बुधवार, 9 सितंबर 2015

महाराणा पृथ्वीराज "उड़ता शेर"

कुंवर पृथ्वी सिंह जिन्हें पृथ्वीराज के नाम से भी इतिहास में जाना जाता है, मेवाड़ के महाराणा रायमल के ज्येष्ठ पुत्र थे व इतिहास प्रसिद्ध महाराणा सांगा के बड़े भाई| सांगा व पृथ्वीराज दोनों झाला राजवंश में जन्मी राणा रायमल की रानी रतनकंवर के गर्भ से जन्में थे| कुंवर पृथ्वीराज अपने अदम्य साहस, अप्रत्याशित वीरता, दृढ निश्चय, युद्धार्थ तीव्र प्रतिक्रिया व अपने अदम्य शौर्य के लिए दूर दूर तक जाने जाते थे| इतिहासकारों के अनुसार अपने इन गुणों से “पृथ्वीराज को लोग देवता समझते थे|” पृथ्वीराज एक ऐसे राजकुमार थे जिन्होंने अपने स्वयं के बलबूते सैन्य दल व उसके खर्च के लिए स्वतंत्र रूप से आर्थिक व्यवस्था कर मेवाड़ के उन कई उदण्ड विरोधियों को दंड दिया जो मेवाड़ राज्य की परवाह नहीं करते थे| इतिहासकारों के अनुसार यदि पृथ्वीराज की जहर देकर हत्या नहीं की गई होती और वे मेवाड़ की गद्दी पर बैठते तो देश का इतिहास कुछ और ही होता| यदि राणा रायमल का यह ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज जीवित होता और सांगा के स्थान मेवाड़ का महाराणा बनता, उन परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए हरविलास शारडा अपनी पुस्तक “महाराणा सांगा” के पृष्ठ 36 पर लिखते है- “यदि पृथ्वीराज मेवाड़ की भाग्यलक्ष्मी के नेता होने को जीवित रहते तो वहां के इतिहास का मार्ग और ही तरह का होता और “सावधान सांगा के स्थान में पृथ्वीराज की निर्भयतापूर्वक वीरता और अदम्य शौर्य के अधीन राजपूत वीरत्व के हाथों भारत में तुर्क (मुग़ल) वंश के मूल-संस्थापक की क्या गति होती?” इस विषय में कर्नल टॉड का कथन है कि उसका अनुमान करना भी असंभव है, तो भी एक बात निश्चित है कि यदि अपनी प्रारंभ की पराजयों के पश्चात बाबर को सांगा के स्थान में पृथ्वीराज का सामना करना पड़ता तो बहुत संभव है कि फरवरी 1527 में खानवा की लड़ाई में साहसी (बाबर) हार जाता और भारत भूमि उतर पश्चिम के आक्रमणकारियों से फिर एक बार मुक्त हो जाती|” 

“उसकी देह लोहे की बनी थी, आत्मा भी अग्नि की|
सदा संकट में निडर था, अथक था, अति परिश्रमी||

उसके वेग भरे साहस, बाजी मार ले जाने के अतृप्त प्रेम, कार्य के निमित्त निरंतर प्यास और कीर्ति की अथक खोज के समान भाव वालों को देश के चारों ओर आकर्षित किया| भिन्न भिन्न जातियों और देशों के सहस्त्रों वीर कीर्तिसम्पादन और कष्ट-सहन करने में भाग लेने को पृथ्वीराज के अनुगामी हुए|” (हरविलास शारडा; महाराणा सांगा; पृष्ठ-२३) 

कुंवर पृथ्वीराज के उच्चभाव, साहस, तेज व वीरता पर इतिहासकार कर्नल टॉड ने एक घटना लिखी जो मुसलमान लेखकों द्वारा वर्णित और अनुमोदित भी है, इस घटना के अनुसार एक अवसर पर पृथ्वीराज ने राणाजी को मालवा के सुलतान के एक अहदी (सैन्य अधिकारी) से घनिष्टता से बातें करते देखा| वे उनके पतन से क्रुद्ध हुये| जिस पर राणा जी ने व्यंग्य से कहा- “तुम तो राजाओं को पकड़ने में शक्तिमान हो, परन्तु स्थिति तो यह है कि मैं अपनी धरती की रक्षा करना चाहता हूँ|” यह सुन पृथ्वीराज रुष्ट होकर चले गये, अपना दल एकत्रित किया, नीमच में जा पहुंचे और वहां 5000 सवार एकत्रित कर देपालपुर पहुँच उसे लूट लिया और वहां के हाकिम को मार डाला| इस आक्रमण के समाचार सुन कर मालवे का सुल्तान भी, जो सेना एकत्र कर सका उसे ले, मांडू से चल पड़ा| इधर पृथ्वीराज पीछे लौटने के बदले आगे ही बढे और मालवा की सेना, जो ताजा होने के लिए अपने डेरों में विश्राम कर रही थी, पर आक्रमण कर दिया| खोजों और स्त्रियों से भरे हुए बादशाही डेरे को पहचान कर पृथ्वीराज ने महमूद को कैद कर लिया और उसे अपने एक शीघ्रगामी ऊंट पर बिठाकर चितौड़ ले आये तथा अपने पिता के चरणों में ला पटका| बाद में मालवे के इस सुल्तान को लगभग एक माह चितौड़ में रखकर उसकी स्वतंत्रता के लिए उससे कतिपय घोड़े, धन आदि लेकर छोड़ा| इतिहासकारों के अनुसार कुंवर पृथ्वीराज ने अपनी उम्र के 14 वर्ष की अवस्था से ही इस तरह के कई कारनामों को अंजान देना शुरू कर दिया था|

वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जिस तीव्रता से पहुँचते थे और दुश्मन पर जिस तीव्र वेग से आक्रमण करते थे उसके कारण उस वक्त उन्हें लोग “उडणा (उड़ने वाला) पृथ्वीराज” कहने लगे थे| मुंहता नैंणसी ने अपनी ख्यात में लिखा है कि पृथ्वीराज ने एक दिन में टोडा और जालौर जो एक दूसरे से 200 मील के अंतर पर है धावा किया और तब से वे ऊडणा पृथ्वीराज” कहलाये| पृथ्वीराज की तीव्र गति व विद्युत-वेग से शत्रु पर आक्रमण के चलते इस तरह उड़ने वाले की उपमा से उसकी युद्ध नीति समझी जा सकती है| इसी नीति के बल पर पृथ्वीराज ने अपनी अल्प सैन्यबल के बलबूते अपने से कई गुना बड़ी सेनाओं पर युद्धों में सफलतापूर्वक विजय पाई| 

नाहर मगरे की चारणी देवी के मंदिर की पुजारिन द्वारा सांगा को राजगद्दी मिलने की भविष्यवाणी के बाद तीनों राजकुमारों के बीच युद्ध और सांगा का घायल होकर भूमिगत होने की घटना का जब महाराणा रायमल को सन्देश मिला तो उन्होंने पृथ्वीराज को अपने सामने आने से मना कर दिया और अपनी वीरता के दम पर अपना जीवन निर्वाह करने का आदेश सुनाया| जिसके बाद पृथ्वीराज ने गोड़वाड़ क्षेत्र के मेवाड़ की सेना का खौफ ना खाने वाले मीणों व अन्य पहाड़ों में रहने वाली आदिवासी जातियों का विद्रोह शांत कर वहां सुप्रबंध कर, महाराणा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से चितौड़ का परित्याग कर दिया और एक महाजन से ऋण लेकर सैन्यदल का गठन कर मीणों व अन्य विद्रोहियों का दमन कर उन्हें अपने वश में कर लिया|

टोडा के सोलंकियों से अफगान लालखां द्वारा टोडा छीन लिया गया, तब सुरतान सोलंकी मेवाड़ के महाराणा की शरण में आ गया और महाराणा से बदनोर की जागीर प्राप्त कर वहां रह रहा था, लेकिन सुरतान की पुत्री ताराबाई के मन में अपने परिवार की पतित अवस्था खटकती थी, सो उसने अपने पैतृक राज्य टोडा का उद्दार करने हेतु घोड़े पर सवारी और हथियार चलाना सीखा| वह अक्सर घोड़े पर सैन्य वेशभूषा में ही रहती थी| उसकी वीरता, सुन्दरता और टोडा के उद्दार के प्रण के बारे में पृथ्वीराज ने सुना तो उसने ताराबाई को टोडा का उद्दार करने का वचन देते हुए शादी का प्रस्ताव रखा, जिसे ताराबाई ने पिता की स्वीकृति से स्वीकार कर लिया| उसके बाद पृथ्वीराज ने तारा के साथ मिलकर 500 राजपूतों का एक दल बनाया और एक दिन अचानक इतनी तीव्रता से हमला किया कि अफगान संभल ही नहीं पाये और भाग खड़े हुए, जो नहीं भागे वे मारे गये| इस तरह पृथ्वीराज अपनी पत्नी तारा के प्रण को पूरा करने में सहायक बना| अफगानों पर इस हमले की सूचना मिलते ही अजमेर के नबाब मल्लूखां ने बदला लेने की ठानी, लेकिन वह हमले के लिए आगे बढ़ता, उससे पहले ही पृथ्वीराज ने उसकी सेना पर प्रात:काल ही आक्रमण कर दिया और भारी रक्तपात के बाद अजमेर के प्रसिद्ध किले तारागढ़ पर कब्ज़ा कर लिया| ख्यात लेखकों ने लिखा है कि “उनके इन कामों से उसकी कीर्ति राजस्थान भर में फ़ैल गई और उसकी इस कीर्ति और लगन से उत्तेजित हो 1000 राजपूत उसके नक्कारे के चारों और एकत्रित हो गये| उनकी तलवारें आकाश में चमकती थी और उनके भय से पृथ्वी कांपती थी, परन्तु वे असहाय के सहायक थे|” 

इसी तरह पृथ्वीराज के एक और साहसपूर्ण आक्रमण का इतिहास में जिक्र है- उनकी भुआ (महाराणा कुम्भा की पुत्री) रमाबाई जिनका विवाह गिरनार के राजा मंडलीक के साथ हुआ था, पति पत्नी में अनबन थी, जिसके चलते मंडलीक अपनी पत्नी रमाबाई के साथ दुर्व्यवहार करता था| इस बात का समाचार पृथ्वीराज को मिला तो वह त्वरित गति से कुछ चुनिन्दा वीरों को लेकर गिरनार उसके महल में जा पहुंचा और मंडलीक ने पृथ्वीराज से दया की भीख मांगी| पृथ्वीराज ने दंड स्वरुप उसके कान का थोड़ा हिस्सा काटा और रमाबाई को लेकर मेवाड़ आ गया| 

सारंगदेव जिसने स्वयं के राज्य लोभ के चलते तीनों भाइयों के बीच राज्य के उतराधिकार की लड़ाई शुरू करवाई थी, द्वारा मालवे के सुलतान नासिरुद्धीन के साथ एक बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर आक्रमण किया, तब मेवाड़ महाराणा रायमल ने उनका मुकबला किया और घायल हुए, लेकिन आक्रमण के समाचार सुनते ही पृथ्वीराज अपने एक हजार राजपूतों के साथ अपनी चीर-परिचित गति से पहुंचे और युद्ध का नतीजा ही बदल दिया| सारंगदेव व पृथ्वीराज के बीच बहुत ज्यादा मुठभेड़े हुई थी| लेकिन युद्ध के बीच दोनों चाचा भतीजा ऐसे मिलते थे जैसे दोनों के बीच कोई शत्रुता ही ना हो| गिरनार विवाद की तरह ही एक दिन अचानक उनकी बहन का दुखभरा पत्र मिला, जिसमें उनकी बहन आनंदाबाई के पति सिरोही के शासक राव जगमाल के दुर्व्यवहार व अत्याचार की शिकायत के साथ अपनी रक्षा व मेवाड़ में शरण दिलाने की याचना थी| बहन का यह पत्र पढ़कर पृथ्वीराज तत्काल सिरोही की और कुछ गए और आधीरात को जगमाल के महल में जा पहुंचे| पृथ्वीराज उस निर्दयी को मौत के घाट उतारने ही वाले थे कि उनकी बहन को अपने पति पर दया आ गई और उसने उसके प्राणों की भीख मांग ली| पृथ्वीराज ने जगमाल को छोड़ दिया| जगमाल ने दूसरे दिन पृथ्वीराज का अपने दरबार में स्वागत-सत्कार किया और विदाई के वक्त तीन गोलियां (माजून की गोलियां जिन्हें बनाने में उसकी प्रसिद्धि थी) भेंट की| कुम्भलगढ़ के पास पहुँचते समय पृथ्वीराज ने अपने बहनोई द्वारा दी गई गोलियां खा ली, जिनमें जहर मिला हुआ था और खाते ही उनकी मृत्यु हो गई| इस तरह भारत का मेवाड़ की गद्दी का घोषित योग्यतम उतराधिकारी जो एक निर्भीक वीर, अदम्य साहसी, अप्रितम शौर्य का प्रतीक, दृढ निश्चयी, दुश्मन पर तीव्रता से आक्रमण करने वाला, जिसकी हिन्दुतान को भविष्य में जरुरत थी अपने बहनोई के विश्वासघात की बलि चढ़ गया|

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