गुरुवार, 5 मई 2016

मर्यादा-रक्षा

उस दिन विक्रम संवत् 1545 की अक्षय तृतीय का सूर्य ठीक सर पर पहुच चूका था । समस्त वातावरण बसन्त की समाप्ति और ग्रीष्म के आगमन की सूचना दे रहा था । गर्म वायु का एक झोंका आता और बालू के टीलों पर फूलो से लदे हुए फोग हिल उठते और उनकी केशो जेसी लम्बी पत्तियो से जमीन पर झाड़ू सा लग जाता । वायु के झोके के साथ ही कंटीली बंवलियो के पिले पुष्पो की सुगन्धि दूर तक फेल जाती और सुगन्ध रहित रोहिड़ा के सुंदर लाल पुष्प इधर उधर बिखर जाते । ठीक इसी समय जीण माता पर्वत श्रंखला की छाया में एक खेजड़ी के पेड़ के निचे राव शेखा जी घायलावस्था में बैठे थे । उनके सब घावों में टांके लगा दिये गए थे तथापि अब भी उनमे दर्द हो रहा था । वे बार बार अनुचर से मंगवा के पानी पी रहे थे । कल से अब तक उन्होंने कुछ भी नही खाया था अतएव इस समय उनको जोर की भूख लग रही थी । उन्होंने अनुचर  से पूछा -
भोजन में कितनी देर है ?
देर नही हे महाराज ! माँस तो पक चूका हे और रोटिया बन रही हे सो अभी लता हु ।
थोड़ी देर में अनुचर ने बाजरे की रोटी पर माँस परोस कर उसे राव शेखाजी के हाथ में दे दिया । बायें हाथ की हथेली पर रोटी को रख कर दाहिने हाथ से वे उसे खाने लगे । रोटी खाते खाते उन्होंने देखा - एक वनबिलाव काली सी कम्बल जैसी किसी वस्तु को घसीट कर ले जा रहा था । उन्होंने पूछा -
वह वनबिलाव क्या घसीट कर ले जा रहा है ? जरा देखो तो उधर जा कर ।
एक आदमी वनबिलाव के पीछे दौड़ा और थोड़ी देर में एक ताजा खाल को उससे छुड़ावाकर ले आया ।
क्या था ? राव शेखाजी ने फिर पूछा ।
महाराज ! मेढे की यह खाल थी जो वह घसीट कर भाग रहा था । अनुचर ने पास ही खड़ी दूसरी खेजड़ी की टहनियों पर सुखाते हुए कहा । राव शेखाजी ने ध्यान से उस खाल को देखते हुए पूछा -

क्या यह माँस इसी मेढे का बनाया है ?

हाँ महाराज ! 

उनकी मुख मुद्रा गंभीर हो गयी । उन्होंने अपने ऊपर फैली खेजड़ी को देखा , जिस खाट पर वे बैठे थे उसे ध्यान से देखा और फिर हाथ की बाजरे की रोटी और मांस को देखा । उनके ह्रदय में कई भाव तरंगे उठी और वे सब आकार एक ही आशंका में बदल गयी । उनके मस्तिष्क के विभिन्न विचारो ने एक निश्चयात्मक रूप धारण कर लिया । इन सब कारणों से उनके मुख मण्डल पर एक विचित्र परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगा । कुछ ही क्षणों में उन्होंने अपने विगत जीवन के चालीस पचास वर्षो का लेखा जोखा कर डाला और तत्काल ही उनकी विचार श्रंखला वर्तमान को छोड़ कर भविष्य पर जा ठहरी । उन्होंने हाथ के रोटी मांस को एक और रख दिया और फिर हाथ धोकर कुल्ला कर लिया ।

         क्या महाराज जीम चुके ?   अनुचर ने और रोटी और माँस परोसने के लिए लाते हुए पूछा ।

हाँ ।        कहते हुए उन्होंने अपने अंगरखे की जेब से एक छोटी सी लाल चीथड़े में बन्धी हुई गठरी निकाली । उसे उन्होंने बार बार ध्यान से देखा और सावधानी पूर्वक उसे जेब में रखते हुए पूछा -

सालजी भाटी कहाँ गए ?

वे घोड़ो के लिए घास का प्रबंध करने के लिए रलावता गाँव में गए हे । अनुचर ने उत्तर दिया ।

         उन्हें जल्दी बुलाओ ।
कहते हुए राव शेखा जी ने फिर उस लाल चीथड़े में बन्धी हुई गठरि को जेब से निकाला । थोड़ी देर में उनके उन्नत ललाट पर पसीने की बुँदे चमक उठी और वे व्याकुलतापूर्वक बार बार उसकी और देखने लगे । ठीक ग्यारह वर्षो से तलवार की ही भाँति वह गठरी भी उनके शरीर का एक अभिन्न अंग बन गई थी । वे सदैव उसे सावधानी पूर्वक अपने पास रखते थे । उसके माध्यम से वे किसी दुष्कर कार्य को पूरा करना चाहते थे पर उस दिन उनकी भावभंगी से ऐसा लग रहा था मानो वह कार्य पूरा हुआ नही है । उन्होंने व्यग्रता पूर्वक पूछा -

सालजी को बुलाने भेजा हे किसी को ?
हाँ महाराज ! उत्तर मिला ।
वे फिर अपने गत जीवन का सिंहावलोकन करने लगे । विगत ग्यारह वर्षो का इतिहास कुछ ही क्षणों में उनके मानस पटल पर अंकित होता हुआ उनकी आँखों के सामने से निकल गया ।

यह ग्यारह वर्षो का इतिहास भी बहुत कुछ उसी गठरी से प्रभावित रहता आया था । उस गठरी की घटना ने राव शेखाजी जे जीवन प्रवाह को एक विशिष्ट दिशा की ओर उन्मुख कर दिया था । ग्यारह वर्षो से वे एक दृड़ व्रती साधक की भांति सब बाधाओ को कुचलते हुए उसी दिशा में बढ़ रहे थे ।

उस दिन से लगभग ग्यारह वर्ष पहले वे एक दिन प्रातः काल के समय अपनी राजधानी अमरसर से कुछ ही दूर उत्तर की और एक चबूतरे पर बैठे हुए अपने घोड़ो की सिखलाई का निरीक्षण कर रहे थे । कई घोड़ो को ऊँचा और लंबा कूदाने का अभ्यास कराया जा रहा था और कइयों को भाले की लड़ाई की शिक्षा दी जा रही थी । दौड़ते हुए घोड़ो की टापो से मिट्टी ऊपर उठ कर आकाश में छा गयी थी । उन्होंने अपने प्रिय घोड़े ' अबलख ' को अपने पास मंगवाया । वे स्वयं उसे दौड़ा कर और फेर कर अपनी इच्छा अनुसार सुशिक्षित करना चाहते थे । काफी समय से अनुचर घोडा सजाये पास में ही खड़ा था पर राव शेखाजी दूसरे घोड़ो की दौड़ देखने में इतने तन्मय हो रहे थे कि उन्हें अबलख का ध्यान ही नही रहा । चंचल अश्व अबलख ने ही हिनहिना कर अपने स्वामी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया ।

      अभी आया अभी आया । कहते हुए वे उठने ही वाले थे कि उनके सामने पीछे से आकर घूँघट रहित , खुले सिर और विकराल रूप बनाये एक नवयुवती खड़ी हो गई ।
वे उससे कुछ पूछना ही चाहते थे कि पहले वह पूछ उठी -

         शेखाजी आप ही है ?

    हाँ बाला , शेखा नाम मेरा ही है ।

यह सुनते ही उस स्त्री ने अपनी ओढ़नी के सिर से बंधी हुई गठरी को खोला और उसमे से मुट्ठी भर खाकी मिट्ठी लेकर उसे राव शेखाजी के ऊपर फेंक दिया ।

वह मिट्ठी उनके श्वेत अंगरखे को मेला करती हुई चबूतरे पर फैल गयी । जब राव शेखाजी ने उसकी ओर देखा तब वह फुट फुट कर रो रही थी ।

है यह क्या ?  यह पागल कौन है ? यह क्या किया इसने ?  आदि वाक्य कहते हुए पास खड़े हुए सब सरदार चौकन्ने हो गए ।

बाला , तुमने यह मिट्ठी मेरे ऊपर क्यों फेकी है ? तुम्हे क्या शिकायते है सो मुझसे कहो ।

............ दुष्टो ने मेरा अपमान किया और मेरे माँग के सिंदूर को धो डाला ........ हिइं ......हिइं ........ हिइं....... ।

घबराओ नही ! तुम्हारा किस दुष्ट ने अपमान किया है और किसने तुम्हारे पति को मारा है ? मुझे साफ साफ कहो ।
.......हिइं ........ हिइं....... हिइं...... वे मेरे पीहर मारवाड़ से मुझे लेकर आ रहे थे । मार्ग में झुँथर गाव के तालाब पर हम लोग घूप टालने के लिए ठहरे । वह तालाब खुद रहा हे ......हिइं ........ हिइं....... हिइं...... वहा ऐसा नियम बना रखा है क़ि उधर से निकलते हुए प्रत्येक यात्री को एक टोकरी मिट्टी तालाब से बहार डालनी पड़ती है । उन्होंने ......हिइं ........ हिइं....... अपने हिस्से की एक टोकरी मिट्टी बाहर फेंक दी । " जब उन लोगों ने पूछा कि इस रथ में कोण है तो उन्होंने उत्तर दिया कि इसमे मेरी स्त्री है ।  ......हिइं ........ हिइं....... उन लोगों ने कहा कि तुम्हारी स्त्री से भी मिट्टी बाहर डलवाओ । उन्होंने उत्तर दिया कि उसके बदले मैं दो टोकरी मिटटी बाहर फेंक दूंगा
पर वो माने नही । .....

इस पर कुछ कहा सुनी हो गयी और उनमे से एक दुष्ट ने आगे बढ़ करे मेरे रथ का पर्दा हटा दिया और हाथ पकड़ कर वह मुझे बहार घसीटने लगा । यह देखा कर उन्होंने उस दुष्ट का उसी समय तलवार से सिर काट दिया । तब उन सबने मिल कर उनको भी ........ ......हिइं ........ हिइं....... हिइं......मार दिया ......हिइं ........ हिइं....... हिइं...... और मुझ से जबरदस्ती मिट्टी बाहर डलवाई वही मिटटी मैं अपनी ओढनी में बाँध कर लाई हूँ । ......हिइं ........ हिइं....... हिइं ।

"क्या तुम मेरे राज्य की प्रजा हो ? "
" नही । "
"और तुम्हारे साथ यह अत्याचार भी मेरे राज्य में नही हुआ है । "
" नही ।"
"अत्याचार करने वाला भी मेरे राज्य का निवासी नही है ।"
" नही । "
" तो बताओ मैं क्या कर सकता हूँ । "

" कुछ नही कर सकते इसलिये तो यह मिटटी आपके सिर पर डाली है । धिक्कार है आपको । वीरता और रजपूती का बाना पहने हुए फिरते हो और जब एक अबला के अपमान का बदला लेने का प्रश्न उठता है तब अपने राज्य और पराये राज्य की सिमा का बहाना करने लग जाते हो । " इस बार उस स्त्री के स्वर में दृढ़ता आ गयी थी ।

राव शेखाजी उसी मुद्रा में कुछ समय तक चुप रहे । वे मन ही मन कुछ सोच रहे थे कि इतने में वह स्त्री फिर बोल उठी -

" मेने आपकी वीरता की कहानिया सुन रखी थी इसलिए यहाँ आई थी । यदि आप एक अबला के अपमान का बदला नही ले सकते , स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा नही कर सकते तो मैं दूसरे किसी वीर पुरुष को ढूँढती हूँ । यह पृथवी वीरो से अभी खाली नही हुई है । " यह कहते हुए वह वहाँ से जाने को तत्पर हुई ।

पर इन थोड़े से मार्मिक शब्दों में उस स्त्री ने राव शेखाजी के सामने कर्तव्य का एक विस्तृत अध्याय खोल कर रख दिया ।

"ठहर बाला ! तुम्हारे अपमान का बदला अवश्य लिया जायेगा - स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा अवश्य होनी चाहिए और वह होगी ।" अंतिम शब्द राव शेखाजी ने जोर देकर कहे ।
" तुम्हार यह अपमान और तुम्हारे पति का वध किसकी आज्ञा से हुआ है ?"

"वहाँ के राजा कोलराज गौड़ की आज्ञा से " ।

" बाला निश्चिन्त रहो । जब तक कोलराज गौड़ का कटा हुआ सिर लाकर तुम्हारे चरणों में रख नही दूँगा तब तक अन्न जल ग्रहण नही करूँगा । ...... और जब तक स्त्री जाति का अपमान करने वाले इस प्रकार के दुष्टो का नाश नही कर डालूँगा तब तक चैन से विश्राम नही लूँगा । " राव शेखाजी ने यह भीषण प्रतिज्ञा कर डाली ।

सालजी भाटी ने कहा -

"महाराज शकुन अच्छे हुए है । घर बैठे हुए मिटटी आई है इसलिए आपका इस भूमि पर अधिकार होगा ; ...... यह मिटटी चारो ओर चबूतरे पर फेल गई है सो आपका यश और प्रताप भी चारो ओर फैल जायेगा , पर यह मिटटी आपके सीने पर गिरी है सो आपका शरीर इसी निमित काम आएगा । "

" इसकी कोई चिंता नही है सालजी । " राव शेखाजी ने दृढ़ता से उत्तर दिया ।

सालजी ने कहा - " इस मिटटी को एक गठरी में बाँध कर आप सदैव अपने पास रखे । यह शुभ मिटटी है । "
दुसरे ही क्षण उन्होंने अपने ऊपर फेंकी गयी उस मिटटी को झाड़ कर लाल कपडे के एक टुकड़े में बाँधा और उसे अपने अंगरखे की जेब में रख लिया । उसी दोपहर को चुने हुए 500 राजपूत और पठान घुड़सवारों ने अपने घोड़ो का मुह दक्षिण - पश्चिम की ओर करके एड लगा दी । लोगो ने घोड़ो की टांपो की रगड़ से धुलि का एक बादल ऊपर उठते हुए देखा ।

तीसरे दीन प्रातःकाल कोलराज का कटा हुआ सिर उस स्त्री के चरणों में पड़ा हुआ था । उसने अपनी प्रतिहिंसा की भावना शान्त करने केलिए उस सिर को अमरसर के दरवाजे में चुनवाने का आग्रह किया । अंत में वह सिर अमरसर के दुर्ग के बाहरी दरवाजे में चुनवा दिया गया ।

    उस अबला के प्रतिशोध की अग्नि अब शांत हुई । उसके अपमान का बदला चूका दिया गया था ,......... स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा जा प्रमाण मूल चूका था पर दूसरी ओर इससे भी भीषण प्रतिशोध की अग्नि सुलग चुकी थी । जब कोलराज के अन्य भाई गौड़ राजाओ और सरदारो को यह ज्ञात हुआ कि उनके भाई का सिर अमरसर के दरवाजे में चुना गया है तब उनके क्रोध का ठिकाना न रहा । गौड़ जेसी वीर और पराक्रमी जाति यह अपमान चुपचाप सहने को तैयार नही थी । एक व्यक्ति का अपमान समस्त गौड़ जाति का अपमान बन गया । इस अपमान का बदला लेने के लिए समस्त गौड़ राव शेखाजी के कट्टर शत्रु बन गए । उस समय मकराने से लगा कर घाटवे तक का समस्त भू खंड गोंडों के अधिकार में था । मारोट , घाटवा , भावन्ता , सरगोठ आदि उनके छोटे पर शक्तिशाली राज्य थे । उन सब ने मिलाकर राव शेखाजी पर आक्रमण कर दिया । पर राव शेखाजी जैसे प्रचण्ड वीर के सामने वे ठहर नही सके । अब राव शेखाजी ने भी उनकी शक्ति को समूल नष्ट करने का निश्चय कर लिया था । वे भी प्रतिवर्ष उन पर चढाई करने लगे और प्रत्येक युद्ध में उनसे बहुत से गाँव छीन कर अपने राज्य में मिलाने लगे । इस प्रकार इन ग्यारह वर्षोंमें ग्यारह बार गोंडों से लोमहर्षक युद्ध करचुके थे । इन युद्धों में इनके बहुत से सम्बन्धी , भाई बेटे और सूर सामन्त काम आ चुके थे ।

खुले युद्ध में शेखाजी को परास्त करना गोंडों के लिए असम्भव बन गया था अतएव उन्होंने इस बार निति और छल से काम लेना ही उचित समझा । सब गौड़ राजाओ और सरदारो ने मिलाकर राव शेखाजी को घाटवा में आकर धर्म युद्ध करने का निमन्त्रण दिया । रण निमन्त्रण एक राजपूत के लिए विवाह निमन्त्रण से भी अधिक उल्लास और आनंदमय होता है । राव शेखाजी ने उस निमन्त्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया । दोनों ओर से युद्ध की तैयारियां होने लगी ।

     गोंडों ने इस छल और कौशल से लड़ना ही उचित समझा । उन्हीने अपने 500 चुने हुए सेनिक घाटवा से दो कोस दूर अमरसर के मार्ग पर राव शेखाजी पर अचानक आक्रमण करने के लिए जंगल में छिपा दिए थे । राव शेखाजी आखेट खेलते हुए अपनी मुख्य सेना के कुछ साथियो सहित आगे निकल चुके थे । इस प्रकार उनको अकेला देख कर उन लोगो का उत्साह और भी बढ़ गया । उन्होंने अचानक उन पर मार्ग के दोनों ओर से आक्रमण कर दिया । राव शेखाजी अपने थोड़े से साथियो सहित उनसे वीरता से लड़ते रहे और जब तक उनकी मुख्य सेना वहाँ तक पहुँची तब तक उन्होंने बहुत से शत्रुओ को तलवार के घाट उतार दिया था पर इस युद्ध में उनके भी अनेक घाव लगे थे इसलिये उनके सरदार उनको वहाँ से उठा कर जीणमाता के पहाड़ की तलहटी में ले आये थे । उसी स्थान पर उनके घावो की मरहम पट्टी की गयी थी ।

       दूसरे दिन वे कुछ स्वस्थ से हुए तो बाजरे की रोटी और मेढे का माँस खाने ही लगे थे की अपने आस पास के संयोग को देख कर गंम्भीर बन गए थे ओर इसलिए ग्यारह वर्ष पहले जेब में रखी हुई उस लाल कपडे की गठरी को वे जेब से निकल कर बार बार देख रहे थे ।

     वे बहुत देर तक उसी अवस्था में बेठे रहे । कभी उस गठरी को देखते कभी खेजड़ी और खाट को ।

      इतने में सालजी भाटी घोड़ो के लिए बैल गाडियो में घास लेकर आ गए । उन्होंने सालजी को पास बुलाया और मुस्कराते हुए कहा -

" भाटी सरदार ! आपके शकुन आज सच्चे हो रहे है ।"

" कौनसे शकुन महाराज ? "

" वे ही शकुन जो आज से ग्यारह वर्ष पहले देखे थे ।"

" आज क्या , वे तो इतने लम्बे वर्षो से सच्चे हो रहे है , इसलिये आपकी विजय होती जा रही है । "

" पर आज तो उनके अंतिम चरण भी सच्चे होनेे जा रहे है सालजी ।"

" ऐसा दिखाई तो नही दे रहा महाराज ।"

" दिखाई दे रहा है सालजी । मेरी मृत्यू के विषय में की गयी भविष्यवाणी भी अब सच्ची होने जा रही है । देखो सब संयोग अपने आप ही मिल रहे है ...... खेजड़ी की छाया , खींप की खाट , काले मेढे जा मांस , बाजरे की रोटी । यही तो भविष्यवाणी थी न , कि जिस दीन इस प्रकार का संयोग मिलेगा उसी दिन मेरी मृत्यू हो जायेगी । उस मिटटी के कारण शरीर में घाव भी अनेक लग चुके है । अब उनमे असहनीय वेदना हो रही है । आज अक्षय तृतीया का शुभ दिन है इसलिए यह भावुष्यवानी आज ही सच्ची होनी चाहिए । आप सब लोगो को मेरे पास बुला लीजिए । "

बात की बात में सब लोग उनकी खाट के पास आकर बैठे गए । उन्होंने सब को सम्बोधित करते हुए कहा -

" सरदारो ! मेने अपने जीवन में पचासों युद्ध किए है और  आप लोगो की वीरता के कारण प्रत्येक युद्ध में विजयी रहा हु । पिछले वर्षो में ही ग्यारह भयंकर युद्ध तो गोंडों से ही लडने पड़े है । मैं गोंडों
से कभी नही लड़ता पर एक स्त्री के अपमान का बदला लेने का प्रश्न था , स्त्री जाति की मर्यादा सुरक्षित रखने का दायित्व था । इसी गठरी की मिटटी ने मुझे अपने कर्तव्य की प्रेरणा दी थी । मेरा काम अब भी अधूरा है , गोंडों की शक्ति क्षीण अवश्य हुई है पर वह समाप्त नही हुई है । उन्होंने धर्म का निमन्त्रण देकर कल घाटवा में ही किस प्रकार से छलपूर्वक आक्रमण कर दिया था । ....... बदला अभी पूर्ण नही हुआ हे । मेरी अब अंतिम घडी आ पहुची है । मेरी मृत्यु के समय घटित होने वाले सब संयोग अपने आप एकत्रित हो गए है , इसलिये अब कोण इस मिटटी की पोटली संभालेगा , कौन गोंडों से बदला लेगा ? "

         राजकुमार ने आगे बढ़ कर उस मिटटी की पोटली को अपने हाथ में ले लिया ।
सरदारो ने एक स्वर में आश्वासन दिया -

         " हम बदला लेंगे महाराज ! " राव शेखाजी ने संतोष की दृष्टि से चारो ओर देखा । उनके मुख मण्डल पर शांति , संतोष और तेज की आभा उमड़ आई । उन्होंने ईश्वर का ध्यान करते हुए अपने नेत्र बंद किये और दूसरे ही क्षण उनके सिले हुए घावों में से अचानक रक्त प्रवाह होने लगा । उसने खींप की उस  खाट को पार करके नीचे को ओर समस्त बालू को भिगो दिया । उस रक्त रंजीत बालू का प्रत्येक कण आंधी के साथ उड़ कर शेखावाटी प्रान्त की चप्पा चप्पा भूमि पर फैल गया .........  इसी प्रेरणा और सन्देश के साथ ............

" स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा अवश्य होनी चाहिए । "

ममता और कर्तव्य
लेखक :- स्वर्गीय आयुवान सिंहजी हुडील

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