गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

होनहार के खेल

जैसलमेर के तीन शाके                    
होनहार के खेल

कभी इस मार्ग पर घोड़े दौड़ते थे , कभी ऊंट दौड़ते थे , पर आज मोटरे दौड़ रही है | कभी इस मार्ग पर फौजे आती थी , कभी नगारे बजते थे , और आज सिर्फ यात्री आ रहे है और यात्री जा रहे है | कभी इस मार्ग पर जिन्दगी के कारवां गुजरते थे , कभी मौत के हरकारे दौड़ते थे पर आज न तो मौत दौड़ रही है न जिन्दगी , केवल सुनसान बैठा हुआ है | अपनी ठुड्डी पर मुट्ठी का अग्र भाग दिए सोच रहा है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'

खुरासान का बादशाह फरिद्शाह दो बार करारी पराजय खा चूका था , इसीलिए महाराजा गज ने गजनी नगर और उसका किला बसाया | कुचला हुआ सांप क्रोधित होकर प्रत्याक्रमण कर सकता है और हुआ भी वही | इस बार रूम का ममरेज शाह भी साथ था | दो बार हार कर गया , किन्तु तीसरी बार शालिवाहन को अपने पिता की रणभूमि ही छोड़कर पंजाब आना पड़ा | आज गाथाओं से सरोबार यह बालू रेत के टीबे और व्यथाओं को समेटे यह पथरीले मगरे अफगानिस्तान की हिम-मंडित और फलों से लदी हुई पहाड़ियों और घाटियों को याद कर सोचते है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'

पंजाब में शालिवाहन ने स्यालकोट बसाया | गजनी तो वापस भी आई , परन्तु अंत में स्यालकोट को भी ले गयी | अपने दादा के वतन को छोड़कर महाराजा भाटी ने भटनेर का किला बसाया | मेरे आस पास खड़े ये सूखे खेजडे , फोग की पसरी हुई झाड़ियाँ और झुलसे हुए आकडे पंजाब के हरे- भरे और लहलहाते मैदानों की याद में वेदना के सागर सुखा रहे है और इधर मेरी स्मृति में भी कांटे चुभ रहे है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'

लेकिन होनहार ने क्या किया है ? कुछ नहीं ! उसने तो सिर्फ नाम बदलें है | भटनेर वहीँ है , नाम बदल गया है - हनुमानगढ़ | भाटी के प्रपोत्र महाराजा केहर ने सिंध में केहरगढ़ बसाया था , आज उस सिंध का सिर्फ नाम बदल गया है - पकिस्तान | होनहार तो सिर्फ नाम बदला करता है | कभी प्रभात को संध्या कर देता है और कभी संध्या को प्रभात | कभी किसी को सम्राट कह देता है , फिर पलट कर उसी को फकीर कह देता है | होनहार वही है , उसकी कलम भी वही है , सिर्फ कागज बदल रहे है , रंग बदल रहे है , नाम बदल रहे है , पात्र और स्थान बदल रहे है पर उनके साथ जमाने भी बदल रहे है |

केहर के पुत्र महाराजा तणुराज का बनाया हुआ तनोटगढ़ खडाल में अभी तक बना हुआ है , पर शासकों के नाम बदल गए | तणु का पुत्र विजयराज चुंडाला था , जिसने भटिंडा के वरिहाहों के दांत खट्टे कर दिए पर होनहार पलटा और उन्ही वरिहाहों ने घात कर विजयराज को मार डाला और उसके पुत्र देवराज पर आफत के पहाड़ चुन दिए | होनहार ने नाम और ज़माने पलट दिए और इतिहासकार सोचता है - ' होनहार ने क्या कर डाला ?'

होनहार से जब पहली बार मैंने बदला लेने की ठानी तब सर्वप्रथम देवराज से उसकी मुटभेड हुई | होनहार ने उसके पिता विजयराज को वरिहाहों से कपटपूर्वक मरवा डाला , तो इसने वरिहाहों का समूल नाश का होनहार के मुंह पर पहला थप्पड़ मारा | होनहार ने उससे तनोट का किला छुड़ाया , तो इसने देरावर बसाया , बदले में भटनेर और भटिंडा हाथ किया और ब्याज में लुद्र्वा को भी छिनकर होनहार के मुंह पर दूसरा थप्पड़ मारा | होनहार ने इसे अपने पैत्रिक राज्य से भ्रष्ट कर महाराजा से दर-दर का भिखारी बना दिया , पर इसने पुरुषार्थ और बल-विक्रम से पुन: महाराजा ही नहीं , महारावल बनकर होनहार के मुंह पट तीसरा थप्पड़ कस दिया |

पुरोहित लांप के पुत्र रतना को इसके साथ भोजन करने के कारण जाति बहिष्कृत किया गया , किन्तु सन्यासी बने सिंहस्थली के इसी पुरोहित को सोरठ से बुलाकर इसने इसकी नई जाति रत्नू चारण बनाकर होनहार के मुंह पर चोथा थप्पड़ मार दिया | मेरे हाथों होनहार ने इतनी चुभती हुई और बेशुमार थप्पड खाई कि उसका मुंह पीड़ा और शर्म से लाल हो गया था | मेरी तो फिर भी शिकायतें रही पर देवराज ने कभी शिकायत नहीं की , कि होनहार ने क्या कर डाला ?

देवराज की चौथी पीढ़ी पर भोजदेव ने शहाबुद्दीन गोरी की फ़ौज का सामना किया उर होनहार ने लुद्र्वा की रौनक सदा के लिए छीन ली | पर जैसल ने भोजदेव के उत्तराधिकारी के रूप में मुझ जैसलमेर दुर्ग को बसाया | संवत १२१२ से आज तक लगभग ८०० वर्षों में मैं इसी स्थान पर खड़ा हुआ , रास्तों को बदलते हुए , धरती को बदलते हुए , इंसान और इतिहास को बदलते हुए देख रहा हूँ | कभी इस जगह घोड़ों और ऊँटो को दौड़ते देखा था आज उन्ही राहों पर मोटरों को दौड़ते देख रहा हूँ | और कभी नगारें बजाती फौजों को देखा था और आज सिर्फ यात्रियों को आते जाते देख रहा हूँ | कभी जिन्दगी के कारवां और मौत के काफिले देखे थे और आज तकदीरों की उथल-पुथल को देख रहा हूँ , जीवित कौम के अंदाजे और नियति की अदाएं देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ - ' होनहार ने क्या कर डाला ? '

एक दिन बड़ी अवेर होनहार ने मेरा दरवाजा खटखटाया | दिन ढल चूका था और संध्या समीप थी | जिसक के पौत्र और राव केल्हण के पुत्र चाचकदेव ने देखा बाल सफ़ेद आ रहे है , जरा ने अपना सन्देश भेज दिया है , अब मृत्यु का मुकाबला खाट पर किया जाय अथवा होनहार को दो हाथ दिखाकर किया जाय | जब चाचकदेव ने मेरी और प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा , तब मैंने भक्तिभाव से उत्तर दिया था - ' नहीं , मेरे मालिक ! होनहार के समक्ष झुको नहीं , उससे रणभूमि में लोहा लो ताकि आने वाली पीढ़ी को मैं कह सकूँ -कि उनके पूर्वज खाट पर पड़े मौत का इन्तजार नहीं किया करते थे ,

किन्तु मौत की खाट पर बैठ कर उसका गला दबोच लेते थे |' और मेरा मालिक मुल्तान के लंगा को रणदान देने गया ' हम ५०० सवार लेकर सिर्फ होनहार से लड़ने आ रहे है | कृपा पूर्वक हमारा रणदान स्वीकार करो | ' ऐसे बांके दानी न लंगा ने कभी देखे और न कभी सुने | मुल्तान का बादशाह तिगुनी फ़ौज लेकर आया उसने देखा - चाचकदेव ने मुट्ठी भर सेना से वास्तव में होनहार के छक्के छुड़ा दिए | रणक्षेत्र में मुल्तान का बादशाह सो गया , चाचकदेव और दोनों सेना के सिपाही सो गए | मौत के समय मेरे मालिक खाट पर नहीं , मौत का सिरहाना देकर कर्तव्य -क्षेत्र में सोया करते थे , फिर होनहार को क्या दोष दूँ कि उसने क्या कर डाला ?

चाचकदेव के पौत्र महारावल जैतसी का राजतिलक संवत १३३२ में हुआ | एक सौ बीस वर्ष का मैं भी जवान हो गया था | मैंने भी सोचा -यौवन की इन उछलती हुई घड़ियों में मौत की ठिठोली कर मैं भी दो एक कहकहे लगा दूँ | महारावल के राजकुमार मूलराज और रतन सिंह को कहा - ' मेरी सगाई करो |' वे नारियल लेकर दूर-दूर तक फिर आये | भक्खर कोट से दिल्ली जाने वाले अल्लाउद्दीन के भरे खजाने लुट लाये | अन्तोत्गात्वा संवत १३६१ में बादशाह अल्लाउद्दीन की और से कमालदीन टीका लेकर आया | बारह वर्ष तक वे मुझे घेरे बैठे रहे और अंत में हारकर वापस जा रहे थे , कि मैंने मूलराज व रतन सिंह से कहा - ' ये तो जा रहे है , फिर मैं तो कुंवारा ही रहूँगा |' तब संवत १३७३ में दरवाजे खोले गए |

मेहमान और मेजबान खूब जी भरकर मिले | इधर तलवारों से तलवारें मिल रही थी , भालों से भाले मिल रहे थे , तीरों से तीर और घोड़ों से घोड़े मिल रहे थे | मिल-मिल कर लौट जाते थे, मेरे चरणों पर | मेरे भाल पर उस दिन अनगिनत टीके लगाये गए | कुमकुम इतना बिखर गया कि उससे धरती और आकाश लाल हो गए , मेरी खुशकिस्मती और बदनसीबी भी लाल हो गयी अंत में वह बहने लगी | निश्चय ही कालिका का खप्पर फूट गया था या फिर भर कर छलछला गया था | होनहार घबडा उठा - बंद करो ये उत्सव | लेकिन मैंने भी होनहार को दंग करने की ठानी थी |

बांह पकड़कर मैं उसको अंत:पुर के भीतर ले आया और उस प्रज्वलित अग्नि को दिखाया , जिसमे रनिवास खुद रहा था | विधाता का दिया हुआ , बुद्धि को बेहोश करने वाला सोंदर्य , कुल-परम्परा का दिया हुआ मस्तक को गर्वोन्नत करने वाला समस्त शील और किस्मत का उदारता से लुटाया हुआ सुहाग भी धधकती हुई अग्नि के भूखे पेट में समा रहा था |

मैंने होनहार से कहा - ' जरा देख ! हिमालय में हड्डियाँ गलाने , काशी में करवट लेने और असंख्य वर्षों तक सृष्टि दहलाने वाली तपश्चर्या के बाद बड़ी कठिनाई से प्राप्त होने वाले राज्य श्री के वैभव -सुख- सुहाग और संपत्ति को मेरे मालिक कितनी बेपरवाही से लुटा रे है |' होनहार क्या देखता ? उसने तो आँखे बंद करली थी और उसकी बंद आँखों से दर्द भरे आंसू टपक रहे थे | सिर धुनते उसने बस इतना ही कहा - ' हृदयहीन ! यह कैसी तेरी सगाई ? यह कैसा उत्सव ? उफ़ ! तुमने यह क्या कर डाला !'

जब सभी मेजबान चले गए , तब चंद मेहमान शेष रह गए और वे भी अंत में तंग आकर ताला लगाकर चले गए | सुनसान मेरा साथी बना | उसने भी एक दिन विदा ली और दुदा और तिलोकसीं आये | सिंहासन हाथ लगाते ही मैंने चेतावनी दी - ' सावधान ! मेरे विवाह का वायदा करो, तो इस सिंहासन पर बैठ सकते हो |' उन्होंने कहा -स्वीकार है | दर्पण ने एक दिन दूदा को कहा - अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो उसे पूरी करने के तुम्हारे दिन ढल रहे है - बालों में एक सफ़ेद बाल आ गया है | ' मेरे मालिक मेरी शादी की तैयारियों में जुट गए | कांगडे वालों की घोड़ियाँ ले आये | लाहोर के पास से बाहेली गूजर की भैंसे और सोने की मथानी ले आये | बादशाह के घोड़ों की सौगात ले आये | आखिर फिरोजशाह तुगलक ने लग्न-पत्री स्वीकार की | फ़ौज बाहर पड़ी रही ,आखिर धेर्य ने मेरी मदद की और संवत १४२८ की विजया दशमी का महूर्त निकल आया |

उस दिन तेल चढ़ने का मुहूर्त था | अग्नि प्रज्वलित की गई और रनिवास फिर उसी आग में चला गया | दुसरे दिन सुबह एकादशी को मैं चंवरी चढ़ने वाला था | तैयारियां पूरी हो चुकी थी | बारातियों ने केसरिया वस्त्र धारण किये | सब ने कसुम्बा पिया , गले लगे और मेरी एतिहासिक बारात के अनमोल बाराती नीचे उत्तर पड़े | शहनाईयां चीख पड़ी , और मारू सिसकने लगे | जीवन के सागर में ज्वार आ रहा था - लहरें -यौवन की लहरें , उमंग , आनन्द और जीवन की लहरें मौज में आई हुई थी |

धरती से उछलकर कभी आकाश के गले में बान्हे डाल रही थी और कभी आकाश से उतर कर धरती को चूम रही थी | घोड़ों की टापों से उड़ रही झीनी-झीनी खेह में पवन गालों में हाथ दिए प्रेम के मधुर-मधुर गीत गा रहा था | मुझ पर चंवर ढुलाई गई , मेरी पीठी की गई , वस्त्रों से सुसज्जित किया गया | उस दिन मैं फूला नहीं समां रहा था | होनहार तो ईर्ष्या से जलभुन गया |

आखिर चंवरी चढ़ी , भांवरे भी खाई | थोड़ी देर के बाद देखा -धूमधाम समाप्त हो गई , बाराती और बारात भी गई , मांढ भी सुनी पड़ी है | न उत्सव करने वाले रहे , न उत्सव देखने वाले रहे | परवाने जल चुके थे , शमाएं बुझ चुकी थी, मनुहारें बंद हो गयी और महफ़िल उठ गई | सुहागरात की सतरंगी शय्या पर दुल्हन भी नहीं , केवल उसका खींचतान से फटा हुआ दामन पड़ा था | मुझे तो मालुम ही नहीं हुआ , कि मैंने मौत से शादी की थी या जिन्दगी से | उस फटे हुए दामन से तो मेरा कफ़न भी नहीं बन सकता था | भयंकर सुनसान को देखकर मुझे होनहार के खेल का सही अर्थ मालुम हुआ और मैंने चीख उठा - ' निर्दयी होनहार ! तुमने यह क्या कर डाला ?'

पर होनहार क्या जबाब देता ? उसने आज तक मेरे किसी सवाल का उत्तर नहीं दिया है | उत्तर तो होनहार की शरारत का मैंने दिया था | महारावल लूणकरण के समय होनहार ने छल करना चाहा था | मैंने अपने मालिक को कहा - ' विवाह तो हो गया पर मेरा गौना कब होगा ? '

लूणकरण ने कहा था - ' क्यों अधीर होते हो , अवसर आने पर यह काम मैं कभी भी करवा दूंगा |' वह अवसर तब आया , जब होनहार ने कंधार के अमीर , अमीरअली खां के हाथों संवत १६०७ में डोलियाँ भेजी , कि यह अंत:पुर में मिलना चाहती है | पर मैंने प्रथम द्वार पर ही पहचान लिया , कि होनहार मुझसे शरारत करना चाहता है | उस बेचारे से समझने में भूल हो गयी , कि मैंने मौत से कितनी बार शरारतें की है | इस बार भी वही केसरिया बाना, वही कसूम्बा , वही राग , वही रंग | महारावल लूणकरण अपने चार भाईयों और तीन पुत्रों सहित मेरे गौने के लिए परलोक चले गए और वहां से मेरे लिए दुल्हन भेज दी |

मैंने उसे अंत:पुर में भेज दिया और प्रथम मिलन के मादक क्षणों की उत्सुकता पूर्वक प्रतीक्षा करने लगा | द्वारपाल ने देखा चिता सजाने और आग लगाने जितना समय ही नहीं रहा , तब समस्त अंत:पुर को तलवार के घाट पर धरा स्नान करवा दिया गया | और मेरी दुल्हिन भी प्रेम की दुनिया बसाकर उसी में विरह की आग लगाकर चली गयी | तुम इसे आधा शाका ही कहोगे , पर मेरे लिए पुरे से अधिक था | मेरा घर तो इसी शाके में बन कर उजड़ गया | अब भी खड़ा हुआ मैं संसार में इस बात का गवाही हूँ कि जैसलमेर में ढाई नहीं तीन शाके हुए |

चितौड़ में तीन शाके हुए , यह कहकर मुझे तुम उसकी तुलना में छोटा भले बता लो | मुझे चितौड़ से ईर्ष्या बिलकुल नहीं है , पर होनहार को कभी मुझसे ऊँचा नहीं बता देना | मुझे अपनी आन और मान प्रिय है और इसीलिए रावल लूणकरण की पुत्री उमादे जीवन भर अपने पति मालदेव का परित्याग कर संवत १६१९ की कार्तिक सुदी १२ को उसी पति के पीछे सती हुई | मुझे छोटा बताकर भी तुम मेरे खानदानी रक्त को छोटा मत बता देना | मैंने अपनी खानदानी आन के लिए होनहार का सदैव पीछा किया | वह जब कभी मुझे दिखाई दिया , मैंने खदेड़ कर उसे भगा दिया और उसके पदचिन्हों पर पुरुषार्थ का पानी छिड़क कर तलवारों की छांह में इतिहास और संस्कृति के पौधे लगाए | मेरी सीमा में मैंने होनहार को कभी सांस नहीं लेने दी |

आखिर तंग आकर वह भाग खड़ा हुआ और सुदूर पश्चिम सीमा पर बलोचों से मिल गया | जब बलोचों ने होनहार की शह पाकर उपद्रव खड़े किये , तब मैंने फिर उसका पीछा किया | रोहिड़ी के पास संवत १७५८ में उसके और महारावल अमर सिंह के दो दो हाथ हुए | धार से धार और अणि से अणि जब बजने लगी , तो पृथ्वी त्राहि -त्राहि करती हुई मेरे चरणों में गिर पड़ी और आकाश कांपते हुए सिसकियाँ भरकर कहने लगा - आखिर तुम क्यों होनहार के पीछे पड़े हो ?

इस मनुहार पर मैं लौट पड़ा | लौटते समय आषाढ़ सुदी अष्टमी को उसी युद्ध-क्षेत्र से कुछ दूर पर मेरी कुल-ललनाओं को मैंने सती होते देखा | अब कोई क्या कहेगा कि मैंने यह क्या कर डाला और क्या नहीं कर डाला |
उस दिन के बाद निश्चिन्त होकर ढाई सौ वर्ष तक मैंने खूब भोग भोगे |

उस दिन के बाद निश्चिन्त होकर ढाई सौ वर्ष तक मैंने खूब भोग भोगे | अवर्णीनीय एश्वर्य का उपभोग किया | रंगीन और हसीन महफ़िलों में डूब गया , पर मुझे क्या मालूम था , कि भोग और एश्वर्य के उन मादक प्यालों में होनहार ने ऐसा जहर घोल दिया , कि जिससे क्षण-क्षण मृत्यु समीप आने लगी | अज मैं स्पष्टतया देख रहा हूँ - मेरे थिरकते यौवन पर मनहूस बुढ़ापा छा गया | मेरे क्रोध के दांत टूट गए , मेरी बहादुरी के बाल सफ़ेद हो गए , मेरी उमंग में झुर्रियां पद गयी और मेरे पुरुषार्थ के घुटनों में संक्रामक दर्द शुरू हो गया | मेरे बारह -बारह वर्ष तक के घेरे लगाये गए, पर जब मेरा जीवित मौसर (मृत्युभोज) कर दिया गया ,उस दिन बारह दिन क्या बारह घंटे ही किसी ने शोक नहीं किया |

मेरी अर्थी बनाकर मुझे शमशान भी नहीं पहुँचाया गया और मेरे विजेताओं ने मेरी ही छाती पर दिवालियाँ मना ली | अब लोग मुझे देखने आते है - मैं भारत सरकार के दर्शनीय स्मारकों में हूँ , होनहार ने जीते जी मेरा स्मारक बना दिया | अब मैं जी क्या रहा हूँ , जीने की परिभाषा बदल रहा हूँ | दिल में इतने घाव और स्मृति में इतने फफोले पड़ गए है कि जीवन की परिभाषा समझा भी नहीं सकता |
दर्शक ! मेरी जिन्दगी कितनी रंगीन और खुबसूरत थी , पर मेरी मौत कितनी कमीनी और मनहूस हो गई ? काश ! मैं यह समझ पता , कि होनहार ने क्या डाला ?

होनहार ने मेरे साथ बहुत दगा किया है | उसने मेरी पीठ में छुरी भोंक दी है | मेरी जर्जरावस्था में अब मेरे तीन शत्रु हो गए है - होनहार , जरा और मृत्यु | पर मैं मांचे (खाट) की मौत कैसे मरुँ ? क्या चाचकदेव की संतान ने परिवार नियोजन करा लिया है ? क्या अब दिल्ली और मुल्तान में कोई बादशाह नहीं रहा ? क्या अब सामन्तो की कीमत बीस -बीस तीस-तीस हजार रूपये हो गई है ? क्या अब देवराज, चाचक देव , मूलराज या तिलोकसी कोई भी लौटकर नहीं आएगा ? कोई हर्ज नहीं , न आये ! क्या कह रहे हो - तुम मेरी सहायता करोगे ? हं हं ! तुम्हारे जीते जी मेरी कितनी बुरी हालत हो गई है ; तुम्हारे जीते जी लोग तुम्हारी धरती ले गए , इतिहास और संस्कृति ले गए और तुसे उफ़ कहते नहीं बन पड़ा |

तुम्हारे शत्रुओं ने तुम्हारी छाती पर बैठकर तुम्हारी कुल परम्परा का अपमान किया | और तो और , तुम उस शत्रु के टुकड़ों पर दम हिलाकर तलुवे चाटने लगे | काश ! मुझे फुसलाने के प्रयासों से पहले मेरी जिन्दगी की रंगीनियों को देखते ; मेरी जवानी के इठलाते हुए दिन देखते | मेरी रक्षा और इज्जत के उन हरकारों को देखते | अब तो कारवां गुजर गया , उसकी खेह भी नहीं रही , कि जिसे तुम्हे बता कर प्रमाण ही दे देता कि मैं तुम जैसा नपुंसक नहीं , उस होनहार वंश परम्परा की प्रतीक्षा कर रहा हूँ , जो होनहार के छक्के छुड़ा दे | वह देखो !

मैं उस कारवां की प्रतीक्षा कर रहा हूँ , जो दूर झुरमुट के पीछे आता हुआ दिखाई दे रहा है | झीनी झीनी खेह में , गिरती उठती परछाईयों में , कभी पहाड़ों और कभी बादलों की ओट में , कष्टों से खेलता , जंगलों की ख़ाक छानता हुआ बढ़ा आ रहा है | वर्षों से मैं उसके स्वागत के लिए कुमकुम का थाल लिए खड़ा हूँ | न जाने कब आएगा ? न उसकी गति तीव्र है ; न धीमी | न उसमे उद्वेग का उतावलापन है न निराशा और मोह के कारण विश्राम की कामना | उसी की एक मात्र आशा पर मैं होनहार से लड़ने की ठान रहा हूँ | होनहार भी खेल खेल रहा है , पर अब उसके पास रंग की आखिरी प्याली और काल की चरमराती तुलिका है |

इतिहास के एक दो आखिरी पृष्ट खाली रह गए है , जिन पर मेरी और होनहार की आखिरी मुलाकात होगी ; हम परस्पर प्यार से लड़ मरेंगे और लड़ कर प्यार करेंगे | हमारा आखिरी फैसला उसी दिन होगा - कौन अमर हो जाय और कौन सदा के लिए मर जाए ! बड़ा खार खाए बैठा हूँ | इतना लोमहर्षक संघर्ष करूँगा , पापों का इतना कंपकंपाने वाला प्रायश्चित करूँगा , अपनी अकर्मण्यता की ब्याज सहित इतनी कीमत चुकाऊंगा कि होनहार का निर्माता भी कहेगा - ' यह तुमने क्या डाला , हमें भी तो याद करते |'

समाप्त |

साभार

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