शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

वीरवर योद्धा जयमल जी राठौड़ मेडतिया


जयमल जी के बाद से ही एक कहावत प्रचलित है की
"मरण नै मेडतिया अर राज करण नै जौधा "
"मरण नै दुदा अर जान (बारात) में उदा "
उपरोक्त कहावतों में मेडतिया राठोडों को आत्मोत्सर्ग में अग्रगण्य तथा युद्ध कौशल में प्रवीण मानते हुए मृत्यु को वरण करने के लिए आतुर कहा गया है मेडतिया राठोडों ने शौर्य और बलिदान के एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए है और इनमे जयमल जी मेडतिया का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है | कर्नल जेम्स टोड की राजस्थान के प्रत्येक राज्य में "थर्मोपल्ली" जैसे युद्ध और "लियोनिदास" जैसे योद्दधा होनी की बात स्वीकार करते हुए इन सब में श्रेष्ठ दिखलाई पड़ता है | जिस जोधपुर के मालदेव से जयमल जी को लगभग 22 युद्ध लड़ने पड़े वह सैनिक शक्ति में जयमल जी से 10 गुना अधिक था और उसका दूसरा विरोधी अकबर एशिया का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति था | अबुल फजल,हर्बर्ट,सर टामस रो, के पादरी तथा बर्नियर जैसे प्रसिद्ध लेखकों ने जयमल के कृतित्व की अत्यन्त ही प्रसंशा की है | जर्मन विद्वान काउंटनोआर ने अकबर पर जो पुस्तक लिखी उसमे जयमल जी को "Lion of Chittor" कहा है |

जयमल जी का जन्म आश्विन शुक्ला 11 वि.स.1564 तदनुसार 17 सितम्बर 1507 शुक्रवार के दिन हुआ था |
सन 1544 में जयमल जी 36 वर्ष की आयु अपने पिता राव विरमदेव की मृत्यु के बाद मेड़ता की गद्दी संभाली | पिता के साथ अनेक विपदाओं व युद्धों में सक्रीय भाग लेने के कारण जयमल जी में बड़ी-बड़ी सेनाओं का सामना करने की सूझ थी उनका व्यक्तित्व निखर चुका था और उसी कारण जयमल मेडतिया राठोडों में सर्वश्रेष्ठ योद्धा बने | मेड़ता के प्रति जोधपुर के शासक मालदेव के वैमनस्य को भांपते हुए जयमल जी ने अपने सीमित साधनों के अनुरूप सैन्य तैयारी कर ली | जोधपुर पर पुनः कब्जा करने के बाद राव मालदेव ने कुछ वर्ष अपना प्रशासन सुसंगठित करने बाद संवत 1610 में एक विशाल सेना के साथ मेड़ता पर हमला कर दिया | अपनी छोटीसी सेना से जयमल मालदेव को पराजित नही कर सकता था अतः उसने बीकानेर के राव कल्याणमल को सहायता के लिए 7000 सैनिकों के साथ बुला लिया लेकिन फ़िर भी जयमल जी अपने सजातीय बंधुओं के साथ युद्ध कर और रक्त पात नही चाहता थे इसलिये उन्होने राव मालदेव के साथ संधि की कोशिश भी की, लेकिन जिद्दी मालदेव ने एक ना सुनी और मेड़ता पर आक्रमण कर दिया | पूर्णतया सचेत वीर जयमल जी ने अपनी छोटी सी सेना के सहारे जोधपुर की विशाल सेना को भयंकर टक्कर देकर पीछे हटने को मजबूर कर दिया स्वयम मालदेव को युद्ध से खिसकना पड़ा | युद्ध समाप्ति के बाद जयमल जी ने मालदेव से छीने "निशान" मालदेव को राठौड़ वंश का सिरमौर मान उसकी प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए वापस लौटा दिए |
मालदेव पर विजय के बाद जयमल जी ने मेड़ता में अनेक सुंदर महलों का निर्माण कराया और क्षेत्र के विकास के कार्य किए | लेकिन इस विजय ने जोधपुर-मेड़ता के बीच विरोध की खायी को और गहरा दिया और बदले की आग में झुलसते मालदेव ने मौका देख हमला कर 27 जनवरी 1557 को मेड़ता पर अधिकार कर लिया उस समय जयमल जी की सेना हाजी खां के साथ युद्ध में क्षत-विक्षत थी और उसके खास-खास योद्दधा बीकानेर,मेवाड़ और शेखावाटी की और गए हुए थे इसी गुप्त सुचना का फायदा मालदेव ने जयमल जी को परास्त करने में उठाया | मेड़ता पर अधिकार कर मालदेव ने मेड़ता के सभी महलों को तोड़ कर नष्ट कर दिए और वहां मूलों की खेती करवाई | आधा मेड़ता अपने पास रखते हुए आधा मेड़ता मालदेव ने जयमल जी के भाई जगमाल जो मालदेव के पक्ष में था को दे दिया | मेड़ता छूटने के बाद जयमल जी मेवाड़ चला गये जहाँ महाराणा उदय सिंह ने उन्हे बदनोर की जागीर प्रदान की | लेकिन वहां भी मालदेव ने अचानक हमला किया और जयमल जी द्वारा शोर्य पूर्वक सामना करने के बावजूद मालदेव की विशाल सेना निर्णायक हुयी और जयमल को बदनोर भी छोड़ना पड़ा | अनेक वर्षों तक अपनी छोटी सी सेना के साथ जोधपुर की विशाल सेना मुकाबला करते हुए जयमल समझ चुका था कि बिना किसी शक्तिशाली समर्थक के वह मालदेव से पीछा नही छुडा सकता | और इसी हेतु मजबूर होकर उसने अकबर से संपर्क किया जो अपने पिता हुमायूँ के साथ मालदेव द्वारा किए विश्वासघात कि वजह से खिन्न था और अकबर राजस्थान के उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक मालदेव को हराना भी जरुरी समझता था | जयमल जी ने अकबर की सेना सहायता से पुनः मेड़ता पर कब्जा कर लिया | वि.स.1619 में मालदेव के निधन के बाद जयमल जी को लगा की अब उसकी समस्याए समाप्त हो गई , लेकिन अकबर की सेना से बागी हुए सैफुद्दीन को जयमल द्वारा आश्रय देने के कारण जयमल जी की अकबर से फ़िर दुश्मनी हो गई और अकबर ने एक विशाल सेना मेड़ता पर हमले के लिए रवाना कर दी | अनगिनत युद्धों में अनेक प्रकार की क्षति और अनगिनत घर उजड़ चुके थे और जयमल जी जनता जनता को और उजड़ देना नही चाहता था इसी बात को मध्यनजर रखते हुए जयमल जी ने अकबर के मनसबदार हुसैनकुली खां को मेड़ता शान्ति पूर्वक सौंप कर परिवार सहित बदनोर चला गया | और अकबर के मनसबदार हुसैनकुली खां ने अकबर की इच्छानुसार मेड़ता का राज्य जयमल जी के भाई जगमाल को सौंप दिया |
अकबर द्वारा चित्तोड़ पर आक्रमण का समाचार सुन जयमल जी

चित्तोड़ पहुँच गये | 26 अक्टूबर 1567 को अकबर चित्तोड़ के पास नगरी नामक गांव पहुँच गया | जिसकी सूचना महाराणा उदय सिंह को मिल चुकी थी और युद्ध परिषद् की राय के बाद चित्तोड़ के महाराणा उदय सिंह ने वीर जयमल को 8000 सैनिकों के साथ चित्तोड़ दुर्ग की रक्षा का जिम्मा दे स्वयम दक्षिणी पहाडों में चले गए | विकट योद्धों के अनुभवी जयमल जी ने खाद्य पदार्थो व शस्त्रों का संग्रह कर युद्ध की तैयारी प्रारंभ कर दी | उधर अकबर ने चित्तोड़ की सामरिक महत्व की जानकारिया इक्कठा कर अपनी रणनीति तैयार कर चित्तोड़ दुर्ग को विशाल सेना के साथ घेर लिया और दुर्ग के पहाड़ में निचे सुरंगे खोदी जाने लगी ताकि उनमे बारूद भरकर विस्फोट कर दुर्ग के परकोटे उड़ाए जा सकें,दोनों और से भयंकर गोलाबारी शुरू हुई तोपों की मार और सुरंगे फटने से दुर्ग में पड़ती दरारों को जयमल जी रात्रि के समय फ़िर मरम्मत करा ठीक करा देते |
अनेक महीनों के भयंकर युद्ध के बाद भी कोई परिणाम नही निकला | चित्तोड़ के रक्षकों ने मुग़ल सेना के इतने सैनिकों और सुरंगे खोदने वालो मजदूरों को मारा कि लाशों के अम्बार लग गए | बादशाह ने किले के निचे सुरंगे खोद कर मिट्टी निकालने वाले मजदूरों को एक-एक मिट्टी की टोकरी के बदले एक-एक स्वर्ण मुद्राए दी ताकि कार्य चालू रहे | अबुलफजल ने लिखा कि इस युद्ध में मिट्टी की कीमत भी स्वर्ण के सामान हो गई थी | अकबर जयमल जी के पराकर्म से भयभीत व आशंकित भी थे सो उसने राजा टोडरमल के जरिय जयमल को संदेश भेजा कि आप राणा और चित्तोड़ के लिए क्यों अपने प्राण व्यर्थ गवां रहे हो,चित्तोड़ दुर्ग पर मेरा कब्जा करा दो मै तुम्हे तुम्हारा पैत्रिक राज्य मेड़ता और बहुत सारा प्रदेश भेंट कर दूंगा | लेकिन जयमल जी ने अकबर का प्रस्ताव साफ ठुकरा दिया कि मै राणा और चित्तोड़ के साथ विश्वासघात नही कर सकता और मेरे जीवित रहते आप किले में प्रवेश नही कर सकते |
जयमल ने टोडरमल के साथ जो संदेश भेजा जो कवित रूप में इस तरह प्रचलित है
है गढ़ म्हारो म्है धणी,असुर फ़िर किम आण |
कुंच्यां जे चित्रकोट री दिधी मोहिं दीवाण ||
जयमल लिखे जबाब यूँ सुनिए अकबर शाह |
आण फिरै गढ़ उपरा पडियो धड पातशाह || एक रात्रि को अकबर ने देखा कि किले कि दीवार पर हाथ में मशाल लिए जिरह वस्त्र पहने एक सामंत दीवार मरम्मत का कार्य देख रहा है और अकबर ने अपनी संग्राम नामक बन्दूक से गोली दाग दी जो उस सामंत के पैर में लगी वो सामंत कोई और नही ख़ुद जयमल मेडतिया ही था | थोडी ही देर में किले से अग्नि कि ज्वालाये दिखने लगी ये ज्वालाये जौहर की थी | जयमल की जांघ में गोली लगने से उसका चलना दूभर हो गया था उसके घायल होने से किले में हा हा कार मच गया अतः साथी सरदारों के सुझाव पर जौहर और शाका का निर्णय लिया गया ,जौहर क्रिया संपन्न होने के बाद घायल जयमल जी कल्ला जी राठौड़ के कंधे पर बैठकर चल पडे रणचंडी का आव्हान करके  | जयमल जी के दोनों हाथो की तलवारों ने बिजली के सामान चमकते हुए शत्रुओं का संहार किया उनके शौर्य को देख कर अकबर भी आश्चर्यचकित था | इस प्रकार यह वीर चित्तोड़ की रक्षा करते हुए दुर्ग की हनुमान पोल व भैरव पोल के बीच लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुवा जहाँ उसकी याद में स्मारक आज भी बना हुआ है |
इस युद्ध में वीर जयमल जी  और पत्ता जी सिसोदिया की वीरता ने अकबर के हृदय पर ऐसी अमित छाप छोड़ी कि अकबर ने दोनों वीरों की हाथी पर सवार पत्थर की विशाल मूर्तियाँ बनाई | जिनका कई विदेश पर्यटकों ने अपने लेखो में उल्लेख किया है | यह भी प्रसिद्ध है कि अकबर द्वारा स्थापित इन दोनों की मूर्तियों पर निम्न दोहा अंकित था |
जयमल बड़ता जीवणे, पत्तो बाएं पास |
राजपूत चढिया हथियाँ चढियो जस आकास ||
सनातन, मुस्लमान,अंग्रेज,फ्रांसिस, जर्मन,पुर्तगाली आदि अनेक इतिहासकारों ने जयमल जी के अनुपम शौर्य का वर्णन किया है |

ऐसे महान शुरवीर "जयमल जी राठौड़ मेडतिया" को शत शत नमन ।।
जय क्षात्र धर्म

बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

फौज आयी देवरे

“बारात चल पड़ी है। गाँव समीप आ गया है इसलिए घुड़सवार घोड़ों को दौड़ाने लगे हैं। ऊँट दौड़ कर रथ से आगे निकल गए हैं । गाँव में ढोल और नक्कारे बज रहे हैं -
दुल्हा-दुल्हिन एक विमान पर बैठे हैं । दुल्हे के हाथ में दुल्हिन का हाथ है । हाथ का गुदगुदा स्पर्श अत्यन्त ही मधुर है। दासी पूछ रही है -“सुहागरात के लिए सेज किस महल में सजाऊँ? इतने में विमान ऊपर उड़ पड़ा।।'

विमान के ऊपर उड़ने से एक झटका-सा अनुभव हुआ और सुजाणसिंह की नीद खुल गई । मधुर स्वप्न भंग हुआ । उसने लेटे ही लेटे देखा, पास में रथ ज्यों का त्यों खड़ा था । ऊँट एक ओर बैठे जुगाली कर रहे थे । कुछ आदमी सो रहे थे

और कुछ बैठे हुए हुक्का पी रहे थे । अभी धूप काफी थी । बड़ के पत्तों से छन-छन कर आ रही धूप से अपना मुँह बचाने के लिए उसने करवट बदली ।

‘‘आज रात को तो चार-पाँच कोस पर ही ठहर जायेंगे । कल प्रात:काल गाँव पहुँचेंगे । संध्या समय बरात का गाँव में जाना ठीक भी नहीं है ।'
लेटे ही लेटे सुजाणसिंह ने सोचा और फिर करवट बदली । इस समय रथ सामने था । दासी जल की झारी अन्दर दे रही थी । सुजाणसिंह ने अनुमान लगाया -
‘‘वह सो नहीं रही है, अवश्य ही मेरी ओर देख रही होगी ।'

दुल्हिन का अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए उसने बनावटी ढंग से खाँसा । उसने देखा - रथ की बाहरी झालर के नीचे फटे हुए कपड़े में से दो भाव-पूर्ण नैन उस ओर टकटकी लगाए देख रहे थे । उनमें संदेश, निमंत्रण, जिज्ञासा, कौतूहल और सरलता सब कुछ को उसने एक साथ ही अनुभव कर लिया । उसका उन नेत्रों में नेत्र गड़ाने का साहस न हुआ । दूसरी ओर करवट बदल कर वह फिर सोने का उपक्रम करने लगा । लम्बी यात्रा की थकावट और पिछली रातों की अपूर्ण निद्रा के कारण उसकी फिर आँख लगी अवश्य, पर दिन को एक बार निद्रा भंग हो जाने पर दूसरी बार वह गहरी नहीं आती । इसलिए सुजाणसिंह की कभी आँख लग जाती और कभी खुल जाती । अर्द्ध निद्रा, अर्द्ध स्वप्न और अर्द्ध जागृति की अवस्था थी वह । निद्रा उसके साथ ऑख-मिचौनी सी खेल रही

थी । इस बार वह जगा ही था कि उसे सुनाई दिया

“कुल मे है तो जाण सुजाण, फौज देवरे आई।'
“राजपूत का किसने आह्वान किया है ? किसकी फौज और किस देवरे पर आई है ?''
सहसा सुजाणसिंह के मन में यह प्रश्न उठ खड़े हुए । वह उठना ही चाहता था कि उसे फिर सुनाई पड़ा -
‘‘झिरमिर झिरमिर मेवा बरसै, मोरां छतरी छाई।’’
कुल में है तो जाण सुजाण, फौज देवरे आई।”
‘‘यहाँ हल्ला मत करो ? भाग जाओ यहाँ से ?‘‘ एक सरदार को हाथ में घोड़े की चाबुक लेकर ग्वालों के पीछे दौड़ते हुए उन्हें फटकारते हुए सुजाणसिंह ने देखा ।
“ठहरों जी ठहरो । ये ग्वाले क्या कह रहे हैं ? इन्हें वापिस मेरे पास बुलाओ ।’ सुजाणसिंह ने कहा -
“कुछ नहीं महाराज ! लड़के हैं,यों ही बकते हैं । ... ने हल्ला मचा कर नीद खराब कर दी |'' ...... एक लच्छेदार गाली ग्वालों को सरदार ने दे डाली ।
“नहीं ! मैं उनकी बात सुनना चाहता हूँ ।’
“महाराज ! बच्चे हैं वे तो । उनकी क्या बात सुनोगे ?’
“उन्होंने जो गीत गाया, उसका अर्थ पूछना चाहता हूँ ।’
“गंवार छोकरे हैं । यों ही कुछ बक दिया है। आप तो घड़ी भर विश्राम कर लीजिए फिर रवाना होंगे ।’’
“पहले मैं उस गीत का अर्थ समझुंगा और फिर यहाँ से चलना होगा ।’
‘‘उस गीत का अर्थ. ।’’ कहते हुए सरदार ने गहरा निःश्वास छोड़ा और फिर वह रुक गया |
"हाँ हाँ कहों, रुकते क्यों हो बाबाजी?"

“पहले बरात को घर पहुँचने दो फिर

इसका अर्थ बताऊँगा ।।'

“मैं अभी जानना चाहता हूँ ।’
‘‘आप अभी बच्चे हैं । विवाह के मांगलिक कार्य में कहीं विघ्न पड़ जायगा ।’’

“मैं किसी भी विघ्न से नहीं डरता ।

आप तो मुझे उसका अर्थ…... I'
‘‘मन्दिर को तोड़ने के लिए पातशाह की फौज आई है । यही अर्थ है उस का।’’
“कौनसा मन्दिर ?'
“खण्डेले का मोहनजी का मन्दिर ।’
‘‘मन्दिर की रक्षा के लिए कौन तैयार हो रहे हैं ?’
‘‘कोई नहीं।’’ ‘‘क्यों ?’
‘‘किसमें इतना साहस है जो पातशाह की फौज से टक्कर ले सके । हरिद्वार, काशी, वृन्दावन, मथुरा आदि के हजारों मन्दिर तुड़वा दिए हैं, किसी ने चूँ तक नहीं की ‘‘
“पर यहाँ तो राजपूत बसते हैं।’’
“मौत के मुँह में हाथ देने का किसी में साहस नहीं है ।
“मुझ में साहस है । मैं मौत के मुँह में हाथ दूँगा । सुजाणसिंह के जीते जी तुर्क की मन्दिर पर छाया भी नहीं पड़ सकती । भूमि निर्बीज नहीं हुई, भारत माता की पवित्र गोद से क्षत्रियत्व कभी भी निःशेष नहीं हो सकता । यदि गौ, ब्राह्मण और मन्दिरों की रक्षा के लिए यह शरीर काम आ जाय तो इससे बढ़कर सौभाग्य होगा ही क्या ? शीघ्र घोड़ों पर जीन किए जाएँ ?’ कहते हुए सुजाणसिंह उठ खड़ा हुआ ।
परन्तु आपके तो अभी काँकण डोरे (विवाह-कंगन) भी नहीं खुले हैं ।
“कंकण-डोरडे अब मोहनजी कचरणों में ही खुलेंगे ।।'

बात की बात में पचास घोड़े सजकर तैयार हो गए । एक बरात का कार्य पूरा हुआ, अब दूसरी बरात की तैयारी होने लगी
। सुजाणसिंह ने घोड़े पर सवार होते हुए रथ की ओर देखा - कोई मेहन्दी लगा हुआ सुकुमार हाथ रथ से बाहर निकाल कर अपना चूड़ा बतला रहा था । सुजाणसिंह मन ही मन उस मूक भाषा को समझ गया।
“अन्य लोग जल्दी से जल्दी घर पहुँच जाओ ।' कहते हुए सुजाणसिंह ने घोड़े का मुँह खण्डेला की ओर किया और एड़ लगा दी । वन के मोरों ने पीऊ-पीऊ पुकार कर विदाई दी ।

मार्ग के गाँवों ने देखा कोई बरात जा रही थी । गुलाबी रंग का पायजामा, केसरिया बाना, केसरिया पगड़ी और तुर्रा-कलंगी
लगाए हुए दूल्हा सबसे आगे था और पीछे केसरिया-कसूमल पार्गे बाँधे पचास सवार थे । सबके हाथों में तलवारें और भाले थे । बड़ी ही विचित्र बरात थी वह । घोड़ों को तेजी से दौड़ाये जा रहे थे, न किसी के पास कुछ सामान था और न अवकास ।

दूसरे गाँव वालों ने दूर से ही देखा - कोई बरात आ रही थी । मारू नगाड़ा बज रहा था; खन्मायच राग गाई जा रही थी, केसरिया-कसूमल बाने चमक रहे थे, घोड़े पसीने से तर और सवार उन्मत्त थे । मतवाले होकर झूम रहे थे ।

खण्डेले के समीप पथरीली भूमि पर बड़गड़ बड़गड़ घोड़ों की टापें सुनाई दीं । नगर निवासी भयभीत होकर इधर-उधर दौड़ने लगे । औरते घरों में जा छिपी । पुरूषों ने अन्दर से किंवाड़ बन्द कर लिए । बाजार की दुकानें बन्द हो गई । जिधर देखो उधर भगदड़ ही भगदड़ थी ।

“तुर्क आ गये, तुर्क आ गये “ की आवाज नगर के एक कोने से उठी और बात की बात में दूसरे कोने तक पहुँच गई । पानी लाती हुई पनिहारी, दुकान बन्द करता हुआ महाजन और दौड़ते हुए बच्चों के मुँह से केवल यही आवाज निकल रही थी- “तुर्क आ गये हैं, तुर्क आ गये हैं “ मोहनजी के पुजारी ने मन्दिर के पट बन्द कर लिए । हाथ में माला लेकर वह नारायण कवच का जाप करने लगा, तुर्क को भगाने के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगा ।

इतने में नगर में एक ओर से पचास घुड़सवार घुसे । घोड़े पसीने से तर और सवार मतवाले थे । लोगों ने सोचा -
‘‘यह तो किसी की बरात है, अभी चली जाएगी ।'
घोड़े नगर का चक्कर काट कर मोहनजी के मन्दिर के सामने आकर रुक गए । दूल्हा ने घोड़े से उतर कर भगवान की मोहिनी मूर्ति को साष्टांग प्रणाम किया और पुजारी से पूछा -
“तुर्क कब आ रहे हैं ?’
“कल प्रातः आकर मन्दिर तोड़ने की सूचना है ।'
“अब मन्दिर नहीं टूटने पाएगा । नगर में सूचना कर दो कि छापोली का सुजाणसिंह शेखावत आ गया है; उसके जीते जी मन्दिर की ओर कोई ऑख उठा कर भी नहीं देख सकता । डरने-घबराने की कोई बात नहीं है ।'

पुजारी ने कृतज्ञतापूर्ण वाणी से आशीर्वाद दिया । बात की बात में नगर में यह बात फैल गई कि छापोली ठाकुर सुजाणसिंह जी मन्दिर की रक्षा करने आ गए हैं । लोगों की वहाँ भीड़ लग गई । सबने आकर देखा, एक बीस-बाईस वर्षीय दूल्हा और छोटी सी बरात वहाँ खड़ी थी । उनके चेहरों पर झलक रही तेजस्विता,दृढ़ता और वीरता को देख कर किसी को यह पूछने का साहस नहीं हुआ कि वे मुट्टी भर लोग मन्दिर की रक्षा किस प्रकार कर सकेंगे । लोग भयमुक्त हुए । भक्त लोग इसे भगवान मोहनजी का चमत्कार बता कर लोगों को समझाने लगे -

“इनके रूप में स्वयं भगवान मोहनजी ही तुकों से लड़ने के लिए आए है । छापोली ठाकुर तो यहाँ हैं भी नहीं- वे तो बहुत

दूर ब्याहने के लिए गए है,- जन्माष्टमी का तो विवाह ही था, इतने जल्दी थोड़े ही आ सकते हैं ।

यह बात भी नगर में हवा के साथ ही फैल गई । किसी ने यदि शंका की तो उत्तर मिल गया -
‘‘मोती बाबा कह रहे थे ।’’
मोती बाबा का नाम सुन कर सब लोग चुप हो जाते ।
मोती बाबा वास्तव में पहुँचे हुए महात्मा हैं । वे रोज ही भगवान का दर्शन करते हैं, उनके साथ खेलते, खाते-पीते लोहागिरी के जंगलों में रास किया करते हैं । मोती बाबा ने पहचान की है तो बिल्कुल सच है । फिर क्या था, भीड़ साक्षात् मोहनजी के दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी । भजन  मण्डलियाँ आ गई । भजन-गायन प्रारम्भ हो गया । स्त्रियाँ भगवान का दर्शन कर अपने को कृतकृत्य समझने लगी । सुजाणसिंह और उनके साथियों ने इस भीड़ के आने के वास्तविक रहस्य को नहीं समझा । वे यही सोचते रहे कि सब लोग भगवान की मूर्ति के दर्शन करने ही आए हैं । रात भर जागरण होता रहा, भजन गाये जाते रहे और सुजाणसिंह भी घोड़ों पर जीन कसे ही रख कर उसी वेश में
रात भर श्रवण-कीर्तन में योग देते रहे ।

प्रात:काल होते-होते तुर्क की फौज ने आकर मोहनजी के मन्दिर को घेर लिया । सुजाणसिंह पहले से ही अपने साथियों सहित आकर मन्दिर के मुख्य द्वार के आगे घोड़े पर चढ़ कर खड़ा हो गया । सिपहसालार ने एक नवयुवक को दूल्हा वेश में देख कर अधिकारपूर्ण ढंग से पूछा -
“तुम कौन हो और क्यों यहाँ खड़े हो?’
“तुम कौन हो और यहाँ क्यों आए हो ?’
“जानते नहीं, मैं बादशाही फौज का सिपहसालार हूँ।’
“तुम भी जानते नहीं, मैं सिपहसालारों का भी सिपहसालार हूँ ।’

‘‘ज्यादा गाल मत बजाओ और रास्ते से

हट जाओ नहीं तो अभी. ''

“तुम भी थूक मत उछालो और चुपचाप यहाँ से लौट जाओ नहीं तो अभी ....।”
“तुम्हें भी मालूम है, तुम किसके सामने खड़े हो?’

“शंहशाह आलमगीर ने मुझे बुतपरस्तों को सजा देने और इस मन्दिर की बुत को तोड़ने के लिए भेजा है। शहंशाह आलमगीर की हुक्म-उदूली का नतीजा क्या होगा, यह तुम्हें अभी मालूम नहीं है। तुम्हारी छोटी उम्र देख करे

मुझे रहम आता है, लिहाजा मैं तुम्हें एक बार फिर हुक्म देता हूँ कि यहाँ से हट जाओ ।।'

“मुझे शहंशाह के शहंशाह मोहनजी ने तुकों को सजा देने के लिए यहाँ भेजा है पर तुम्हारी बिखरी हुई बकरानुमा दाढ़ी और अजीब सूरत को देख कर मुझे दया आती है, इसलिए मैं एक बार तुम्हें फिर चेतावनी देता हूँ कि यहाँ से लौट जाओ।’
इस बार सिपहसालार ने कुछ नम्रता से पूछा - “तुम्हारा नाम क्या है ?’
“मेरा नाम सुजाणसिंह शेखावत है ।’

“मैं तुम्हारी बहादूरी से खुश हूँ।

मैं सिर्फ मन्दिर के चबूतरे का एक कोना तोड़ कर ही यहाँ से हट जाऊँगा । मन्दिर और बुत के हाथ भी न लगाऊँगा । तुम रास्ते से हट जाओ ।’’

“मन्दिर का कोना टूटने से पहले मेरा सिर टूटेगा और मेरा सिर टूटने से पहले कई तुकों के सिर टूटेंगे ।
सिपहसालार ने घोड़े को आगे बढ़ाते हुए नारा लगाया -
‘‘अल्ला हो। अकबर |''
“जय जय भवानी ।’ कह कर सुजाणसिंह अपने साथियों सहित तुकों पर टूट पड़ा |

लोगों ने देखा उसकी काली दाढ़ी का प्रत्येक बाल कुशांकुर की भाँति खड़ा हो गया। तुर्रा -कलंगी के सामने से शीघ्रतापूर्वक
घूम रही रक्तरंजित तलवार की छटा अत्यन्त ही मनोहारी दिखाई से रही थी|  बात की बात में उस अकेले ने बत्तीस कब्रे खोद दी थी ।

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रात्रि के चतुर्थ प्रहर में जब ऊँटों पर सामान लाद कर और रथ में बैलों को जोत कर बराती छापोली की ओर रवाना होने

लगे कि दासी ने आकर कहा -

“बाईसा ने कहलाया है कि बिना दुल्हा के दुल्हिन को घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए ।।'
“तो क्या करें ?’ एक वृद्ध सरदार ने उत्तर दिया ।
“वे कहती हैं, मैं भी अभी खण्डेला जाऊँगी ।
“खण्डेला जाकर क्या करेंगी ? वहाँ तो मारकाट मच रही होगी ।’
“ वे कहती हैं कि आपको मारकाट से डर लगता है क्या ?’
“मुझे तो डर नहीं लगता पर औरत को मैं आग के बीच कैसे ले जाऊँ ।’
“वे कहती हैं कि औरतें तो आग में खेलने से ही राजी होती हैं ।
मन ही मन - ‘‘दोनों ही कितने हठी हैं ।
प्रकट में - “मुझे ठाकुर साहब का हुक्म छापोली ले जाने का है ।
“बाईसा कहती हैं कि मैं आपसे खण्डेला ले जाने के लिए प्रार्थना करती हूँ ।’
‘‘अच्छा तो बाईं जैसी इनकी इच्छा ।।' और रथ का मुँह खण्डेला की ओर कर दिया । बराती सब रथ के पीछे हो गए । रथ के आगे का पद हटा दिया गया ।

खण्डेला जब एक कोस रह गया तब वृक्षों की झुरमुट में से एक घोड़ी आती हुई दिखाई दी ।
“यह तो उनकी घोड़ी है ।“ दुल्हिन ने मन में कहा । इतने में पिण्डलियों के ऊपर हवा से फहराता हुआ केसरिया बाना भी दिखाई पड़ा ।
“ओह! वे तो स्वयं आ रहे हैं । क्या लड़ाई में जीत हो गई? पर दूसरे साथी कहाँ हैं ? कहीं भाग कर तो नहीं आ रहे हैं ?'
इतने में घोड़ी के दोनों ओर और पीछे दौड़ते हुए बालक और खेतों के किसान भी दिखाई दिए ।
‘‘यह हल्ला किसका है ? ये गंवार लोग इनके पीछे क्यों दौड़ते हैं ? भाग कर आने के कारण इनको कहीं चिढ़ा तो नहीं रहे हैं ?’
दुल्हिन ने फिर रथ में बैठे ही नीचे झुक कर देखा, वृक्षों के झुरमुट में से दाहिने हाथ में रक्त-रंजित तलवार दिखाई दी ।
“जरूर जीत कर आ रहे हैं, इसीलिए खुशी में तलवार म्यान करना भी भूल गए । घोड़ी की धीमी चाल भी यही बतला रही है ।’’
इतने में रथ से लगभग एक सौ हाथ दूर एक छोटे से टीले पर घोड़ी चढ़ी । वृक्षावली यहाँ आते-आते समाप्त हो गई थी । दुल्हिन ने उन्हें ध्यान से देखा । क्षण भर में उसके मुख-मण्डल पर अद्भुत भावभंगी छा गई और वह सबके सामने रथ से कूद कर मार्ग के बीच में जा खड़ी हुई । अब न उसके मुख पर घूंघट था और न लज्जा और विस्मय का कोई भाव ।
“नाथ ! आप कितने भोले हो, कोई अपना सिर भी इस प्रकार रणभूमि में भूल कर आता है ।’’ कहते हुए उसने आगे बढ़ कर अपने मेंहदी लगे हाथ से कमध ले जाती हुई घोड़ी की लगाम पकड़ ली ।

और उसी स्थान पर खण्डेला से उत्तर में भग्नावस्था में छत्री खड़ी हुई है, जिसकी देवली पर सती और झुंझार की दो मूर्तियाँ अंकित हैं । वह उधर से आते-जाते पथिकों को आज भी अपनी मूक वाणी में यह कहानी सुनाती है और न मालूम भविष्य में भी कब तक सुनाती रहेगी ।

लेखक : स्व. आयुवान सिंह शेखावत
साभार:- ज्ञान दर्पण