इस भारत भूमि पर कई वीर योद्धाओ ने जन्म लिया है। जिन्होंने अपने धर्म संस्कृति और वतन पर खुद को न्यौछावर कर दिया। सत् सत् नमन है इन वीर योद्धाओं को।
सोमवार, 30 मई 2016
कौन करे याद कुर्बानी.... स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम योद्घा श्याम सिंह चौहटन
शनिवार, 28 मई 2016
मतीजी मनहास जिनका सर काटने के बाद भी धड़ दुश्मनों के सर काटता रहा
RAJPUT LEGEND OF PUNJAB- "BABA MATI JI MINHAS"
बाबा मतीजी मिन्हास
ऐसी मिसाल पुरी दुनिया में मिलनी मुश्किल है,जब मजलुमों की पुकार सुनकर ओर धर्म युद्ध के लिए अपनी शादी अधूरी छोड़कर अपने जीवन की आहुती भेंट करदी हो, ऐसी मिसाल एक राजपूत ही पेश कर सकता है ! धन्य हों मतीजी मनहास जिनका सर काटने के बाद भी धड़ दुश्मनों के सर काटता रहा।
There are many sagas in rajput history singing glories of the brave men who kept fighting even after they were beheaded. One of such sagas is of the Veer Baba Matiji Minhas.
बाबा मतीजी मिन्हास और उनके परिवार का इतिहास :- बीरम देव मिन्हास जी ने बाबर की इब्राहिम लोधी (जो की दिल्ली के तखत पर बैठा था ) के खिलाफ युद्ध में सहायता की थी ! इनका एक पुत्र श्री कैलाश देव पंजाब के गुरदासपुर के इलाके में बस गया ! कैलाश देव मिन्हास जी के दो पुत्र कतिजी और मतिजी जसवां ( दोआबा का इलाका जहां जस्वाल राजपूत राज करते थे) में विस्थापित हो गए ! यहाँ पर दोनों भाई जस्वाल राजा की सरकार में ऊँचे ओधे पर काम करने लगगए ! जसवां के जस्वाल राजा ने इनकी बहादुरी और कामकाज को देख कर इनाम में जागीर दी , जो की होशिारपुर का हलटा इलाका है ! कहा जाता है की , मतिजी जो शादी का दिन था , और वह अपनी शादी में फेरे ले रहे थे ,तभी एक ब्राह्मण लड़की ने शादी में ही गुहार लगाई की उसका गाओ मुस्लमान लुटेरे लूट रहे है , गोऊ को काट रहे है , लड़कीओ को बेआबरु कर रहे है , गाओ को तहस नहस कर रहे है ! मतिजी ने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए , और एक सच्चे राजपूत की भांती आधे फेरे बीच में ही छोड़कर उन मुस्लमान लुटेरों को मार भगाया , लेकिन इस बीच एक दुश्मन के वार से उनका सर धड़ से अलग हो गया , लेकिन वह फिर भी बिना सर के ही उनसे लड़ते रहे , यह नज़ारा देख दुश्मन भागने लगे , मतिजी ने उनका कुछ दूर तक बिना सर के पीछा किया लेकिन वह सब मैदान छोड़ कर दौड़ गए !
बाबा मतिजी दरोली के स्थान पर वीर गति को प्राप्त हुए ! उनकी होने वाली पत्नी ( क्यूंकि शादी पूरी नही हुए थी ) श्रीमती सम्पूर्णि जी (जो की नारू राजपूत थी ) भी उनके साथ ही अलग चिता में सती होगई ! क्युकी उनकी शादी अधूरी थी इस लिया उन्हें अलग चीता में बिलकुल मतिजी की चीता के साथ सती होने की अनुमति दी गई थी ! आज उन दोनो के स्थान दरोली में साथ साथ है जहां उन्हें अग्नि दी गई थी !
इस प्रकरण के बाद उनके भाई कतीजी ने अपनी जागीर को बदलवाकर दरोली ले ली थी , जहां उनके भाई शहीद हुए थे ! यह स्थान मन्हास राजपूतो के जठेरे है , क्यों की गुरु गोबिंद सिंह जी के समय में इस स्थान और आस पास के राजपूत परिवार सिक्ख बन गये थे , बिलकुल बाबा मतिजी और सम्पूर्णिजी की स्थान के साथ ही एक भवय गुरुद्वारा बाबा मतिजी के नाम से बनवाया गया है !
एक बात बताना चाहता हुँ खालसा साजना के 40 - 50 वर्षो तक सभी तख्तो के जनरल , शस्त्र विद्या सिखाने वाले , ज़ादा तर बहादुरी और मैदान ए जंग में जौहर दिखाने वाले राजपूत योद्धा ही थे ,यह जुझारू पन उन्हें विरासत में मिला था ! गतका , शस्त्र विद्या , घुड़सवारी उनके पूर्वज हज़ारो साल से करते थे ,और यह सब उनके खून में ही था !
वैसे तो जठेरे पूजन और सती पूजन सिक्ख धर्म में पूर्ण तरह मना है , लेकिन फिर भी हमारे सिक्ख राजपूत भाई आपने रीती रिवाज , और अपने राजपूत होने पर पूरा गर्व करते है और राजपूतो में ही शादी करवाते है !
जय क्षत्रिय धर्म !!
जय राजपुताना !!
साभार:~ Rajput of himalayas
शुक्रवार, 27 मई 2016
कुल में है तो जाण सुजाण, फौज देवरे आई......
“बारात चल पड़ी है। गाँव समीप आ गया है इसलिए घुड़सवार घोड़ों को दौड़ाने लगे हैं। ऊँट दौड़ कर रथ से आगे निकल गए हैं । गाँव में ढोल और नक्कारे बज रहे हैं -
दुल्हा-दुल्हिन एक विमान पर बैठे हैं । दुल्हे के हाथ में दुल्हिन का हाथ है । हाथ का गुदगुदा स्पर्श अत्यन्त ही मधुर है। दासी पूछ रही है -“सुहागरात के लिए सेज किस महल में सजाऊँ? इतने में विमान ऊपर उड़ पड़ा।।'
विमान के ऊपर उड़ने से एक झटका-सा अनुभव हुआ और सुजाणसिंह की नीद खुल गई । मधुर स्वप्न भंग हुआ । उसने लेटे ही लेटे देखा, पास में रथ ज्यों का त्यों खड़ा था । ऊँट एक ओर बैठे जुगाली कर रहे थे । कुछ आदमी सो रहे थे
और कुछ बैठे हुए हुक्का पी रहे थे । अभी धूप काफी थी । बड़ के पत्तों से छन-छन कर आ रही धूप से अपना मुँह बचाने के लिए उसने करवट बदली ।
‘‘आज रात को तो चार-पाँच कोस पर ही ठहर जायेंगे । कल प्रात:काल गाँव पहुँचेंगे । संध्या समय बरात का गाँव में जाना ठीक भी नहीं है ।'
लेटे ही लेटे सुजाणसिंह ने सोचा और फिर करवट बदली । इस समय रथ सामने था । दासी जल की झारी अन्दर दे रही थी । सुजाणसिंह ने अनुमान लगाया -
‘‘वह सो नहीं रही है, अवश्य ही मेरी ओर देख रही होगी ।'
दुल्हिन का अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए उसने बनावटी ढंग से खाँसा । उसने देखा - रथ की बाहरी झालर के नीचे फटे हुए कपड़े में से दो भाव-पूर्ण नैन उस ओर टकटकी लगाए देख रहे थे । उनमें संदेश, निमंत्रण, जिज्ञासा, कौतूहल और सरलता सब कुछ को उसने एक साथ ही अनुभव कर लिया । उसका उन नेत्रों में नेत्र गड़ाने का साहस न हुआ । दूसरी ओर करवट बदल कर वह फिर सोने का उपक्रम करने लगा । लम्बी यात्रा की थकावट और पिछली रातों की अपूर्ण निद्रा के कारण उसकी फिर आँख लगी अवश्य, पर दिन को एक बार निद्रा भंग हो जाने पर दूसरी बार वह गहरी नहीं आती । इसलिए सुजाणसिंह की कभी आँख लग जाती और कभी खुल जाती । अर्द्ध निद्रा, अर्द्ध स्वप्न और अर्द्ध जागृति की अवस्था थी वह । निद्रा उसके साथ ऑख-मिचौनी सी खेल रही थी । इस बार वह जगा ही था कि उसे सुनाई दिया
“कुल मे है तो जाण सुजाण, फौज देवरे आई।'
“राजपूत का किसने आह्वान किया है ? किसकी फौज और किस देवरे पर आई है ?''
सहसा सुजाणसिंह के मन में यह प्रश्न उठ खड़े हुए । वह उठना ही चाहता था कि उसे फिर सुनाई पड़ा -
‘‘झिरमिर झिरमिर मेवा बरसै, मोरां छतरी छाई।’’
कुल में है तो जाण सुजाण, फौज देवरे आई।”
‘‘यहाँ हल्ला मत करो ? भाग जाओ यहाँ से ?‘‘ एक सरदार को हाथ में घोड़े की चाबुक लेकर ग्वालों के पीछे दौड़ते हुए उन्हें फटकारते हुए सुजाणसिंह ने देखा ।
“ठहरों जी ठहरो । ये ग्वाले क्या कह रहे हैं ? इन्हें वापिस मेरे पास बुलाओ ।’ सुजाणसिंह ने कहा -
“कुछ नहीं महाराज ! लड़के हैं,यों ही बकते हैं । ... ने हल्ला मचा कर नीद खराब कर दी |'' ...... एक लच्छेदार गाली ग्वालों को सरदार ने दे डाली ।
“नहीं ! मैं उनकी बात सुनना चाहता हूँ ।’
“महाराज ! बच्चे हैं वे तो । उनकी क्या बात सुनोगे ?’
“उन्होंने जो गीत गाया, उसका अर्थ पूछना चाहता हूँ ।’
“गंवार छोकरे हैं । यों ही कुछ बक दिया है। आप तो घड़ी भर विश्राम कर लीजिए फिर रवाना होंगे ।’’
“पहले मैं उस गीत का अर्थ समझुंगा और फिर यहाँ से चलना होगा ।’
‘‘उस गीत का अर्थ. ।’’ कहते हुए सरदार ने गहरा निःश्वास छोड़ा और फिर वह रुक गया |
"हाँ हाँ कहों, रुकते क्यों हो बाबाजी?"
“पहले बरात को घर पहुँचने दो फिर
इसका अर्थ बताऊँगा ।।'
“मैं अभी जानना चाहता हूँ ।’
‘‘आप अभी बच्चे हैं । विवाह के मांगलिक कार्य में कहीं विघ्न पड़ जायगा ।’’
“मैं किसी भी विघ्न से नहीं डरता ।
आप तो मुझे उसका अर्थ…... I'
‘‘मन्दिर को तोड़ने के लिए पातशाह की फौज आई है । यही अर्थ है उस का।’’
“कौनसा मन्दिर ?'
“खण्डेले का मोहनजी का मन्दिर ।’
‘‘मन्दिर की रक्षा के लिए कौन तैयार हो रहे हैं ?’
‘‘कोई नहीं।’’ ‘‘क्यों ?’
‘‘किसमें इतना साहस है जो पातशाह की फौज से टक्कर ले सके । हरिद्वार, काशी, वृन्दावन, मथुरा आदि के हजारों मन्दिर तुड़वा दिए हैं, किसी ने चूँ तक नहीं की ‘‘
“पर यहाँ तो राजपूत बसते हैं।’’
“मौत के मुँह में हाथ देने का किसी में साहस नहीं है ।
“मुझ में साहस है । मैं मौत के मुँह में हाथ दूँगा । सुजाणसिंह के जीते जी तुर्क की मन्दिर पर छाया भी नहीं पड़ सकती । भूमि निर्बीज नहीं हुई, भारत माता की पवित्र गोद से क्षत्रियत्व कभी भी निःशेष नहीं हो सकता । यदि गौ, ब्राह्मण और मन्दिरों की रक्षा के लिए यह शरीर काम आ जाय तो इससे बढ़कर सौभाग्य होगा ही क्या ? शीघ्र घोड़ों पर जीन किए जाएँ ?’ कहते हुए सुजाणसिंह उठ खड़ा हुआ ।
परन्तु आपके तो अभी काँकण डोरे (विवाह-कंगन) भी नहीं खुले हैं ।
“कंकण-डोरडे अब मोहनजी कचरणों में ही खुलेंगे ।।'
बात की बात में पचास घोड़े सजकर तैयार हो गए । एक बरात का कार्य पूरा हुआ, अब दूसरी बरात की तैयारी होने लगी
। सुजाणसिंह ने घोड़े पर सवार होते हुए रथ की ओर देखा - कोई मेहन्दी लगा हुआ सुकुमार हाथ रथ से बाहर निकाल कर अपना चूड़ा बतला रहा था । सुजाणसिंह मन ही मन उस मूक भाषा को समझ गया।
“अन्य लोग जल्दी से जल्दी घर पहुँच जाओ ।' कहते हुए सुजाणसिंह ने घोड़े का मुँह खण्डेला की ओर किया और एड़ लगा दी । वन के मोरों ने पीऊ-पीऊ पुकार कर विदाई दी ।
मार्ग के गाँवों ने देखा कोई बरात जा रही थी । गुलाबी रंग का पायजामा, केसरिया बाना, केसरिया पगड़ी और तुर्रा-कलंगी
लगाए हुए दूल्हा सबसे आगे था और पीछे केसरिया-कसूमल पार्गे बाँधे पचास सवार थे । सबके हाथों में तलवारें और भाले थे । बड़ी ही विचित्र बरात थी वह । घोड़ों को तेजी से दौड़ाये जा रहे थे, न किसी के पास कुछ सामान था और न अवकास ।
दूसरे गाँव वालों ने दूर से ही देखा - कोई बरात आ रही थी । मारू नगाड़ा बज रहा था; खन्मायच राग गाई जा रही थी, केसरिया-कसूमल बाने चमक रहे थे, घोड़े पसीने से तर और सवार उन्मत्त थे । मतवाले होकर झूम रहे थे ।
खण्डेले के समीप पथरीली भूमि पर बड़गड़ बड़गड़ घोड़ों की टापें सुनाई दीं । नगर निवासी भयभीत होकर इधर-उधर दौड़ने लगे । औरते घरों में जा छिपी । पुरूषों ने अन्दर से किंवाड़ बन्द कर लिए । बाजार की दुकानें बन्द हो गई । जिधर देखो उधर भगदड़ ही भगदड़ थी ।
“तुर्क आ गये, तुर्क आ गये “ की आवाज नगर के एक कोने से उठी और बात की बात में दूसरे कोने तक पहुँच गई । पानी लाती हुई पनिहारी, दुकान बन्द करता हुआ महाजन और दौड़ते हुए बच्चों के मुँह से केवल यही आवाज निकल रही थी- “तुर्क आ गये हैं, तुर्क आ गये हैं “ मोहनजी के पुजारी ने मन्दिर के पट बन्द कर लिए । हाथ में माला लेकर वह नारायण कवच का जाप करने लगा, तुर्क को भगाने के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगा ।
इतने में नगर में एक ओर से पचास घुड़सवार घुसे । घोड़े पसीने से तर और सवार मतवाले थे । लोगों ने सोचा -
‘‘यह तो किसी की बरात है, अभी चली जाएगी ।'
घोड़े नगर का चक्कर काट कर मोहनजी के मन्दिर के सामने आकर रुक गए । दूल्हा ने घोड़े से उतर कर भगवान की मोहिनी मूर्ति को साष्टांग प्रणाम किया और पुजारी से पूछा -
“तुर्क कब आ रहे हैं ?’
“कल प्रातः आकर मन्दिर तोड़ने की सूचना है ।'
“अब मन्दिर नहीं टूटने पाएगा । नगर में सूचना कर दो कि छापोली का सुजाणसिंह शेखावत आ गया है; उसके जीते जी मन्दिर की ओर कोई ऑख उठा कर भी नहीं देख सकता । डरने-घबराने की कोई बात नहीं है ।'
पुजारी ने कृतज्ञतापूर्ण वाणी से आशीर्वाद दिया । बात की बात में नगर में यह बात फैल गई कि छापोली ठाकुर सुजाणसिंह जी मन्दिर की रक्षा करने आ गए हैं । लोगों की वहाँ भीड़ लग गई । सबने आकर देखा, एक बीस-बाईस वर्षीय दूल्हा और छोटी सी बरात वहाँ खड़ी थी । उनके चेहरों पर झलक रही तेजस्विता,दृढ़ता और वीरता को देख कर किसी को यह पूछने का साहस नहीं हुआ कि वे मुट्टी भर लोग मन्दिर की रक्षा किस प्रकार कर सकेंगे । लोग भयमुक्त हुए । भक्त लोग इसे भगवान मोहनजी का चमत्कार बता कर लोगों को समझाने लगे -
“इनके रूप में स्वयं भगवान मोहनजी ही तुकों से लड़ने के लिए आए है । छापोली ठाकुर तो यहाँ हैं भी नहीं- वे तो बहुत
दूर ब्याहने के लिए गए है,- जन्माष्टमी का तो विवाह ही था, इतने जल्दी थोड़े ही आ सकते हैं ।
यह बात भी नगर में हवा के साथ ही फैल गई । किसी ने यदि शंका की तो उत्तर मिल गया -
‘‘मोती बाबा कह रहे थे ।’’
मोती बाबा का नाम सुन कर सब लोग चुप हो जाते ।
मोती बाबा वास्तव में पहुँचे हुए महात्मा हैं । वे रोज ही भगवान का दर्शन करते हैं, उनके साथ खेलते, खाते-पीते लोहागिरी के जंगलों में रास किया करते हैं । मोती बाबा ने पहचान की है तो बिल्कुल सच है । फिर क्या था, भीड़ साक्षात् मोहनजी के दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी । भजन मण्डलियाँ आ गई । भजन-गायन प्रारम्भ हो गया । स्त्रियाँ भगवान का दर्शन कर अपने को कृतकृत्य समझने लगी । सुजाणसिंह और उनके साथियों ने इस भीड़ के आने के वास्तविक रहस्य को नहीं समझा । वे यही सोचते रहे कि सब लोग भगवान की मूर्ति के दर्शन करने ही आए हैं । रात भर जागरण होता रहा, भजन गाये जाते रहे और सुजाणसिंह भी घोड़ों पर जीन कसे ही रख कर उसी वेश में
रात भर श्रवण-कीर्तन में योग देते रहे ।
प्रात:काल होते-होते तुर्क की फौज ने आकर मोहनजी के मन्दिर को घेर लिया । सुजाणसिंह पहले से ही अपने साथियों सहित आकर मन्दिर के मुख्य द्वार के आगे घोड़े पर चढ़ कर खड़ा हो गया । सिपहसालार ने एक नवयुवक को दूल्हा वेश में देख कर अधिकारपूर्ण ढंग से पूछा -
“तुम कौन हो और क्यों यहाँ खड़े हो?’
“तुम कौन हो और यहाँ क्यों आए हो ?’
“जानते नहीं, मैं बादशाही फौज का सिपहसालार हूँ।’
“तुम भी जानते नहीं, मैं सिपहसालारों का भी सिपहसालार हूँ ।’
‘‘ज्यादा गाल मत बजाओ और रास्ते से
हट जाओ नहीं तो अभी. ''
“तुम भी थूक मत उछालो और चुपचाप यहाँ से लौट जाओ नहीं तो अभी ....।”
“तुम्हें भी मालूम है, तुम किसके सामने खड़े हो?’
“शंहशाह आलमगीर ने मुझे बुतपरस्तों को सजा देने और इस मन्दिर की बुत को तोड़ने के लिए भेजा है। शहंशाह आलमगीर की हुक्म-उदूली का नतीजा क्या होगा, यह तुम्हें अभी मालूम नहीं है। तुम्हारी छोटी उम्र देख करे
मुझे रहम आता है, लिहाजा मैं तुम्हें एक बार फिर हुक्म देता हूँ कि यहाँ से हट जाओ ।।'
“मुझे शहंशाह के शहंशाह मोहनजी ने तुकों को सजा देने के लिए यहाँ भेजा है पर तुम्हारी बिखरी हुई बकरानुमा दाढ़ी और अजीब सूरत को देख कर मुझे दया आती है, इसलिए मैं एक बार तुम्हें फिर चेतावनी देता हूँ कि यहाँ से लौट जाओ।’
इस बार सिपहसालार ने कुछ नम्रता से पूछा - “तुम्हारा नाम क्या है ?’
“मेरा नाम सुजाणसिंह शेखावत है ।’
“मैं तुम्हारी बहादूरी से खुश हूँ।
मैं सिर्फ मन्दिर के चबूतरे का एक कोना तोड़ कर ही यहाँ से हट जाऊँगा । मन्दिर और बुत के हाथ भी न लगाऊँगा । तुम रास्ते से हट जाओ ।’’
“मन्दिर का कोना टूटने से पहले मेरा सिर टूटेगा और मेरा सिर टूटने से पहले कई तुकों के सिर टूटेंगे ।
सिपहसालार ने घोड़े को आगे बढ़ाते हुए नारा लगाया -
‘‘अल्ला हो। अकबर |''
“जय जय भवानी ।’ कह कर सुजाणसिंह अपने साथियों सहित तुकों पर टूट पड़ा |
लोगों ने देखा उसकी काली दाढ़ी का प्रत्येक बाल कुशांकुर की भाँति खड़ा हो गया। तुर्रा -कलंगी के सामने से शीघ्रतापूर्वक
घूम रही रक्तरंजित तलवार की छटा अत्यन्त ही मनोहारी दिखाई से रही थी| बात की बात में उस अकेले ने बत्तीस कब्रे खोद दी थी ।
रात्रि के चतुर्थ प्रहर में जब ऊँटों पर सामान लाद कर और रथ में बैलों को जोत कर बराती छापोली की ओर रवाना होने
लगे कि दासी ने आकर कहा -
“बाईसा ने कहलाया है कि बिना दुल्हा के दुल्हिन को घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए ।।'
“तो क्या करें ?’ एक वृद्ध सरदार ने उत्तर दिया ।
“वे कहती हैं, मैं भी अभी खण्डेला जाऊँगी ।
“खण्डेला जाकर क्या करेंगी ? वहाँ तो मारकाट मच रही होगी ।’
“ वे कहती हैं कि आपको मारकाट से डर लगता है क्या ?’
“मुझे तो डर नहीं लगता पर औरत को मैं आग के बीच कैसे ले जाऊँ ।’
“वे कहती हैं कि औरतें तो आग में खेलने से ही राजी होती हैं ।
मन ही मन - ‘‘दोनों ही कितने हठी हैं ।
प्रकट में - “मुझे ठाकुर साहब का हुक्म छापोली ले जाने का है ।
“बाईसा कहती हैं कि मैं आपसे खण्डेला ले जाने के लिए प्रार्थना करती हूँ ।’
‘‘अच्छा तो बाईं जैसी इनकी इच्छा ।।' और रथ का मुँह खण्डेला की ओर कर दिया । बराती सब रथ के पीछे हो गए । रथ के आगे का पद हटा दिया गया ।
खण्डेला जब एक कोस रह गया तब वृक्षों की झुरमुट में से एक घोड़ी आती हुई दिखाई दी ।
“यह तो उनकी घोड़ी है ।“ दुल्हिन ने मन में कहा । इतने में पिण्डलियों के ऊपर हवा से फहराता हुआ केसरिया बाना भी दिखाई पड़ा ।
“ओह! वे तो स्वयं आ रहे हैं । क्या लड़ाई में जीत हो गई? पर दूसरे साथी कहाँ हैं ? कहीं भाग कर तो नहीं आ रहे हैं ?'
इतने में घोड़ी के दोनों ओर और पीछे दौड़ते हुए बालक और खेतों के किसान भी दिखाई दिए ।
‘‘यह हल्ला किसका है ? ये गंवार लोग इनके पीछे क्यों दौड़ते हैं ? भाग कर आने के कारण इनको कहीं चिढ़ा तो नहीं रहे हैं ?’
दुल्हिन ने फिर रथ में बैठे ही नीचे झुक कर देखा, वृक्षों के झुरमुट में से दाहिने हाथ में रक्त-रंजित तलवार दिखाई दी ।
“जरूर जीत कर आ रहे हैं, इसीलिए खुशी में तलवार म्यान करना भी भूल गए । घोड़ी की धीमी चाल भी यही बतला रही है ।’’इतने में रथ से लगभग एक सौ हाथ दूर एक छोटे से टीले पर घोड़ी चढ़ी । वृक्षावली यहाँ आते-आते समाप्त हो गई थी । दुल्हिन ने उन्हें ध्यान से देखा । क्षण भर में उसके मुख-मण्डल पर अद्भुत भावभंगी छा गई और वह सबके सामने रथ से कूद कर मार्ग के बीच में जा खड़ी हुई । अब न उसके मुख पर घूंघट था और न लज्जा और विस्मय का कोई भाव ।
“नाथ ! आप कितने भोले हो, कोई अपना सिर भी इस प्रकार रणभूमि में भूल कर आता है ।’’ कहते हुए उसने आगे बढ़ कर अपने मेंहदी लगे हाथ से कमध ले जाती हुई घोड़ी की लगाम पकड़ ली ।
और उसी स्थान पर खण्डेला से उत्तर में भग्नावस्था में छत्री खड़ी हुई है, जिसकी देवली पर सती और झुंझार की दो मूर्तियाँ अंकित हैं । वह उधर से आते-जाते पथिकों को आज भी अपनी मूक वाणी में यह कहानी सुनाती है और न मालूम भविष्य में भी कब तक सुनाती रहेगी ।
लेखक : स्व. आयुवान सिंह शेखावत
साभार- ज्ञान दर्पण
रविवार, 22 मई 2016
चुनौती - हठी हम्मीर देव चौहान रणथम्भौर
भाग्य और पुरुषार्थ में विवाद उठ खङा हुआ । उसने कहा मैं बङा दूसरे ने कहा मैं बङा । विवाद ने उग्र रुप धारण कर लिया । यश ने मध्यस्थता स्वीकार कर निर्णय देने का वचन दिया । दोनों को यश ने आज्ञा दी कि तुम मृत्युलोक में जाओ । दोनों ने बाँहे तो चढा़ ली पर पूछा-'महाराज ! हम दोनों एक ही जगह जाना चाहते हैं पर जायें कहाँ ? हमें तो ऐसा कोई दिखाई ही नहीं देता । यश की आँखें संसार को ढूंढते-ढूंढते हमीर पर आकर ठहर गई ।
वह हठ की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
एक मंगलमय पुण्य प्रभात में हठ यहाँ शरणागत वत्सलता ने पुत्री के रुप में जन्म लिया । वह वैभव के मादक हिंडोली में झूलती, आङ्गन में घुटनों के बल गहकती, कटि किंकण के घुंघरुओं की रिमझिम के साथ बाल-सुलभ मुक्त हास्य के खजाने लुटाती एक दिन सयानी हो गई । स्वयंवर में पिता ने घोषणा की-'इस अनिंद्य सुन्दरी को पत्नी बनाने वाले को अपना सब कुछ देना पङता है । यही उसकी कीमत है ।
वह त्याग की चुनौती थी ।
हमीर ने- 'स्वीकार है ।'
त्याग की परीक्षा आई । सोलहों श्रृंगार से विभूषित, कुलीनता के परिधान धारण कर गंगा की गति से चलती हुई शरणागत वत्सलता सुहागरात्रि के कक्ष में हमीर के समक्ष उपस्थित हुई-
'नाथ ! मैं आपकी शरण में हूँ परन्तु मेरे साथ मेरा सहोदर दुर्भाग्य भी बाहर खड़ा है । क्या फिर भी आप मुझे सनाथ करेंगे ।
वह भाग्य की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
अलाउद्दीन की फौज का घेरा लगा हुआ था । बीच में हमीर की अटल आन का परिचायक रणथम्भौर का दुर्ग सिर उँचा किये इस प्रकार खड़ा था जैसे प्रलय से पहले ताण्डव मुद्रा में भगवान शिव तीसरा नेत्र खोलने के समय की प्रतीक्षा कर रहे हों । मीरगभरु और मम्मूशा कह रहे थे- 'इन अदने सिपाहियों के लिये इतना त्याग राजन ! हमारी शरण का मतलब जानते हो ? हजारों वीरों की जीवन-कथाओं का उपसंहार, हजारों ललनाओं की अतृप्त आकांक्षाओं का बल पूर्वक अपहरण, हजारों निर्दोष मानव-कलिकाओं को डालियों से तोड़ कर, मसल कर आग में फेंक देना, इन रंगीले महलों के सुनहले यौवन पर अकाल मृत्यु के भीषण अवसाद को डालना ।'
वह परिणामों की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
भोज्य सामग्री ने कहा-'मैं किले में नही रहना चाहती, मुझे विदा करो ।'
वह भूखमरी की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
रणचण्डी ने कहा-'मैं राजपूतों और तुम्हारा बलिदान चाहती हूँ । इस चहकते हुए आबाद किले को बर्बाद कर प्रलय का मरघट बनाना चाहती हूँ ।'
वह मृत्यु की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
शाका ने आकर केसरिया वस्त्रों की भेंट दी और कहा-'मुझे पिछले कई वर्षों से बाँके सिपाहियों के साक्षात्कार का अवसर नही मिला । मैं जिन्दा रहूंगा तब तक पता नहीं वे भी रहेंगे या नही ।'
वह शौर्य की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
हमीर के हाथों में लोहा बजने लगा । अन्तर की प्यास को हाथ पीने लगे । उसके पुरुषार्थ का पानी तलवार में चढ़ने लगा । खुन की बाढ़ आई और उसमें अलाउद्दीन की सेना डूब गई । मानवता की सरल-ह्रदया शान्ति ने हमीर की तलवार पकड़ ली और फिर उसे छोड़कर चरणों में गिर पङी ।
वह विजय की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा - स्वीकार है ।
अप्रत्याशित विजय पर हमीर के सिपाही शत्रुसेना के झण्डे उछालते, घोड़े कुदाते रणथंभौर के किले की ओर जा रहे थे । दुर्भाग्य ने हाथ जोड़कर राह रोक ली,-'नृपश्रेष्ठ ! मैं जन्म-जन्म का अभागा हूँ । जिस पर प्रसन्न होता हूँ उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है । मैं जानता हूँ मेरी शुभकामनाओं का परिणाम क्या हुआ करता है परन्तु आप जैसे निस्वार्थी और परोपकारी क्षत्रिय के समक्ष सिर झुकाना भी कृतघ्नता है । आप जैसे पुरुषार्थी मेरा सिर भी फोड़ सकते हैं, फिर भी मेरा अन्तःकरण आपकी प्रशंसा के लिये व्याकुल है । क्या मैं अपनी प्रशंसा प्रकट करुं ?
वह विधाता की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
शत्रु पक्ष के झण्डों को उछलते देखकर दुर्ग के प्रहरी ने युद्ध के परिणाम का अनुमान लगा लिया । बारुद की ढेरी में भगवान का नाम लेकर बती लगा दी गई । आँख के एक झपके के साथ धरती का पेट फूट गया । चहचहाती हुई जवान जिन्दगी मनहूस मौत में बदल गई । हजारों वीराङ्गनाओं का अनुठा सौन्दर्य जल कर विकराल कुरुपता से ऐंठ गया । मन्द-मन्द और मन्थर-मन्थर झोंकों द्वारा विलोङित पालनों में कोलाहल का अबोध शिशु क्षण भर में ही नीरवता का शव बन चुका था । गति और किलोलें करते खगवृन्द ने चहचहाना बन्द कर अवसाद में कुरलाना शुरु कर दिया । जिन्दगी की जुदाई में आकाश रोने लगा । सोती हुई पराजय मुँह से चादर हटाकर खङी हुई । कुमकुम का थाल लेकर हमीर के स्वागत के लिये द्वार पर आई-'प्रभु ! मेरी सौत विजय को तो कोई भी स्वीकार कर सकता है परन्तु मेरे महलों में आप ही दीपक जलवा रहे हैं ।
वह साहस की चुनौती थी ।
हमीर ने-'स्वीकार है ।
हमीर ने देखा, कारवाँ गुजर चुका है और उसकी खेह भी मिटने को है, बगीचे मुरझा गए हैं और खुशबू भटक रही है। जीवन के अरमान मिट्टी में मिलकर धुमिल पङ गए हैं और उसकी मनोहर स्मृतियाँ किसी वैरागी की ठोकर की प्रतीक्षा कर रही हैं । मृत्यु ने आकर कहा-'नरश्रेष्ठ ! अब तो मेरी ही गोदी तुम्हारे लिये खाली है ।'
वह निर्भयता की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
महाकाल के मन्दिर में हमीर ने अपने ही हाथों अपना अनमोल मस्तक काटकर चढा़ दिया । पुजारी का लौकिक जीवन समाप्त हो गया । परन्तु उसके यशस्वी हठ द्वारा स्थापित अलौकिक प्रतिष्ठा ने इतिहास से पूछा- क्या ऐसा कोई हुआ है ? फिर उसने लुटे हुए वर्तमान की गोदी में खेलते हुए भविष्य से भी पूछा-'क्या ऐसा भी कोई होगा ? प्रश्न अब भी जिज्ञासु है और उत्तर निरुतर । रणथम्भौर दुर्ग की लुटी हुई कहानी का सुहाग अभी तक लौटकर नहीं आया । उसका वैभव बीते हुए दिनों की याद में आँसू बहा रहा है ।
यह शरणागत वत्सलता की चुनौती है ।
परन्तु इस चुनौती को कौन स्वीकार करें ? हमीर आत्मा स्वर्ग पहुँच गई, फिर भी गवाक्षों में लौट कर आज भी कहती है-'स्वीकार है ।
यश पुरुषार्थ की तरफ हो गया । भाग्य का मुँह उत्तर गया । नई पीढ़ी आज भी पूछती है -
"सिंह गमन सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार ।
तिरिया तेल हमीर हठ, चढै न दूजी बार ।।"
जिसके लिये यह दोहा कहा गया है वह रणथम्भौर का हठिला हमीर कौन था ?
तब अतीत के पन्ने फङफङा कर उतर देते हैं- 'वह भी एक क्षत्रिय था ।'
चित्रपट चल रहा था और दृश्य बदलते जा रहे थे ।।
साभार पुस्तक - बदलते दृश्य ।
लेखक - तनसिंह जी बाङमेर ।।
शनिवार, 21 मई 2016
स्वर्ग में स्वागत : वीरवर योद्धा कल्ला रायमलोत
गुरुवार, 5 मई 2016
मर्यादा-रक्षा
उस दिन विक्रम संवत् 1545 की अक्षय तृतीय का सूर्य ठीक सर पर पहुच चूका था । समस्त वातावरण बसन्त की समाप्ति और ग्रीष्म के आगमन की सूचना दे रहा था । गर्म वायु का एक झोंका आता और बालू के टीलों पर फूलो से लदे हुए फोग हिल उठते और उनकी केशो जेसी लम्बी पत्तियो से जमीन पर झाड़ू सा लग जाता । वायु के झोके के साथ ही कंटीली बंवलियो के पिले पुष्पो की सुगन्धि दूर तक फेल जाती और सुगन्ध रहित रोहिड़ा के सुंदर लाल पुष्प इधर उधर बिखर जाते । ठीक इसी समय जीण माता पर्वत श्रंखला की छाया में एक खेजड़ी के पेड़ के निचे राव शेखा जी घायलावस्था में बैठे थे । उनके सब घावों में टांके लगा दिये गए थे तथापि अब भी उनमे दर्द हो रहा था । वे बार बार अनुचर से मंगवा के पानी पी रहे थे । कल से अब तक उन्होंने कुछ भी नही खाया था अतएव इस समय उनको जोर की भूख लग रही थी । उन्होंने अनुचर से पूछा -
भोजन में कितनी देर है ?
देर नही हे महाराज ! माँस तो पक चूका हे और रोटिया बन रही हे सो अभी लता हु ।
थोड़ी देर में अनुचर ने बाजरे की रोटी पर माँस परोस कर उसे राव शेखाजी के हाथ में दे दिया । बायें हाथ की हथेली पर रोटी को रख कर दाहिने हाथ से वे उसे खाने लगे । रोटी खाते खाते उन्होंने देखा - एक वनबिलाव काली सी कम्बल जैसी किसी वस्तु को घसीट कर ले जा रहा था । उन्होंने पूछा -
वह वनबिलाव क्या घसीट कर ले जा रहा है ? जरा देखो तो उधर जा कर ।
एक आदमी वनबिलाव के पीछे दौड़ा और थोड़ी देर में एक ताजा खाल को उससे छुड़ावाकर ले आया ।
क्या था ? राव शेखाजी ने फिर पूछा ।
महाराज ! मेढे की यह खाल थी जो वह घसीट कर भाग रहा था । अनुचर ने पास ही खड़ी दूसरी खेजड़ी की टहनियों पर सुखाते हुए कहा । राव शेखाजी ने ध्यान से उस खाल को देखते हुए पूछा -
क्या यह माँस इसी मेढे का बनाया है ?
हाँ महाराज !
उनकी मुख मुद्रा गंभीर हो गयी । उन्होंने अपने ऊपर फैली खेजड़ी को देखा , जिस खाट पर वे बैठे थे उसे ध्यान से देखा और फिर हाथ की बाजरे की रोटी और मांस को देखा । उनके ह्रदय में कई भाव तरंगे उठी और वे सब आकार एक ही आशंका में बदल गयी । उनके मस्तिष्क के विभिन्न विचारो ने एक निश्चयात्मक रूप धारण कर लिया । इन सब कारणों से उनके मुख मण्डल पर एक विचित्र परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगा । कुछ ही क्षणों में उन्होंने अपने विगत जीवन के चालीस पचास वर्षो का लेखा जोखा कर डाला और तत्काल ही उनकी विचार श्रंखला वर्तमान को छोड़ कर भविष्य पर जा ठहरी । उन्होंने हाथ के रोटी मांस को एक और रख दिया और फिर हाथ धोकर कुल्ला कर लिया ।
क्या महाराज जीम चुके ? अनुचर ने और रोटी और माँस परोसने के लिए लाते हुए पूछा ।
हाँ । कहते हुए उन्होंने अपने अंगरखे की जेब से एक छोटी सी लाल चीथड़े में बन्धी हुई गठरी निकाली । उसे उन्होंने बार बार ध्यान से देखा और सावधानी पूर्वक उसे जेब में रखते हुए पूछा -
सालजी भाटी कहाँ गए ?
वे घोड़ो के लिए घास का प्रबंध करने के लिए रलावता गाँव में गए हे । अनुचर ने उत्तर दिया ।
उन्हें जल्दी बुलाओ ।
कहते हुए राव शेखा जी ने फिर उस लाल चीथड़े में बन्धी हुई गठरि को जेब से निकाला । थोड़ी देर में उनके उन्नत ललाट पर पसीने की बुँदे चमक उठी और वे व्याकुलतापूर्वक बार बार उसकी और देखने लगे । ठीक ग्यारह वर्षो से तलवार की ही भाँति वह गठरी भी उनके शरीर का एक अभिन्न अंग बन गई थी । वे सदैव उसे सावधानी पूर्वक अपने पास रखते थे । उसके माध्यम से वे किसी दुष्कर कार्य को पूरा करना चाहते थे पर उस दिन उनकी भावभंगी से ऐसा लग रहा था मानो वह कार्य पूरा हुआ नही है । उन्होंने व्यग्रता पूर्वक पूछा -
सालजी को बुलाने भेजा हे किसी को ?
हाँ महाराज ! उत्तर मिला ।
वे फिर अपने गत जीवन का सिंहावलोकन करने लगे । विगत ग्यारह वर्षो का इतिहास कुछ ही क्षणों में उनके मानस पटल पर अंकित होता हुआ उनकी आँखों के सामने से निकल गया ।
यह ग्यारह वर्षो का इतिहास भी बहुत कुछ उसी गठरी से प्रभावित रहता आया था । उस गठरी की घटना ने राव शेखाजी जे जीवन प्रवाह को एक विशिष्ट दिशा की ओर उन्मुख कर दिया था । ग्यारह वर्षो से वे एक दृड़ व्रती साधक की भांति सब बाधाओ को कुचलते हुए उसी दिशा में बढ़ रहे थे ।
उस दिन से लगभग ग्यारह वर्ष पहले वे एक दिन प्रातः काल के समय अपनी राजधानी अमरसर से कुछ ही दूर उत्तर की और एक चबूतरे पर बैठे हुए अपने घोड़ो की सिखलाई का निरीक्षण कर रहे थे । कई घोड़ो को ऊँचा और लंबा कूदाने का अभ्यास कराया जा रहा था और कइयों को भाले की लड़ाई की शिक्षा दी जा रही थी । दौड़ते हुए घोड़ो की टापो से मिट्टी ऊपर उठ कर आकाश में छा गयी थी । उन्होंने अपने प्रिय घोड़े ' अबलख ' को अपने पास मंगवाया । वे स्वयं उसे दौड़ा कर और फेर कर अपनी इच्छा अनुसार सुशिक्षित करना चाहते थे । काफी समय से अनुचर घोडा सजाये पास में ही खड़ा था पर राव शेखाजी दूसरे घोड़ो की दौड़ देखने में इतने तन्मय हो रहे थे कि उन्हें अबलख का ध्यान ही नही रहा । चंचल अश्व अबलख ने ही हिनहिना कर अपने स्वामी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया ।
अभी आया अभी आया । कहते हुए वे उठने ही वाले थे कि उनके सामने पीछे से आकर घूँघट रहित , खुले सिर और विकराल रूप बनाये एक नवयुवती खड़ी हो गई ।
वे उससे कुछ पूछना ही चाहते थे कि पहले वह पूछ उठी -
शेखाजी आप ही है ?
हाँ बाला , शेखा नाम मेरा ही है ।
यह सुनते ही उस स्त्री ने अपनी ओढ़नी के सिर से बंधी हुई गठरी को खोला और उसमे से मुट्ठी भर खाकी मिट्ठी लेकर उसे राव शेखाजी के ऊपर फेंक दिया ।
वह मिट्ठी उनके श्वेत अंगरखे को मेला करती हुई चबूतरे पर फैल गयी । जब राव शेखाजी ने उसकी ओर देखा तब वह फुट फुट कर रो रही थी ।
है यह क्या ? यह पागल कौन है ? यह क्या किया इसने ? आदि वाक्य कहते हुए पास खड़े हुए सब सरदार चौकन्ने हो गए ।
बाला , तुमने यह मिट्ठी मेरे ऊपर क्यों फेकी है ? तुम्हे क्या शिकायते है सो मुझसे कहो ।
............ दुष्टो ने मेरा अपमान किया और मेरे माँग के सिंदूर को धो डाला ........ हिइं ......हिइं ........ हिइं....... ।
घबराओ नही ! तुम्हारा किस दुष्ट ने अपमान किया है और किसने तुम्हारे पति को मारा है ? मुझे साफ साफ कहो ।
.......हिइं ........ हिइं....... हिइं...... वे मेरे पीहर मारवाड़ से मुझे लेकर आ रहे थे । मार्ग में झुँथर गाव के तालाब पर हम लोग घूप टालने के लिए ठहरे । वह तालाब खुद रहा हे ......हिइं ........ हिइं....... हिइं...... वहा ऐसा नियम बना रखा है क़ि उधर से निकलते हुए प्रत्येक यात्री को एक टोकरी मिट्टी तालाब से बहार डालनी पड़ती है । उन्होंने ......हिइं ........ हिइं....... अपने हिस्से की एक टोकरी मिट्टी बाहर फेंक दी । " जब उन लोगों ने पूछा कि इस रथ में कोण है तो उन्होंने उत्तर दिया कि इसमे मेरी स्त्री है । ......हिइं ........ हिइं....... उन लोगों ने कहा कि तुम्हारी स्त्री से भी मिट्टी बाहर डलवाओ । उन्होंने उत्तर दिया कि उसके बदले मैं दो टोकरी मिटटी बाहर फेंक दूंगा
पर वो माने नही । .....
इस पर कुछ कहा सुनी हो गयी और उनमे से एक दुष्ट ने आगे बढ़ करे मेरे रथ का पर्दा हटा दिया और हाथ पकड़ कर वह मुझे बहार घसीटने लगा । यह देखा कर उन्होंने उस दुष्ट का उसी समय तलवार से सिर काट दिया । तब उन सबने मिल कर उनको भी ........ ......हिइं ........ हिइं....... हिइं......मार दिया ......हिइं ........ हिइं....... हिइं...... और मुझ से जबरदस्ती मिट्टी बाहर डलवाई वही मिटटी मैं अपनी ओढनी में बाँध कर लाई हूँ । ......हिइं ........ हिइं....... हिइं ।
"क्या तुम मेरे राज्य की प्रजा हो ? "
" नही । "
"और तुम्हारे साथ यह अत्याचार भी मेरे राज्य में नही हुआ है । "
" नही ।"
"अत्याचार करने वाला भी मेरे राज्य का निवासी नही है ।"
" नही । "
" तो बताओ मैं क्या कर सकता हूँ । "
" कुछ नही कर सकते इसलिये तो यह मिटटी आपके सिर पर डाली है । धिक्कार है आपको । वीरता और रजपूती का बाना पहने हुए फिरते हो और जब एक अबला के अपमान का बदला लेने का प्रश्न उठता है तब अपने राज्य और पराये राज्य की सिमा का बहाना करने लग जाते हो । " इस बार उस स्त्री के स्वर में दृढ़ता आ गयी थी ।
राव शेखाजी उसी मुद्रा में कुछ समय तक चुप रहे । वे मन ही मन कुछ सोच रहे थे कि इतने में वह स्त्री फिर बोल उठी -
" मेने आपकी वीरता की कहानिया सुन रखी थी इसलिए यहाँ आई थी । यदि आप एक अबला के अपमान का बदला नही ले सकते , स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा नही कर सकते तो मैं दूसरे किसी वीर पुरुष को ढूँढती हूँ । यह पृथवी वीरो से अभी खाली नही हुई है । " यह कहते हुए वह वहाँ से जाने को तत्पर हुई ।
पर इन थोड़े से मार्मिक शब्दों में उस स्त्री ने राव शेखाजी के सामने कर्तव्य का एक विस्तृत अध्याय खोल कर रख दिया ।
"ठहर बाला ! तुम्हारे अपमान का बदला अवश्य लिया जायेगा - स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा अवश्य होनी चाहिए और वह होगी ।" अंतिम शब्द राव शेखाजी ने जोर देकर कहे ।
" तुम्हार यह अपमान और तुम्हारे पति का वध किसकी आज्ञा से हुआ है ?"
"वहाँ के राजा कोलराज गौड़ की आज्ञा से " ।
" बाला निश्चिन्त रहो । जब तक कोलराज गौड़ का कटा हुआ सिर लाकर तुम्हारे चरणों में रख नही दूँगा तब तक अन्न जल ग्रहण नही करूँगा । ...... और जब तक स्त्री जाति का अपमान करने वाले इस प्रकार के दुष्टो का नाश नही कर डालूँगा तब तक चैन से विश्राम नही लूँगा । " राव शेखाजी ने यह भीषण प्रतिज्ञा कर डाली ।
सालजी भाटी ने कहा -
"महाराज शकुन अच्छे हुए है । घर बैठे हुए मिटटी आई है इसलिए आपका इस भूमि पर अधिकार होगा ; ...... यह मिटटी चारो ओर चबूतरे पर फेल गई है सो आपका यश और प्रताप भी चारो ओर फैल जायेगा , पर यह मिटटी आपके सीने पर गिरी है सो आपका शरीर इसी निमित काम आएगा । "
" इसकी कोई चिंता नही है सालजी । " राव शेखाजी ने दृढ़ता से उत्तर दिया ।
सालजी ने कहा - " इस मिटटी को एक गठरी में बाँध कर आप सदैव अपने पास रखे । यह शुभ मिटटी है । "
दुसरे ही क्षण उन्होंने अपने ऊपर फेंकी गयी उस मिटटी को झाड़ कर लाल कपडे के एक टुकड़े में बाँधा और उसे अपने अंगरखे की जेब में रख लिया । उसी दोपहर को चुने हुए 500 राजपूत और पठान घुड़सवारों ने अपने घोड़ो का मुह दक्षिण - पश्चिम की ओर करके एड लगा दी । लोगो ने घोड़ो की टांपो की रगड़ से धुलि का एक बादल ऊपर उठते हुए देखा ।
तीसरे दीन प्रातःकाल कोलराज का कटा हुआ सिर उस स्त्री के चरणों में पड़ा हुआ था । उसने अपनी प्रतिहिंसा की भावना शान्त करने केलिए उस सिर को अमरसर के दरवाजे में चुनवाने का आग्रह किया । अंत में वह सिर अमरसर के दुर्ग के बाहरी दरवाजे में चुनवा दिया गया ।
उस अबला के प्रतिशोध की अग्नि अब शांत हुई । उसके अपमान का बदला चूका दिया गया था ,......... स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा जा प्रमाण मूल चूका था पर दूसरी ओर इससे भी भीषण प्रतिशोध की अग्नि सुलग चुकी थी । जब कोलराज के अन्य भाई गौड़ राजाओ और सरदारो को यह ज्ञात हुआ कि उनके भाई का सिर अमरसर के दरवाजे में चुना गया है तब उनके क्रोध का ठिकाना न रहा । गौड़ जेसी वीर और पराक्रमी जाति यह अपमान चुपचाप सहने को तैयार नही थी । एक व्यक्ति का अपमान समस्त गौड़ जाति का अपमान बन गया । इस अपमान का बदला लेने के लिए समस्त गौड़ राव शेखाजी के कट्टर शत्रु बन गए । उस समय मकराने से लगा कर घाटवे तक का समस्त भू खंड गोंडों के अधिकार में था । मारोट , घाटवा , भावन्ता , सरगोठ आदि उनके छोटे पर शक्तिशाली राज्य थे । उन सब ने मिलाकर राव शेखाजी पर आक्रमण कर दिया । पर राव शेखाजी जैसे प्रचण्ड वीर के सामने वे ठहर नही सके । अब राव शेखाजी ने भी उनकी शक्ति को समूल नष्ट करने का निश्चय कर लिया था । वे भी प्रतिवर्ष उन पर चढाई करने लगे और प्रत्येक युद्ध में उनसे बहुत से गाँव छीन कर अपने राज्य में मिलाने लगे । इस प्रकार इन ग्यारह वर्षोंमें ग्यारह बार गोंडों से लोमहर्षक युद्ध करचुके थे । इन युद्धों में इनके बहुत से सम्बन्धी , भाई बेटे और सूर सामन्त काम आ चुके थे ।
खुले युद्ध में शेखाजी को परास्त करना गोंडों के लिए असम्भव बन गया था अतएव उन्होंने इस बार निति और छल से काम लेना ही उचित समझा । सब गौड़ राजाओ और सरदारो ने मिलाकर राव शेखाजी को घाटवा में आकर धर्म युद्ध करने का निमन्त्रण दिया । रण निमन्त्रण एक राजपूत के लिए विवाह निमन्त्रण से भी अधिक उल्लास और आनंदमय होता है । राव शेखाजी ने उस निमन्त्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया । दोनों ओर से युद्ध की तैयारियां होने लगी ।
गोंडों ने इस छल और कौशल से लड़ना ही उचित समझा । उन्हीने अपने 500 चुने हुए सेनिक घाटवा से दो कोस दूर अमरसर के मार्ग पर राव शेखाजी पर अचानक आक्रमण करने के लिए जंगल में छिपा दिए थे । राव शेखाजी आखेट खेलते हुए अपनी मुख्य सेना के कुछ साथियो सहित आगे निकल चुके थे । इस प्रकार उनको अकेला देख कर उन लोगो का उत्साह और भी बढ़ गया । उन्होंने अचानक उन पर मार्ग के दोनों ओर से आक्रमण कर दिया । राव शेखाजी अपने थोड़े से साथियो सहित उनसे वीरता से लड़ते रहे और जब तक उनकी मुख्य सेना वहाँ तक पहुँची तब तक उन्होंने बहुत से शत्रुओ को तलवार के घाट उतार दिया था पर इस युद्ध में उनके भी अनेक घाव लगे थे इसलिये उनके सरदार उनको वहाँ से उठा कर जीणमाता के पहाड़ की तलहटी में ले आये थे । उसी स्थान पर उनके घावो की मरहम पट्टी की गयी थी ।
दूसरे दिन वे कुछ स्वस्थ से हुए तो बाजरे की रोटी और मेढे का माँस खाने ही लगे थे की अपने आस पास के संयोग को देख कर गंम्भीर बन गए थे ओर इसलिए ग्यारह वर्ष पहले जेब में रखी हुई उस लाल कपडे की गठरी को वे जेब से निकल कर बार बार देख रहे थे ।
वे बहुत देर तक उसी अवस्था में बेठे रहे । कभी उस गठरी को देखते कभी खेजड़ी और खाट को ।
इतने में सालजी भाटी घोड़ो के लिए बैल गाडियो में घास लेकर आ गए । उन्होंने सालजी को पास बुलाया और मुस्कराते हुए कहा -
" भाटी सरदार ! आपके शकुन आज सच्चे हो रहे है ।"
" कौनसे शकुन महाराज ? "
" वे ही शकुन जो आज से ग्यारह वर्ष पहले देखे थे ।"
" आज क्या , वे तो इतने लम्बे वर्षो से सच्चे हो रहे है , इसलिये आपकी विजय होती जा रही है । "
" पर आज तो उनके अंतिम चरण भी सच्चे होनेे जा रहे है सालजी ।"
" ऐसा दिखाई तो नही दे रहा महाराज ।"
" दिखाई दे रहा है सालजी । मेरी मृत्यू के विषय में की गयी भविष्यवाणी भी अब सच्ची होने जा रही है । देखो सब संयोग अपने आप ही मिल रहे है ...... खेजड़ी की छाया , खींप की खाट , काले मेढे जा मांस , बाजरे की रोटी । यही तो भविष्यवाणी थी न , कि जिस दीन इस प्रकार का संयोग मिलेगा उसी दिन मेरी मृत्यू हो जायेगी । उस मिटटी के कारण शरीर में घाव भी अनेक लग चुके है । अब उनमे असहनीय वेदना हो रही है । आज अक्षय तृतीया का शुभ दिन है इसलिए यह भावुष्यवानी आज ही सच्ची होनी चाहिए । आप सब लोगो को मेरे पास बुला लीजिए । "
बात की बात में सब लोग उनकी खाट के पास आकर बैठे गए । उन्होंने सब को सम्बोधित करते हुए कहा -
" सरदारो ! मेने अपने जीवन में पचासों युद्ध किए है और आप लोगो की वीरता के कारण प्रत्येक युद्ध में विजयी रहा हु । पिछले वर्षो में ही ग्यारह भयंकर युद्ध तो गोंडों से ही लडने पड़े है । मैं गोंडों
से कभी नही लड़ता पर एक स्त्री के अपमान का बदला लेने का प्रश्न था , स्त्री जाति की मर्यादा सुरक्षित रखने का दायित्व था । इसी गठरी की मिटटी ने मुझे अपने कर्तव्य की प्रेरणा दी थी । मेरा काम अब भी अधूरा है , गोंडों की शक्ति क्षीण अवश्य हुई है पर वह समाप्त नही हुई है । उन्होंने धर्म का निमन्त्रण देकर कल घाटवा में ही किस प्रकार से छलपूर्वक आक्रमण कर दिया था । ....... बदला अभी पूर्ण नही हुआ हे । मेरी अब अंतिम घडी आ पहुची है । मेरी मृत्यु के समय घटित होने वाले सब संयोग अपने आप एकत्रित हो गए है , इसलिये अब कोण इस मिटटी की पोटली संभालेगा , कौन गोंडों से बदला लेगा ? "
राजकुमार ने आगे बढ़ कर उस मिटटी की पोटली को अपने हाथ में ले लिया ।
सरदारो ने एक स्वर में आश्वासन दिया -
" हम बदला लेंगे महाराज ! " राव शेखाजी ने संतोष की दृष्टि से चारो ओर देखा । उनके मुख मण्डल पर शांति , संतोष और तेज की आभा उमड़ आई । उन्होंने ईश्वर का ध्यान करते हुए अपने नेत्र बंद किये और दूसरे ही क्षण उनके सिले हुए घावों में से अचानक रक्त प्रवाह होने लगा । उसने खींप की उस खाट को पार करके नीचे को ओर समस्त बालू को भिगो दिया । उस रक्त रंजीत बालू का प्रत्येक कण आंधी के साथ उड़ कर शेखावाटी प्रान्त की चप्पा चप्पा भूमि पर फैल गया ......... इसी प्रेरणा और सन्देश के साथ ............
" स्त्री जाति की मर्यादा की रक्षा अवश्य होनी चाहिए । "
ममता और कर्तव्य
लेखक :- स्वर्गीय आयुवान सिंहजी हुडील