गुरुवार, 8 सितंबर 2016

शहीद पूनमसिंह भाटी


भारत के इतिहास में और वीर योद्धा भूमि राजस्थान की बलीदानी परम्परा में जैसलमेर में जन्मे पुनमसिंह भाटी का नाम अमर है । पांचवी कक्षा तक अध्ययन करने के पश्चात् सत्रह वर्षीय पूनमसिंह सन 1956 में राजस्थान में चलाये गए ऐतिहासिक भूस्वामी आंदोलन का सत्याग्रही सत्यागढ़ी बनकर जेल चले गए । तीन माह की जेल भुगतने के पश्चात् पूनमसिंह नोकरी की तलाश में लग गए । अक्टूम्बर 1961 में वह अपने ग्राम साथी सुल्तान सिंह भाटी के साथ पुलिस सेवा में भर्ती हो गए !
 जैसलमेर जिला मुख्यालय से लगभग 120 किलोमीटर दूर भारत पाक सीमा की भुट्टो वाला सीमा चौकी पर राजस्थान पुलिस के कुल चार पाँच सिपाहियों के साथ जैसलमेर जिले के हाबुर (वर्तमान पूनमनगर) गांव का एक नवयुवक पूनम सिंह भाटी अपने देश की सरहद हिफाजत में अपने कर्तव्य का पालन कर रहा था ।इनके पिताजी का नाम जय सिंह भाटी और माताजी का नाम श्रीमती धाय कँवर था।
09 सितम्बर के दिन अपने गांव हाबुर में कुलदेवी माँ स्वांगियां का मेला था ।अपनी कुलदेवी के मेले में जाकर आशीर्वाद प्राप्त करने की चाह में 08 सितम्बर के दिन अस्त होने से पूर्व ही पूनम सिंह अवकाश लेकर अपने गांव की तरफ निकल पड़ा।
1965 के उस दौर में आवागमन के लिए मात्र ऊंट पर ही निर्भर रहना पड़ता था । भुट्टो वाला चौकी से भाटी का गांव लगभग 70 किमी की दुरी पर था । 
अभी भुट्टो वाला से 10 किमी तक का सफर ही तय किया था कि सामने पूनम सिंह के मुंह बोले एक भाई का गोळ (रहने का अस्थाई निवास)था। अपने मुंहबोले भाई के अनुरोध पर भाटी ने रात वहीँ रुकने का निश्चय किया , सोचा रात को यहाँ आराम करने के बाद सुबह गांव की और जल्दी निकलेंगे। लेकिन माँ स्वांगिया और कुदरत को कुछ और ही मंजूर था । रात को अपने मुंह बोले भाई और उसके बेटे की कानाफूसी सुनकर पूनम सिंह ने उनसे बात पूछी की आखिर माजरा क्या है। भाई ने कहा- कि पूनम अब तुम्हे अपने गांव की और निकलना चाहिए ताकि सुबह माता के मेले में समय से पहुँच सके। 
कुछ समय पूर्व रात यंहा रुकने का अनुरोध करने वाला यह भाई ऐसा क्यों बोल रहा है इसकी सचाई भांपते इस वीर को ज्यादा समय खर्च नहीं करना पड़ा। भाई के बेटे ने पूनम के सामने सारी बात एक ही साँस में कुछ यूँ रखी -" पाकिस्तान के कमांडर अफजल खान के साथ लगभग 40 घुसपैठिये भुट्टो वाला चौकी पर कब्जा करने के लिए चौकी की तरफ कूच कर चुके है लेकिन आप के तो ड्यूटी से 2-4 दिन के लिए अवकाश लिया हुआ है इसीलिए कह रहे है कि आप गांव की और निकल जाइये"।
आँखों में अंगारे उतर आये भाटी के एक ही झटके में खड़ा होकर सिंह की मानिंद गर्जना की-"पूनम सिंह भाटी अगर इस समय अपने कदम पीछे की और बढ़ाता है तो यह  जैसाण का अपमान होगा, अपमान होगा मेरी जन्मदात्री का, अपमान होगा भाटियों के उस विड़द उत्तर भड़ किवाड़ भाटी का,अपमान होगा भाटी वंश के उन तमाम वीरों का जिन्होंने जैसाण रक्षा हेतु केशरिया किया था , मेरा पीछे की ओर पड़ा हर एक कदम लज्जित करेगा गढ़ जैसाण को,लज्जित करेगा मेरी माँ के दूध को , पूनम सिंह के जिन्दा रहते भुट्टो वाला चौकी को अफजल खान तो क्या पूरी पाकिस्तानी आर्मी भी नहीं जीत सकती इतना कहते ही बिजली की गति से अपने ऊंट पर सवार होकर निकल पड़ा वापिस भुट्टो वाला चौकी की तरफ।
रात में चन्द्रमा की रौशनी में चारों तरफ फैले थार के इस महान रेगिस्तान का हर एक अंश सोने की तरह दमक रहा था । रात के इस सन्नाटे में धीमी गति से चलने वाली पवन की सांय-सांय को चीरता पूनम का ऊंट अपने मालिक को ले जा रहा था अपने गन्तव्य की ओर ।ऊँट जितना तेज दौड़ सकता था उतना तेज दौड़े जा रहा था मानो उसे भी अपने मालिक की तरह अपनी सरजमीं की हिफाजत का जूनून सवार हो।आधी रात को पूनम ने अपनी चौकी में प्रवेश किया । 
वहां बैठे हवलदार गुमान सिंह रावलोत के साथ  अन्य सिपाही पूनम के चेहरे को पढ़ने की कोशिस कर है थे कि आखिर हुआ क्या है इतनी जल्दी यह वापिस क्यों आ गया? उनके हर एक सवाल का जवाब पूनम ने पास में रखी बन्दूक उठाकर दिया । इस समय पूनम का बन्दूक संभालना उन वीरों को यह समझाने के लिए काफी था कि हमला किसी भी वक्त हो सकता है। 
अभी समय ज्यादा नहीं हुआ था कि चन्द्रमा की रौशनी में पूनम ने लगभग 35-40 इंसानी परछाइयों को चौकी की तरफ आते देखा। तब तक साथी भी समझ चुके थे कि चौकी को चारों और से दुश्मनों ने घेर लिया है।
एक क्षण तो पूनम का चेहरा रक्तवर्ण का हो चुका था आँखों में अंगारे तैर आये लेकिन दूसरे ही पल अपने आपको सँभालते हुए अपने साथियों को निर्देश देने लगा -"हमारे पास गोलियों की कमी है हर एक गोली सोच समझकर चलानी है एक भी गोली व्यर्थ नहीं जानी चाहिए"। इतना कहकर रेत के बने अपने बंकर में मोर्चा संभाल लिया। दूसरे साथी भी मोर्चा संभाले हुए थे पहली गोली चलने के बाद उस चांदनी रात में दुश्मनो के लिए साक्षात् महाकाल बनकर टूटा पूनम।
माँ स्वांगिया के आशीर्वाद से इस बियाबान रेगिस्तान में पूनम और उसके साथियों की बन्दुके रह रहकर आग उगल रही थी । पूनम सिंह और उसके साथियों को एक बात निश्चित पता थी कि इस रेगिस्तान में हिंदुस्तानी सेना या राजस्थान पुलिस की सहायता मिलना बहुत ही मुश्किल था क्योंकि उस दौर में संचार के साधन नहीं थे । मोर्चा लिए हुए पूनम अपने साथियों में लगातार जोश भर रहा था तथा उन्हें यह बात भी अच्छे से समझा दी कि हम हमारे जीते जी अपनी इस चौकी को छोड़ नहीं सकते इसलिए केवल एक ही रास्ता है कि इन घुसपैठियों का काम तमाम करना ।रात के अँधेरे में पुराने हथियारों के दम पर माँ भारती के इन सपूतों ने पाकिस्तानी कमांडर अफजल खान सहित लगभग 15 घुसपैठियों को ढेर कर दिया था जिसमे अफजल खान सहित कुल 7 की मौत पूनम के अचूक निशाने का परिणाम थी।
इस दौरान अपने कमांडर के मारे जाने से विरोधियों के पैर उखड़ने लगे थे । उन्हें आज समझ आ गया था कि उनका पाला भारत के शेरों से पड़ा है । हालाँकि बन्दुके अभी भी गरज रही थी लेकिन अब हर एक गोली छूटने के काफी देर बाद दूसरी गोली छूट रही थी ।4-5 घण्टे के इस मैराथन युद्ध में हमारी पुलिस की गोलियां लगभग समाप्त हो गयी थी । एक बार फिर पूनम के साथियों के माथे पर चिंता की लकीरे आ गई क्योंकि वे जानते थे सुबह होने में महज  घण्टे भर का फासला है अगर कारतूसों का बन्दोबस्त नही हो पाया तो चौकी पर कब्जा रोकना असम्भव होगा। 
अपने साथियों की परेशानी देखकर पूनम ने अपने बंकर से बाहर झाँका पास में गिरी एक पाकिस्तानी लाश के कमर पर बंधा कारतूसों का बेल्ट देखकर पूनम की आँखों में चमक सी आ गई।लेकिन वहां तक पहुंचना मुश्किल था क्योंकि उसके ठीक पीछे बाकि के पाकिस्तानी रेत की आड़ में बैठे थे लेकिन भाटी निश्चय कर चुका था उसने रेंगकर किसी तरह उस बेल्ट को पाने में सफलता प्राप्त कर ही ली अब एक बार फिर बाजी भारतीय शेरों के हाथ में थी पाकिस्तानियों के पीछे हटते कदमो को देखकर पुरे जोश के साथ फायरिंग हो रही थी कि तभी दुर्भाग्य से दुश्मन की बन्दूक से निकली एक गोली पूनम के ललाट में धंस गई । पूनम के साथियों के सामने यह एक भयंकर दृश्य था । लेकिन पूनम के चेहरे पर चिर परिचित मुस्कान.......समय मानो अपनी आम रफ़्तार से कुछ तेज दौड़ रहा था साथियों की आँखों में आंसुओ की बाढ़ सी आने लगी थी । पूनम का हर एक साथी उसे मानो यह बताना चाह रहा हो कि देखो तुम्हारी बन्दूक का कमाल दुश्मन पीठ दिखाकर भाग रहा है । लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था सुबह की लालिमा से रेत फिर जगमगा रही थी लेकिन उसी समय जैसलमेर की धरा का एक सपूत चिर निद्रा के आगोश में समा चुका था।पूनम ने फिर इस राजस्थान भूमि का नाम रोशन कर दिया जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि रेगिस्तान कि भूमि वीर प्रसूता भूमि है।
कुछ समय बाद नजदीकी गांव साधना में पूनम सिंह के शहीद होने की सुचना पहुंची गांव वालों और पुलिसवालों के सहयोग से भाटी के पार्थिव शरीर को पहले साधना गांव लाया गया।
दूसरी और हाबुर गांव में कुलदेवी के मेले की तैयारियां चल रही थी बच्चे ,बूढ़े,महिलाये और युवा माँ स्वांगिया की पूजा हेतु तैयार होकर जाने ही वाले थे कि पूनम के शहीद होने की खबर आ गई । पुरे गांव में आग की तरह फैली यह ख़बर ।क्या बूढ़ा क्या जवान हर एक ग्रामीण कि छाती गर्व से फूली हुई थी।
पूनम के घर में सिसकियाँ के साथ परिवारजनो को ढांढस बंधाया जा रहा था ग्रामीण जोश में एक दूसरे को गर्व से बता रहे थे कि -पूरी रात डटा रहा अपना पूनम अपने मोर्चे पर, और पाकिस्तानियों को भगाकर ही सांस छोड़ी ।
उसी दिन शहीद का पार्थिव शरीर जैसलमेर शहर लाया गया । जहाँ आम जनता अपने इस हीरो को अंतिम बार नजर भरकर देख रही थी। हर कहीं से एक ही आवाज आ रही थी कि आज फिर जैसाण के एक बहादुर सिपाही ने अपने अदम्य साहस से अपने कुल,अपने परिवार,अपने वँश की बलिदानी परम्परा को अक्षुण् रखने हेतू,अपनी भारत माँ के चरणो में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।
धन्य है हाबुर की वो परम धरा जहाँ ऐसे सपूत ने जन्म लिया, धन्य है वो माँ जिसने पूनम जैसे वीर को जन्म दिया, धन्य है वो पिता जिसने अपने बेटे में मातृभूमि के लिए मर मिटने के संस्कार डाले। 
इन सबके साथ धन्य हुआ भुट्टो वाला का वो रेगिस्तान जहाँ इस बहादुर के रक्त की बुँदे गिरी।
मरणोपरांत शहीद को राष्ट्रपति पदक से समान्नित किया गया तथा शहीद पूनम सिंह के नाम से उनके गांव का नाम बदलकर श्री पूनमनगर किया गया । जैसलमेर शहर में शहीद पूनम सिंह स्टेडियम का निर्माण भी करवाया गया।
शहीद पूनम सिंह बलिदान दिवस समिति के संयोजक ठाकुर लख सिंह पूनमनगर के प्रयासों से शहीद के बलिदान दिवस अब प्रत्येक वर्ष 09 सितम्बर को जैसलमेर जिला मुख्यालय एवम् भाटी के  पैतृक गांव में मनाये जाते हैं।तथा पुरानी भुट्टो वाला सीमा चौकी(रामगढ से 50 किमी) पर भी भाटी की छतरी पर पूजा अर्चना की जाती है।
पुनमे नों हाबोनों आज भी लोकगीत उनकी याद में गाये जाते है आज उनके सहादत दिवस पर शत शत नमन धन्य है धरा ऐसे सपूत पैदा हुए

जगदेव परमार

जगो यहाँ पर जगदेवों की लगी है बाजी जान की।
अलबेलों ने लिखी खड़ग से गाथाएँ बलिदान की।॥

जगदेव परमार मालवा के राजा उदयादित्य के पुत्र थे। मालवा की राजधानी धारानगरी थी जो कालान्तर में उज्जैन नगर के नाम से प्रसिद्ध हुई। मालवा के परमार वंश में हुए राजा भर्तृहरि बाद में महान नाथ योगी (सन्त) बने, भर्तृहरि के छोटे भाई राजा वीर विक्रमादित्य बड़े न्यायकारी राजा हुये। विक्रम सम्वत इसी ने हुणों पर विजय के उपलक्ष में चलाया था। विद्याप्रेमी एवं वीर भोज भी मालवा के परमार राजा थे, जो स्वयं विद्वान थे। बारहवीं शताब्दी में इस प्रदेश ने एक ऐसा अनुपम रत्न प्रदान किया जिसने वीरता और त्याग के नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर क्षात्र धर्म को पुनः गौरवान्वित किया। यह वीर थे जगदेव परमार। लोक गाथाओं में इन्हें वीर जगदेव पंवार के नाम से याद किया जाता है।

राजा उदयादित्य की दो पत्नियाँ थी। एक सोलंकी राजवंश की और दूसरी बाघेला राजवंश की। सोलंकी रानी के जगदेव नाम का पुत्र और बघेली रानी से दूसरा पुत्र रिणधवल था। राजकुमार जगदेव बड़ा थे। राजकुमार जगदेव साहसी योद्धा था और सेनापति के रूप में उसकी कीर्ति सारे देश में फैल गई थी। अपनी बाघेली रानी के प्रभाव से प्रभावित होकर उदयादित्य ने रिणधवल को युवराज चुना। अपनी सौतेली माता की ईर्ष्या के कारण जगदेव कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे थे। वह मालवा से चले गये और जीविका के लिए गुजरात में सिद्धराज जयसिंह के अधीन सैनिक सेवा स्वीकार की। वह अपनी वीरता और स्वामीभक्ति से बहुत ही अल्पकाल में अपने स्वामी के प्रिय हो गये। कुछ आसन्न संकट से सिद्धराज की सुरक्षा करने के लिए अपने जीवन को अर्पण किया। जगदेव परमार ने कंकाळी (देवी) के सामने अपना मस्तक काट कर अर्पित कर दिया था, जिससे देवी ने उसके बलिदान से प्रसन्न होकर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया था। जगदेव ने यह बलिदान अपने स्वामी पर आए संकट के अवसर पर दिया था। जब राजा को उसके इस बलिदान का पता लगा तो उसने प्रसन्न होकर उनको एक बहुत बड़ी जागीर दी। और अपनी एक पुत्री का विवाह जगदेव के साथ कर दिया।

कुछ समय बाद यह सूचना पाकर कि सिद्धराज मालवा पर आक्रमण करने की तैयारियाँ कर रहा है, उसने अपना पद त्याग कर अपनी जन्मभूमि की रक्षा करने के लिए धारा नगरी चला आया। उसके पिता ने उसका बड़े स्नेह से स्वागत किया और रिणधवल के स्थान पर जगदेव को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उदयादित्य की मृत्यु के पश्चात् जगदेव मालवा के सिंहासन पर बैठे।

राजस्थान की लोक गाथाओं में वह जगदेव पंवार के नाम से जाने जाते है जबकि मालवा में लक्ष्मदेव के नाम से प्रसिद्ध हुये। जगदेव वि.सं. ११४३ (ई.स. १०८६) के लगभग मालवा के राजा बने। वह एक बड़ी सेना लेकर दिग्विजय के लिए निकले। बंगाल के पाल राजा पर आक्रमण कर वहाँ से बहुत से हाथी लूटकर लाये। इसके बाद चेदी प्रदेश के कलचुरियों पर आक्रमण करने के लिए बढे। उस समय वहाँ यश:कर्ण का राज्य था। यश:कर्ण साहसी योद्धा था और चम्पारण विजय कर कीर्ति प्राप्त की थी। किन्तु वह मालवा सेना के आक्रमण के सामने ठहर नहीं सका। जगदेव (लक्ष्मदेव) ने उसके राज्य को पद दलित किया और उसकी राजधानी त्रिपुरी को लूटा। उसने अङ्ग और कलिंग राज्य की सेनाओं को परास्त किया।
जगदेव ने दक्षिण भारतीय राज्यों पर भी आक्रमण किए थे। लेकिन दक्षिणी राज्यो में आपस में मैत्री होने से वह सफल न हो सके। मालवा के दक्षिण में चोलों का राज्य था। दोनों राज्यों के बीच बहुत कम दूरी रह गई थी। इस क्षेत्र पर अधिकार करने के लिए दोनों ही राज्य लालायित थे अतः दोनों में युद्ध होना अवश्यंभावी हो गया। जगदेव का चोल राजा कुलोतुंग प्रथम से संघर्ष हुआ। युद्ध में चोल पराजित हुए।

गुजरात के सीमान्त पहाड़ी क्षेत्रों में बर्बर पहाड़ी जनजातियाँ निवास करती थी जो सन्त, पुण्यात्मा ऋषियों को निरन्तर दुःख देते थे। जगदेव ने उन बर्बर जातियों को दण्डित किया। कांगड़ा जनपद के कीरों से युद्ध कर उन्हें परास्त किया। उसके समय में मुसलमानों ने मालवा पर चढ़ाई की। मुस्लिम सेना को कुछ प्रारम्भिक विजय प्राप्त हुई। किन्तु अंततः वे जगदेव द्वारा पीछे ढकेल दिए गए। जगदेव (लक्ष्मदेव) एक वीर योद्धा और निपुण सेनानायक थे। पश्चिमी भारत के लोग अब भी जगदेव के नाम का उसकी उच्च सामरिक दक्षता व बलिदान के लिए हमेशा स्मरण करते हैं। निश्चय ही वे ग्यारहवीं शती के अन्तिम चरण का एक उतुंग व्यक्ति थे। एक उल्का की तरह वह थोड़े समय के लिए मध्यभारत के क्षितिज में चमके और अपने पीछे चिरकीर्ति छोड़ कर लोप हो गये। शासक के रूप में वह अत्यन्त दयालु, प्रजा वत्सल और न्यायकारी राजा थे। सम्राट विक्रमादित्य और राजा भोज की उदात्त परम्पराएं इन्होंने पुनः शुरु की। वेष बदल कर ये जनता की वास्तविक स्थिति का पता लगाने जाया करते थे। प्रजा की भलाई के अनेक कार्य किये। इनका शासन काल लगभग वि.सं. ११५२ (ई.स. १०९५) तक रहा।

लेखक : छाजूसिंह, बड़नगर