हुए पर औरंगजेब इससे छत्रसाल पर टूट-सा पड़ा। उसने सेनपति रणदूल्हा के नेतृत्व में आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढ़ाकोटा के पास छत्रसाल पर धावा बोल दिया। घमासान युद्ध हुआ पर दणदूल्हा (रुहल्ला खां) न केवल पराजित हुआ वरन भरपूर युद्ध सामग्री छोड़कर जन बचाकर उसे भागना पड़ा। इस विजय से छत्रसाल के हौसले काफी बुलंद हो गये।
सन 1671-80 की अवधि में छत्रसाल ने चित्रकूट से लेकर ग्वालियर तक और कालपी से गढ़ाकोटा तक प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
सन 1675 में छत्रसाल की भेंट प्रणामी पंथ के प्रणेता संत प्राणनाथ से हुई जिन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद दिया-
छत्ता तोरे राज में धक धक धरती होय
जित जित घोड़ा मुख करे तित तित फत्ते होय।
बुंदेले राज्य की स्थापना
इसी अवधि में छत्रसाल ने पन्ना के गौड़ राजा को हराकर, उसे अपनी राजधानी बनाया। ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत 1744 की गोधूलि बेला में स्वामी प्राणनाथ ने विधिवत छत्रसाल का पन्ना में राज्यभिषेक किया। विजय यात्रा के दूसरे सोपान में छत्रसाल ने अपनी रणपताका लहराते हुए सागर, दमोह, एरछ, जलापुर, मोदेहा, भुस्करा, महोबा, राठ, पनवाड़ी, अजनेर, कालपी और विदिशा का किला जीत डाला। आतंक के मारे अनेक मुगल फौजदार स्वयं ही छत्रसाल को चैथ देने लगे।
बघेलखंड, मालवा, राजस्थान और पंजाब तक छत्रसाल ने युद्ध जीते। परिणामतः यमुना, चंबल, नर्मदा और टोंस मे क्षेत्र में बुंदेला राज्य स्थापित हो गया।
सन 1707 में औरंगजेब का निध्न हो गया। उसके पुत्र आजम ने बराबरी से व्यवहार कर सूबेदारी देनी चाही पर छत्रसाल ने संप्रभु राज्य के आगे यह अस्वीकार कर दी।
महाराज छत्रसाल पर इलाहाबाद के नवाब मुहम्मद बंगस का ऐतिहासिक आक्रमण हुआ। इस समय छत्रसाल लगभग 80 वर्ष के वृद्ध हो चले थे और उनके दोनों पुत्रों में अनबन थी। जैतपुर में छत्रसाल पराजित हो रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में उन्हेांने बाजीराव पेशवा को पुराना संदर्भ देते हुए सौ छंदों का एक काव्यात्मक पत्र भेजा जिसकी दो पंक्तियां थीं
जो गति गज और ग्राह की सो गति भई है आज बाजी जात बंुदेल की राखौ बाजी लाज।
फलतः बाजीराव की सेना आने पर बंगश की पराजय ही नहीं हुई वरन उसे प्राण बचाकर अपमानित हो, भागना पड़ा। छत्रसाल युद्ध में टूट चले थे, लेकिन मराठों के सहयोग से उन्हेांने कलंक का टीका सम्मान से पोंछ डाला।
यहीं कारण था छत्रसाल ने अपने अंतिम समय में जब राज्य का बंटवारा किया तो बाजीराव को तीसरा पुत्र मानते हुए बुंदेलखंड झांसी, सागर, गुरसराय, काल्पी, गरौठा, गुना, सिरोंज और हटा आदि हिस्से के साथ राजनर्तकी मस्तानी भी उपहार में दी। कतिपय इतिहासकार इसे एक संधि के अनुसार दिया हुआ बताते हैं पर जो भी हो अपनी ही माटी के दो वंशों, मराठों और बुंदेलों ने बाहरी शक्ति को पराजित करने में जो एकता दिखायी, वह अनुकरणीय है।
छत्रसाल ने अपने दोनों पुत्रों ज्येष्ठ जगतराज और कनिष्ठ हिरदेशाह को बराबरी का हिस्सा, जनता को समृद्धि और शांति से राज्य-संचालन हेतु बांटकर अपनी विदा वेला का दायित्व निभाया। राज्य संचालन के बारे में उनका सूत्र उनके ही शब्दों में
राजी सब रैयत रहे, ताजी रहे सिपाहि
छत्रसाल ता राज को, बार न बांको जाहि।
यही कारण था कि छत्रसाल को अपने अंतिम दिनों में वृहद राज्य के सुप्रशासन से एक करोड़ आठ लाख रुपये की आय होती थी। उनके एक पत्र से स्वष्ट होता है कि उन्होंने अंतिम समय 14 करोड़ रुपये राज्य के खजाने में (तब) शेष छोड़े थे। प्रतापी छत्रसाल ने पौष शुक्ल तृतीया भृगुवार संवत् 1788 (दिसंबर 1731) को छतरपुर (नौ गांव) के निकट मऊ सहानिया के छुवेला ताल पर अपना शरीर त्यागा और विंध्य की अपत्यिका में भारतीय आकाश पर सदा-सदा के लिए जगमगाते सितारे बन गये।
छत्रसाल की तलवार जितनी धारदार थी, कलम भी उतनी ही तीक्ष्ण थी। वे स्वयं कवि तो थे ही कवियों का श्रेष्ठतम सम्मान भी करते थे। अद्वितीय उदाहरण है कि कवि भूषण के बुंदेलखंड में आने पर आगवानी में जब छत्रसाल ने उनकी पालकी में अपना कंधा लगा दिया तो भूषण कह उठेः
और राव राजा एक चित्र में न ल्याऊं-
अब, साटू कौं सराहौं, के सराहौं छत्रसाल को।।
बुंदेलखंड ही नही संपूर्ण भारत देष ऐसे महान व्यक्तित्व के प्रति पीढ़ी दर पीढ़ी कृतज्ञ रहेगा।
मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015
1857 का महान राजपूत योद्धा वीर कुंवर सिंह
1777 ----1858
अंग्रेज इतिहासकार होम्स लिखता है की उस बूढ़े राजपूत की जो ब्रिटिश सत्ता के साथ इतनी बहादुरी व आन के साथ लड़ा 26 अप्रैल 1858 को एक विजेता के रूप में मृत्यु का वरण किया |
कुंवर सिंह न केवल 1857 के महासमर के महान योद्धा थे , बल्कि वह इस संग्राम के एक वयोवृद्ध योद्धा भी थे |इस महासमर में तलवार उठाने वाले इस योद्धा की उम्र उस समय 80 वर्ष की थी |महासमर का यह वीर न केवल युद्ध के मैदान का चपल निर्भीक और जाबांज खिलाड़ी था , अपितु युद्ध की व्यूह -- रचना में भी उस समय के दक्ष , प्रशिक्षित एवं बेहतर हथियारों से सुसज्जित ब्रिटिश सेना के अधिकारियों , कमांडरो से कही ज्यादा श्रेष्ठ था |इसका सबसे बड़ा सबूत यह है की इस महान योद्धा ने न केवल कई जाने -- माने अंग्रेज कमांडरो को युद्ध के मैदान में पराजित किया अपितु जीवन के अंतिम समय में विजित रहकर अपने गाँव की माटि में ही प्राण त्याग किया | उनकी मृत्यु 26 अप्रैल 1858 को हुई , जबकि उसके तीन दिन पहले 23 अप्रैल को जगदीशपुर के निकट उन्होंने कैप्टन ली ग्राड की सेना को युद्ध के मैदान में भारी शिकस्त दिया था | कुंवर सिंह का जन्म आरा के निकट जगदीशपुर रियासत में 1777 में हुआ था | मुग़ल सम्राट शाहजहा के काल से उस रियासत के मालिक को राजा की उपाधि मिली हुई थी | कुंवर सिंह के पिता का नाम साहेबजादा सिंह और माँ का नाम पंचरतन कुवरी था | कुंवर सिंह की यह रियासत भी डलहौजी की हडपनीति का शिकार बन गयी थी |
10 मई 1857 से इस महासमर की शुरुआत के थोड़े दिन बाद ही दिल्ली पर अंग्रेजो ने पुन: अपना अधिकार जमा लिया था | अंग्रेजो द्वारा दिल्ली पर पुन:अधिकार कर लेने के बाद बाद भी 1857 के महासमर की ज्वाला अवध और बिहार क्षेत्र में फैलती धधकती रही | दाना पूर की क्रांतिकारी सेना के जगदीशपुर पहुंचते ही 80 वर्षीय स्वतंत्रता प्रेमी योद्धा कुंवर सिंह ने शस्त्र उठाकर इस सेना का स्वागत किया और उसका नेतृत्त्व संभाल लिया | कुंवर सिंह के नेतृत्त्व में इस सेना ने सबसे पहले आरा पर धावा बोल दिया |क्रांतिकारी सेना ने आरा के अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया | जेलखाने के कैदियों को रिहाकर दिया | अंग्रेजी दफ्तरों को ढाहकर आरा के छोटे से किले को घेर लिया |किले के अन्दर सिक्ख और अंग्रेज सिपाही थे | तीन दिन किले की घेरेबंदी के साथ दाना पूर से किले की रक्षा के लिए आ रहे कैप्टन डनवर और उनके 400 सिपाहियों से भी लोहा लिया | डनवर युद्ध में मारा गया | थोड़े बचे सिपाही दानापुर वापस भाग गये | किला और आरा नगर पर कुंवर सिंह कीं क्रांतिकारी सेना का कब्जा हो गया | लेकिन यह कब्जा लम्बे दिनों तक नही रह सका | मेजर आयर एक बड़ी सेना लेकर आरा पर चढ़ आया | युद्ध में कुंवर सिंह और उसकी छोटी से\इ सेना पराजित हो गयी | आरा के किले पर अंग्रेजो का पुन: अधिकार हो गया |
कुंवर सिंह अपने सैनिको सहित जगदीशपुर की तरफ लौटे | मेजर आयर ने उनका पीछा किया और उसने जगदीशपुर में युद्ध के बाद वहा के किले पर भी अधिकार कर लिया | कुंवर सिंह को अपने 122 सैनिको और बच्चो स्त्रियों के साथ जगदीशपुर छोड़ना पडा | अंग्रेजी सेना से कुंवर सिंह की अगली भिडंत आजमगढ़ के अतरौलिया क्षेत्र में हुई | अंग्रेजी कमांडर मिल मैन ने 22 मार्च 1858 को कुंवर सिंह की फ़ौज पर हमला बोल दिया | हमला होते ही कुंवर सिंह की सेना पीछे हटने लगी अंग्रेजी सेना कुंवर सिंह को खदेड़कर एक बगीचे में टिक गयी | फिर जिस समय मिल मैन की सेना भोजन करने में जुटी थी , उसी समय कुंवर सिंह की सेना अचानक उन पर टूट पड़ी | मैदान थोड़ी ही देर में कुंवर सिंह के हाथ आ गया |मेल मैन अपने बचे खुचे सैनिको को लेकर आजमगढ़ की ओर निकल भागा | अतरौलिया में पराजय का समाचार पाते ही कर्नल डेम्स गाजीपुर से सेना लेकर मिल मैन की सहायता के लिए चल निकला |28 मार्च 1858 को आजमगढ़ से कुछ दूर कर्नल डेम्स और कुंवर सिंह में युद्ध हुआ | कुंवर सिंह पुन: विजयी रहे | कर्नल डेम्स ने भागकर आजमगढ़ के किले में जान बचाई |
अब कुंवर सिंह बनारस की तरफ बड़े | तब तक लखनऊ क्षेत्र के तमाम विद्रोही सैनिक भी कुंवर सिंह के साथ हो लिए थे |बनारस से ठीक उत्तर में 6 अप्रैल के दिन लार्ड मार्क्कर की सेना ने कुंवर सिंह का रास्ता रोका और उन पर हमला कर दिया | युद्ध में लार्ड मार्क्कर पराजित होकर आजमगढ़ की ओर भागा | कुंवर सिंह ने उसका पीछा किया और किले में पनाह के लिए मार्क्कर की घेरे बंदी कर दी |
इसकी सुचना मिलते ही पश्चिम से कमांडर लेगर्ड की बड़ी सेना आजमगढ़ के किले की तरफ बड़ी | कुंवर सिंह ने आजमगढ़ छोडकर गाजीपुर जाने और फिर अपने पैतृक रियासत जगदीशपुर पहुचने का निर्णय किया | साथ ही लेगर्ड की सेना को रोकने और उलझाए रखने के लिए उन्होंने अपनी एक टुकड़ी तानु नदी के पुल पर उसका मुकाबला करने के लिए भेज दिया | लेगर्ड की सेना ने मोर्चे पर बड़ी लड़ाई के बाद कुंवर सिंह का पीछा किया | कुंवर सिंह हाथ नही आये लेकिन लेगर्ड की सेना के गाफिल पड़ते ही कुंवर सिंह न जाने किधर से अचानक आ धमके और लेगर्ड पर हमला बोल दिया | लेगर्ड की सेना पराजित हो गयी |
अब गंगा नदी पार करने के लिए कुंवर सिंह आगे बड़े लेकिन उससे पहले नघई गाँव के निकट कुंवर सिंह को डगलस की सेना का सामना करना पडा | डगलस की सेना से लड़ते हुए कुंवर सिंह आगे बढ़ते रहे |अन्त में कुंवर सिंह की सेना गंगा के पार पहुचने में सफल रही | अंतिम किश्ती में कुंवर सिंह नदी पार कर रहे थे , उसी समय किनारे से अंग्रेजी सेना के सिपाही की गोली उनके दाहिने बांह में लगी | कुंवर सिंह ने बेजान पड़े हाथ को अपनी तलवार से काटकर अलग कर गंगा में प्रवाहित कर दिया | घाव पर कपड़ा लपेटकर कुंवर सिंह ने गंगा पार किया | अंग्रेजी सेना उनका पीछा न कर सकी | गंगा पार कर कुंवर सिंह की सेना ने 22 अप्रैल को जगदीशपुर और उसके किले पर पुन: अधिकार जमा लिया | 23 अप्रैल को ली ग्रांड की सेना आरा से जगदीशपुर की तरफ बड़ी ली ग्रांड की सेना तोपों व अन्य साजो सामानों से सुसज्जित और ताजा दम थी | जबकि कुंवर सिंह की सेना अस्त्र - शस्त्रों की भारी कमी के साथ लगातार की लड़ाई से थकी मादी थी | अभी कुंवर सिंह की सेना को लड़ते - भिड़ते रहकर जगदीशपुर पहुचे 24 घंटे भी नही हुआ था | इसके वावजूद आमने - सामने के युद्ध में ली ग्रांड की सेना पराजित हो गयी | चार्ल्स वाल की 'इन्डियन म्युटनि ' में उस युद्ध में शामिल एक अंग्रेज अफसर का युद्ध का यह बयान दिया हुआ है की -- वास्तव में जो कुछ हुआ उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत ल्ल्जा आती है | लड़ाई का मैदान छोडकर हमने जंगल में भागना शुरू किया | शत्रु हमे पीछे से बराबर पीटता रहा | स्वंय ली ग्रांड को छाती में गोली लगी और वह मनारा गया | 199 गोरो में से केवल 80 सैनिक ही युद्ध के भयंकर संहार से ज़िंदा बच सके | हमारे साथ सिक्ख सैनिक हमसे आगे ही भाग गये थे .
22 अप्रैल की इस जीत के बाद जगदीशपुर में कुंवर सिंह का शासन पुन: स्थापित हो गया | किन्तु कुंवर सिंह के कटे हाथ का घाव का जहर तेजी से बढ़ रहा था इसके परिणाम स्वरूप 26 अप्रैल 1858 को इस महान वयोवृद्ध पराक्रमी विजेता का जीवन दीप बुझ गया | अंग्रेज इतिहासकार होम्स लिखता है की --- उस बूढ़े राजपूत की जो ब्रिटिश -- सत्ता के साथ इतनी बहादुरी व आन के साथ लड़ा 26अप्रैल 1858 को एक विजेता के रूप में मृत्यु हुई | एक अन्य इतिहासकार लिखता है की कुवरसिंह का व्यक्तिगत चरित्र भी अत्यंत पवित्र था , उसका जीवन परहेजगार था | प्रजा में उसका बेहद आदर - सम्मान था | युद्ध कौशल में वह अपने समय में अद्दितीय था
कुंवर सिंह द्वारा चलाया गया स्वतंत्रता - युद्ध खत्म नही हुआ | अब उनके छोटे भाई अमर सिंह ने युद्ध की कमान संभाल ली |
#अमरसिंह
कुंवर सिंह के बाद उनका छोटा भाई अमर सिंह जगदीशपुर की गद्दी पर बैठा | अमर सिंह ने बड़े भाई के मरने के बाद चार दिन भी विश्राम नही किया | केवल जगदीशपुर की रियासत पर अपना अधिकार बनाये रखने से भी वह सन्तुष्ट न रहा | उसने तुरंत अपनी सेना को फिर से एकत्रित कर आरा पर चढाई की | ली ग्रांड की सेना की पराजय के बाद जनरल डगलस और जरनल लेगर्ड की सेनाये भी गंगा पार कर आरा की सहायता के लिए पहुच चुकी थी | 3 मई को राजा अमर सिंह की सेना के साथ डगलस का पहला संग्राम हुआ | उसके बाद बिहिया , हातमपुर , द्लिलपुर इत्यादि अनेको स्थानों पर दोनों सेनाओं में अनेक संग्राम हुए | अमर सिंह ठीक उसी तरह युद्ध नीति द्वारा अंग्रेजी सेना को बार - बार हराता और हानि पहुचाता रहा , जिस तरह की युद्ध नीति में कुंवर सिंह निपुण थे | निराश होकर 15 जून को जरनल लेगर्ड ने इस्तीफा दे दिया | लड़ाई का बहार अब जनरल डगलस पर पडा | डगलस के साथ सात हजार सेना थी |डगलस ने अमर सिंह को परास्त करने की कसम खाई | किन्तु जून , जुलाई , अगस्त और सितम्बर के महीने बीत गये अमर सिंह परास्त न हो सका | इस बीच विजयी अमर सिंह ने आरा में प्रवेश किया और जगदीशपुर की रियासत पर अपना आधिपत्य जमाए रखा | जरनल डगलस ने कई बार हार खाकर यह ऐलान कर दिया जो मनुष्य किसी तरह अमर सिंह को लाकर पेश करेगा उसे बहुत बड़ा इनाम दिया जाएगा , किन्तु इससे भी काम न चल सका | तब डगलस ने सात तरफ से विशाल सेनाओं को एक साथ आगे बढाकर जगदीशपुर पर हमला किया | 17 अक्तूबर को इन सेनाओं ने जगदीशपुर को चारो तरफ से घेर लिया | अमर सिंह ने देख लिया की इस विशाल सैन्य दल पर विजय प्राप्त कर सकना असम्भव है | वह तुरंत अपने थोड़े से सिपाहियों सहित मार्ग चीरता हुआ अंग्रेजी सेना के बीच से निकल गया | जगदीशपुर पर फिर कम्पनी का कब्जा हो गया , किन्तु अमर सिंह हाथ न आ सका कम्पनी की सेना ने अमर सिंह का पीछा किया | 19 अक्तूबर को नौनदी नामक गाँव में इस सेना ने अमर सिंह को घेर लिया .
अमर सिंह के साथ केवल 400 सिपाही थे |इन 400 में से 300 ने नौनदी के संग्राम में लादकर प्राण दे दिए | बाकी सौ ने कम्पनी की सेना को एक बार पीछे हटा दिया | इतने में और अधिक सेना अंग्रेजो की मदद के लिए पहुच गयी | अमर सिंह के सौ आदमियों ने अपनी जान हथेली पर रखकर युद्ध किया | अन्त में अमर सिंह और उसके दो और साथी मैदान से निकल गये | 97 वीर वही पर मरे | नौनदी के संग्राम में कम्पनी के तरफ से मरने वालो और घायलों की तादाद इससे कही अधिक थी |कम्पनी की सेना ने फिर अमर सिंह का पीछा किया | एक बार कुछ सवार अमर सिंह के हाथी तक पहुच गये | हाथी पकड लिया , किन्तु अमर सिंह कूद कर निकल गया | अमर सिंह ने अब कैमूर के पहाडो में प्रवेश किया | शत्रु ने वहा पर भी पीछा किया किन्तु अमर सिंह ने हार स्वीकार न की | इसके बाद राजा अमर सिंह का कोई पता नही चलता | जगदीशपुर की महल की स्त्रियों ने भी शत्रु के हाथ में पढ़ना गवारा न किया | लिखा है की जी समय महल की 150 स्त्रियों ने देख लिया की अब शत्रु के हाथो में पड़ने के सिवाय कोई चारा नही तो वे तोपों के मुँह के सामने खड़ी हो गयी और स्वंय अपने हाथसे फलिता लगाकर उन सबने ऐहिक जीवन का अन्त कर दिया ।