इस देश का इतिहास जिसे राजपूतों की वीरता एवं शौर्यता ,त्याग और बलिदान के साथ ही देश भक्ति और राष्ट्रहित के लिए सब कुछ समर्पण कर देने की भावना का इतिहास कहा जा सकता है ।यह इतिहास किसी एक वंश ,किसी एक क्षेत्र या किसी एक भाग का न होकर देश के कोने कोने में फैले हुये विभिन्न वंशों के राजपूतों का इतिहास है ।समय ,काल और परिस्थिति के अनुसार हर वंश के राजपूत ने अपना सर्वस्व बलिदान कर इतिहास के पृष्ठों में स्वर्ण पृष्ठ जोड़ा है ।सिकंदर और मुगलों के आगमन से लेकर अंग्रेजी हुकूमत तक के विदेशीयो से लड़ने में सैकड़ों राजपूत वीरों ने अपने प्राणों को भारत माता की रक्षा में न्योछावर कर दिया ।
सन् 1857 में जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ क्रांति की चिंगारी चमकी तब हर भारतीय का खून अंग्रेजों के जुल्म की कहानियाँ सुन -
सुनकर खौल उठता था। सन् 1857 का ग़दर भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है जिसमें पूर्वांचल के कई राजपूत राजाओं और जमींदारों ने अंग्रेजों के खिलाफ खुल कर लड़ाई लड़ी और देश की आजादी के लिए सहीद होगये जिनमें गोरखपुर की डुमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह जी भी प्रमुख थे । बंधू सिंह का जन्म 1मई 1833 में गोरखपुर जिले की डुमरी रियासत के जमींदार परिवार में बाबू शिव प्रसाद सिंह के यहां हुआ था । बंधू सिंह अपने पिता के 5 पुत्र थे । बंधू सिंह तरकुलहा देवी के परम भक्त थे । तरकुलहा देवी का मंदिर गोरखपुर से 20 किमी 0 दुरी पर एवं चौरी -चौरा से लगभग 5 किमी0 की दुरी पर स्थित है ।सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले इस क्षेत्र में जंगल था जहाँ से होकर गुर्रा नदी गुजरती थी ।इसी जंगली क्षेत्र में बाबू बंधू सिंह रहते थे ।गुर्रा नदी के तट पर तरकुल (ताड़)के पेड़ के नीचे पीडिया स्थापित कर वह देवी माता की उपासना किया करते थे।तरकुलहा देवी बाबू बंधू सिंह जी की इष्ट देवी थी ।जब बंधू सिंह बड़े हुए तो उनके दिल में भी अंग्रेजो के खिलाफ आग जलने लगी। वे भी देश की स्वतंत्रता के सपने देखने लगे ।बंधू सिंह गुरिल्ला लड़ाई में बहुत माहिर थे, इसलिए जब भी कोई अंग्रेज उस जंगल से गुजरता, बंधू सिंह उसको मार कर उसका सर काटकर तरकुलहा देवी मां केचरणों में समर्पित कर देते ।पहले तो अंग्रेज यही समझते रहे कि उनके सिपाही जंगल में जाकर लापता होते जा रहे हैं, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें भी पता लग गया कि अंग्रेज सिपाही बंधू सिंह के शिकार हो रहे हैं। अंग्रेजों ने उनकी तलाश में जंगल का कोना-कोना छान मारा लेकिन बंधू सिंह उनके हाथ न आये। आख़िरकार इलाके के एक गद्दार व्यवसायी की मुखबिरी के चलते अंग्रेजों ने बाबू बंधु सिंह को कैद कर लिया गया। अंग्रेजों ने उन्हें अदालत में पेश किया जहां जज ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई।12 अगस्त 1857 को गोरखपुर के अली नगर चौराहे पर उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। इस क्षेत्र की किवदंती के अनुसार कि अंग्रेजों ने बंधु सिंह को 7 बार फांसी पर लटकाया लेकिन तरकुलहा देवी के आशीर्वाद से हर बार उनकी कोशिश असफल हुई। तब फांसी देने वाले जल्लाद ने उनसे आग्रह किया कि वे उसकी विवशता समझें। अगर वह उन्हें फांसी नहीं लगा सका तो अंग्रेज सरकार जल्लाद को भी फांसी पर टांग देंगी।जल्लाद की मजबूरी समझकर बंधु सिंह ने अपनी इष्ट तरकुलहा देवी माँ को नमन कर मनुष्य शरीर त्यागने और अपने पास बुलाने की प्रार्थना की। मां ने उनकी प्रार्थना सुन ली और जब बंधु सिंह को आठबीं बार फांसी दी गई तब उन्होंने प्राण त्याग दिए।अमर शहीद बंधू सिंह को सम्मानित करने के लिए यहाँ एक स्मारक भी बना हैं।मैं ऐसे महान् अदभुत स्वतंत्रता के क्रांतिकारी देश भक्त भारतमाता के वीर सपूत को सत् सत् नमन करता हूँ ।जय हिन्द ।जय राजपुताना ।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन , गांव लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस उत्तरप्रदेश ।
इस भारत भूमि पर कई वीर योद्धाओ ने जन्म लिया है। जिन्होंने अपने धर्म संस्कृति और वतन पर खुद को न्यौछावर कर दिया। सत् सत् नमन है इन वीर योद्धाओं को।
गुरुवार, 5 मई 2016
ऐसा नहीं देखा स्वतंत्रता का अदभुत महान क्रांतिकारी भारतमाता का वीर सपूत---अमर शहीद बाबू बंधू सिंह
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