“शायद आश्विन के नौरात्र थे वे । पिताजी घर के सामने के कच्चे चबूतरे पर शस्त्रों को फैला कर बैठे हुए थे । उनके हाथ में चाँदी के मूठ की एक तलवार थी जिस पर वे घी मल रहे थे । माताजी पास में ही बैठी उन्हें पंखा झुला रही थी । दिन का तीसरा प्रहर था वह । सामने के नीम के पेड़ के नीचे हम सब बालक खेल रहे थे । बालकों की उस टोली में मेरे से छोटे कम और बड़े अधिक थे । उस दिन बहुत से खेल खेले गए और प्रत्येक खेल में मैं ही विजयी रहा । मेरे साथी बालक मेरी शारीरिक शक्ति, चपलता और तीव्र गति से मन ही मन मेरे से कुढ़ते थे और मैं अपने इन गुणों पर एक विजयी योद्धा की भाँति सदैव गर्व करता था । दो साँड़ों की अचानक लड़ाई से हमारे खेल का तारतम्य टूट गया । साँड़ लड़ते-लड़ते उधर ही आ निकले थे इसलिए सब बच्चे उनके भय से अपने-अपने घर दौड़ गए । मैंनें उन लड़ते हुए साँड़ों के कान पकड़ लिए । न मालूम क्यों उन्होंने लड़ना बन्द कर दिया । उनमें से एक साँड़ मुझे मारने ही वाला ही था कि मैं उसका कान छोड़ कर पूरी गति दौड़ पड़ा । वह साँड़ भी मेरे पीछे दौड़ पड़ा पर उसे कई हाथ पीछे छोड़ता हुआ मैं कूद कर माताजी की गोद में जा बैठा।.......’
“... मैंने अनुभव किया कि गर्म जल की एक बूंद मेरे गालों को छूती हुई नीचे जा गिरी । मैंनें उनपर देखा तो माताजी की ऑखे सजल थी ।’’ मैंने पूछा -“आप क्यों रो रही हैं ?’
उन्होंने एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए उत्तर दिया - ‘‘यों ही ।’
मैंने भूमि पर पैरों को मचलते हुए कहा - “सच बताओ ।’
वे मेरी हठी प्रवृत्ति को जानती थी । इसलिए बोली -“तुम्हें देख कर ऐसी ही भावना हो गई ।’
मैंने पूछा- क्यों?
उन्होंने उत्तर दिया - ‘‘तेरी चपलता और तेज दौड़ को देख कर ‘‘
मैंने कहा -“इसी के कारण तो मैं सभी खेलों में जीता हूँ, इसलिए आपको तो प्रसन्न होना चाहिए ।’ उन्होंने कहा -“तेरी इस चपलता को देख कर मुझे डर होने लगा है कि कहीं तू मेरे दूध को न लजा दे ।’ मैंने पूछा -‘‘मैं आपके दूध को कैसे लजा दूँगा ?’ वे बोली - “डर कर यदि तू कभी युद्ध से भाग गया और कायर की भाँति कहीं मर गया तो दोनों पक्षों को लज्जित होना पड़ेगा । मेरे दूध पर कायर पुत्र की माता होने के कारण कलंक का अमिट धब्बा लग जाएगा । तेरी चपलता और गति को देख कर मुझे सन्देह होने लगा है कि कहीं तू इसी भाँति रणभूमि से न दौड़ जाए।”
“... मैं लज्जा और क्रोध से तिलमिला उठा । अब तक अपनी जिस विशेषता को मैं गुण समझ रहा था, वह अभिशाप सिद्ध हुई । मैं माताजी के सन्देह को उसी समय मिटाना चाहता था । मैंनें तत्काल निर्णय किया और माताजी की गोद से उठ कर पास में पड़ी हुई एक तलवार को उठा कर अपने पैर पर दे मारा । मैं दूसरा वार करने ही वाला था कि पिताजी ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और डांट कर पूछा- यह क्या कर रहा है ?’
मैंनें कहा -“ अपने पैर को काट कर माताजी का सन्देह मिटा रहा हूँ. एक पैर कट जाने पर मैं युद्ध-भूमि से भाग नहीं सकँगा|“
पैर से खून बह चला । पिताजी ने कहा - ‘‘यह लड़का बड़ा उद्दण्ड होगा । माताजी ने सगर्व नेत्रों से मेरे पैर के घाव को दोनों हाथों से ढक दिया।’
‘धर्मदासजी, यह घटना सत्तर वर्ष पुरानी है, पर लगता है जैसे कल ही घटित हुई ।“ यह कहते हुए वृद्ध सरदार ने अपनी आँखें खोली ।
“सन्निपात का जोर कुछ कम हुआ है, गुरूजी ?’ चरणदास ने कुटिया में प्रवेश करते हुए पूछा।
“यह सन्निपात नहीं है बेटा ! तुम शीघ्र जाकर खरल में रखी हुई औषधि का काढा तैयार कर ले आआो ।’’
रात्रि के सुनसान में धर्मदास जी की कुटिया धीमे प्रकाश में जगमगा उठी । नदी में जल पीने को जाता हुआ सुअरों का एक झुण्ड उस प्रकाश से चौकन्ना होकर डर्र-डर्र करता हुआ तेजी से दूर भाग गया । चरणदास ने धूनी में और लकडियाँ डालते हुए सुअरों को दूर भगाने के लिए जोर से किलकारी मारी । कुटिया के सामने बँधा हुआ घोडा अपनी टाप से भूमि खोदता हुआ हिनहिनाया । उस हिनहिनाहट की ध्वनि से नि:स्तब्ध वन में चारों ओर ध्वनि का विस्तार हो गया । सैकड़ों पशु-पक्षियों ने उस ध्वनि का अपनी-अपनी भाषा में प्रत्युत्तर दिया । थोड़े समय के लिए उस नीरव वन में एक कोलाहल सा मच गया । धर्मदास जी भी इस कोलाहल से प्रभावित होकर बाहर आए, देखा - चरणदास आग में पूँके मार रहा था ।
“शीघ्रता करो बेटा !’ कहते हुए उन्होंने समय का अनुमान लगाने के लिए आकाश की ओर देखा । पश्चिमी क्षितिज पर मार्गशीर्ष की शुक्ला दशमी का चन्द्रमा अन्तिम दम तोड़ रहा था । और फिर वे तत्काल ही कुटिया के भीतर चले गए ।
क्षिप्रा नदी के प्रवाह द्वारा तीन ओर से कट जाने के कारण एक ऊँचा और उन्नत टीला अन्तद्वीपाकर बन गया था । उसके पूर्व में विस्तृत और सघन वन था । लगभग तीस वर्ष पहले इसी स्थान पर क्षिप्रा के सहवास में धर्मदास जी ने तपस्या के लिए अपना आश्रम बनाया, धर्मदासजी के परिश्रम के कारण आश्रम एक सुन्दर तपोवन में परिवर्तित हो गया। था । तीन वर्ष पहले एक धनाढ्य युवक ने आकर उनसे दीक्षा ली थी । यही युवक चरणदास के नाम से उनका शिष्य होकर विद्याध्ययन और गुरू-सेवा करने लगा । धर्मदास जी शास्त्रों के प्रकाण्ड पंडित, आयुर्वेद के पूर्ण ज्ञाता, तपस्वी और सात्विक प्रवृति-सम्पन्न महात्मा थे । उनके ज्ञान और तपोबल से आश्रम में सदैव शान्ति का वातावरण रहता था । एक कुटिया, कमण्डल, मिट्टी के कुछ पात्र, चिमटा, पत्थर की एक खरल, कुछ पोथियाँ और थोड़े से मोटे-मोटे ऊनी और सूती वस्त्र- बस यही उनकी सम्पति थी । वन के कन्द, मूल, फल और कभी-कभी चरणदास द्वारा प्राप्त भिक्षान्न द्वारा उनका निर्वाह सरलता से हो जाता था |
धर्मदास जी के इसी आश्रम पर दस दिन पूर्व संध्या समय वीर-भेष में एक वयोवृद्ध सरदार अतिथि के रूप में आए । उनका घोड़ा उन्नत, बलिष्ठ और तेजस्वी था । सरदार की वेश-भूषा, आकार-आकृति और व्यवहार में स्पष्ट रूप से सौम्यता, सरलता और अधिकार की व्यंजना होती थी । वे एक असाधारण व्यक्तित्व -सम्पन्न व्यक्ति थे । उस समय उन्हें हल्का ज्वर था । धर्मदासजी ने अतिथि का यथायोग्य सत्कार किया । वे प्रात:काल उठ कर जाना चाहते थे पर उनके बिगड़ते हुए स्वास्थ्य को देख कर धर्मदासजी ने आग्रह करके उन्हें वहीं रोक लिया । वे दस दिनों से सावधानीपूर्वक उनकी चिकित्सा कर रहे थे पर रोग घटने के स्थान पर बढ़ता ही चला जा रहा था । उस रात को धर्मदासजी को विश्वास हो गया था कि अब सरदार का अन्तिम समय आ पहुँचा है ।
“मैं आज निर्धन और असहाय हूँ, धर्मदासजी इसीलिए आपसे सेवा कराने के लिए विवश हूँ ।’
सरदार ने अपनी घास की शय्या पर हाथ फेरते हुए कहा । ‘‘कयों मेरी सेवा से क्या आपति है महाराज?‘‘
‘‘आप महात्मा हैं और मैं . |''
‘ऐसे मत कहो दुर्गादासजी, आप महात्माओं के भी पूजनीय हैं ।“ आपकी त्याग और तपस्या के सामने हमारी तपस्या है ही कितनी ?’
‘‘पर आप ब्राह्मण जो हैं ।’’
“आप भी तो हमारे अतिथि हैं। अतिथि-सेवा से बढ़ कर पुण्य लाभ और क्या हो। सकता है ? और फिर आप जैसे अतिथि तो किसी भाग्यवान को ही मिलते हैं।’’
इतने में चरणदास काढा लेकर आ गया । धर्मदासजी ने दुर्गादास जी की नाड़ी देखते हुए उन्हें काढा पिला दिया । फिर उन्होंने पूछा - ‘गीता सुनाऊँ दुर्गादासजी ?
“नहीं धर्मदासजी, अब गीता सुनने का समय नहीं। अब उसे क्रियान्वित करने का समय है ।’’
काढा पीने से उनके शरीर में कुछ गर्मी आई । हाथ के संकेत से धर्मदासजी को अपने पास बुलाते हुए उन्होंने कहा - ‘मुझे सहारा देकर बैठा दो ।”
धर्मदास जी ने घास का गट्ठर उनके सिरहाने रखते हुए उन्हें गट्टर के सहारे बैठा दिया ।
‘धर्मदास जी सत्तर वर्ष पुरानी वह घटना अब ज्यों की त्यों याद आ रही है । मेरे इस शरीर में छोटे-बड़े अनेकों घाव हैं, पर न मालूम क्यों पैर वाले उस छोटे से घाव में आज पीड़ा अनुभव हो रही है । मुझे ऐसा लग रहा है कि वह माताजी के सामने किए गए संकल्प की मुझे याद दिला रहा है। यह कह कर उन्होंने बाँई पिण्डली के उस घाव पर हाथ फेरना प्रारम्भ कर दिया ।
“कभी-कभी अन्य लोकों में पहुँच जाने के उपरान्त भी हमारी शुभचिन्तक आत्माएँ हमारा परोक्ष रूप से मार्गदर्शन करती और हमें अपने कर्त्तव्य का स्मरण दिलाती रहती हैं ।’’
“हाँ, धर्मदासजी ! मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि जैसे माताजी का सन्देश कोई मेरे कानों में कह रहा है ।‘‘
इतना कह कर उन्होंने अपनी गर्दन के नीचे किसी सहारे के लिए संकेत किया । धर्मदासजी ने अपना ऊनी कम्बल उनकी गर्दन के नीचे रख दिया ।
“पर धर्मदासजी, मैं कभी डर कर युद्ध-भूमि से भागा नहीं। काबुल की बफॉली घाटियों में सैकड़ों पठानों को हम दो-तीन आदमी अपने वश में कर लेते थे । वे भीमजी कितने बहादुर थे । वे थे तो हमसे बड़े पर अफीम खाने के कारण हम उन्हें अमलीबाबा ही कह कर पुकारते थे । बड़े दरबार भी उन्हें अमलीबाबा ही कहा करते थे ।’
“..... हाँ तो एक दिन मीर के एक पठान पहलवान ने आकर कहा कि राठौड़ी लश्कर में मुझसे लड़ने वाला कौन है ? इतना सुनना था कि अमलीबाबा तलवार लेकर सामने आ खड़े हुए । उनके दुबले-पतले शरीर को देख कर पठान पहलवान खूब हँसा । मैंनें तलवार की मूंठ पर हाथ रखा पर दरबार ने इशारे से मुझे बैठा दिया । बात की बात में पहलवान ने अमली बाबा को अपने भाले की नोंक से पिरो कर उलटा लटका दिया और खड़ा कर दिया । दरबार का लज्जा के मारे मुँह नीचा हो गया। । इतने में कोई गूंज उठा ‘‘रण बंका राठौड़ सब लश्कर ने एक साथ दोहराया “रण बंका राठौड़’ इतना सुनना था कि अमलीबाबा ने अपने पेट का एक जोरदार धक्का नीचे की ओर दिया । भाला उनके शरीर को चीरता हुआ ऊपर निकलता गया और अमलीबाबा नीचे की ओर सिरकने लगे । ज्योंही पहलवान के सिर से एक हाथ ऊपर रहे तलवार का एक ऐसा हाथ मारा कि उस पठान का सिर भुट्टे की तरह कट कर दूर जा गिरा ।”
‘अब थोड़ा विश्राम कीजिए दुर्गादासजी ॥“
“मैंनें जीवन में कभी विश्राम नहीं किया धर्मदासजी । अब महाविश्राम करने जा रहा हूँ, इसलिए इस क्षणिक विश्राम की आवश्यकता ही क्या है ?’
‘‘दिल्ली में रूपसिंह राठौड़ की हवेली में अपने स्वामी की राणियों को जौहर-स्नान करा कर मैं शाही लश्कर को काटता हुआ निकल गया । सैकड़ों बार मैं शाही लश्कर को काटता हुआ इधर से उधर निकल गया पर डर कर एक बार भी नहीं भागा । मैंनें माताजी के दूध को कभी नहीं लजाया धर्मदासजी ।’
“.................मैंने सदैव औरंगजेब के प्रलोभनों को ठुकराया, घाटी की लड़ाई में औरंगजेब की बेगम गुलनार को कैद करके उसके साथ भी सम्मान का व्यवहार किया, अकबर के बाल-बच्चों को अपने ही बच्चों की भाँति लाड़-प्यार से रखा - पराजित शत्रु पर कभी वार नहीं किया । मैंनें स्वधर्म का उल्लंघन नहीं किया धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी |''
“..... मैंनें अपने स्वामी के द्वारा सौंपे गए कर्त्तव्य को भली-भाँति पूरा किया । तीस वर्षों के निरन्तर संघर्ष के उपरान्त मरूधरा आज स्वतंत्र हुई । मेरे स्वर्गीय स्वामी महाराज जसवन्तसिंहजी के आत्मज जोधपुर की गद्दी पर विराजमान हैं । चामुण्डा माता उनका कल्याण करें । अजीतसिंह जी जन्मे ही नहीं थे उसके पहले ही मैंनें उनकी सुरक्षा का वचन अपने स्वामी को दिया था । आज वे पूर्ण युवावस्था में जोधपुर की गद्दी पर आसीन हैं - मेरे कर्त्तव्य की इतिश्री हुई । मैंनें स्वामी-सेवक धर्म का भली-भाँति पालन किया है धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी ।’
“.... मैंनें शत्रु को कभी विश्राम नहीं करने दिया और न कभी मैं विश्राम से सोया। नींद मैंनें घोड़े की पीठ पर ही ली, बाटी मैंनें भाले से घोड़े की ही पीठ पर से सेकी और खाई उसे घोड़े की ही पीठ पर । मैंनें राजस्थान के प्रत्येक वन, पहाड़, नदी, नाले, पर्वत और घाटी को छान डाला पर कर्त्तव्य की भावना को कभी ओझल नहीं होने दिया धर्मदासजी । माताजी के दूध को कभी लजाया नहीं धर्मदासजी ।’
इतना कह कर दुर्गादासजी ने तीन बार हरि ओम तत्सत् का उच्चारण किया और एक जंभाई ली । धर्मदास जी ने कहा -“आप मारवाड़ के ही नहीं भारत के सपूत हैं दुर्गादासजी । वह जननी बड़ी भाग्यशालिनी है जिसने आप जैसे नर-रत्न को जन्म दिया है |''
“पर अब मैं उसके दूध को लजा रहा हूँ धर्मदासजी ॥“
“हैं ! यह आप क्या कह रहे हैं दुर्गादासजी ? आपका कोई कार्य ऐसा नहीं है जो शास्त्र, धर्म, मयदिा और कर्त्तव्य के विरूद्ध हो ।’
“हैं धर्मदासजी ! माताजी मुझे भीष्मजी की कहानी सुनाया करती थी और कहा करती थीं कि आदर्श क्षत्रिय वही है जिसे भीष्मजी की सी मृत्यु प्राप्त होने का सौभाग्य हो । वे शैया की मृत्यु को कायर की मृत्यु कहा करती थी और आज मैं तृण-शैया पर कायर की भाँति प्राण त्याग रहा हूँ । क्या यह उनके दूध को लजाने के लिए पर्याप्त नहीं है धर्मदास जी ?'
“शास्त्रों में इस प्रकार की मृत्यु .. ॥“
“शास्त्रों के नहीं, वर्तमान अवसर के अनुसार यह मृत्यु वीरोचित नहीं है ।’
अन्तिम शब्द दुर्गादास जी ने कुछ ऊँचे स्वर से कहे थे। अपने स्वामी का स्वर सुन कर कुटिया के सामने बँधा हुआ घोड़ा जोर से हिनहिना उठा । स्वामी की रूग्णावस्था का अनुमान लगा कर उस मूक पशु ने तीन दिन से दाना-पानी और घास बिल्कुल छोड़ दिया था । निरन्तर उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे । उसकी हिनहिनाहट सुन कर दुर्गादासजी को उसकी स्वामी-भक्ति और कृतज्ञता का स्मरण हो उठा । उनके विशाल नेत्रों में से भी कृतज्ञता का स्त्रोत फूट पड़ा और उनकी श्वेत दाढ़ी में मोतियों का रूप धारण कर उलझ गया । दोनों की आत्मा का अन्तर दूर हो गया । दोनों ने मूक रहते हुए ही एक दूसरे की भावना और विवशता को समझ लिया ।
“धर्मदासजी मेरे घोड़े पर जीन कराइए। मैं आज मृत्यु से युद्ध करूँगा । इस शैया पर आकर वह मुझे दबोच नहीं सकती ।’
यह कहते हुए दुर्गादासजी एक बालक की-सी स्फूर्ति से उठे और कवच तथा अस्त्रशस्त्र बाँधने लगे । चरणदास ने गुरू की आज्ञा पाकर तत्काल ही घोड़ा तैयार कर दिया । दुर्गादासजी ने धर्मदासजी के चरणों पर श्रद्धा सहित प्रणाम किया और वे उसी स्फूर्ति सहित घोड़े पर जा सवार हुए । धर्मदास जी भली भाँति जानते थे कि दुर्गादासजी अब इस संसार में कुछ ही घड़ियों के मेहमान हैं पर उस समय उनके मुख मण्डल पर व्याप्त अद्भुत तेजस, प्रकाश और लालिमा को देख कर उनको रोकने का उन्हें साहस न हुआ। “बुझने के पहले दीपक की लौ की भभक है यह ।“ उन्होंने मन ही मन गुनगुनाया ।
इधर प्राची में भगवान मार्तण्ड अपने सहस्त्रों करों द्वारा उदयाचल पर आरूढ़ हुए, उधर जोधपुर दुर्ग में नक्कारे और शहनाइयाँ बज उठी । सुरा, सुन्दरी और सुगन्धि की उपस्थिति विगत रात्रि के महोत्सव की सूचना दे रही थी । मारवाड़ के उद्धार की ऐतिहासिक स्मृति के उपलक्ष में आयोजित महोत्सव-श्रृंखला में उस रात का महोत्सव सर्वोत्तम था । मारवाड़ के स्वातन्त्र्य संग्राम में लड़ने वाले योद्धाओं को जी खोल कर इनाम, जागीरें और ताजीमें दी गई और उसी समय क्षिप्रा नदी के किनारे राठौड़ वंश का उद्धारक, मारवाड़ राज्य का पुनर्सस्थापक निर्धन, निर्जन और असहाय अवस्था में जननी जन्म-भूमि से सैंकड़ों कोस दूर निर्वासित होकर मृत्यु से अन्तिम युद्ध की तैयारी में तल्लीन था । न उसके मुख पर क्लेश था, न पश्चाताप और न शोक । सुदूर प्राची में आकाश का सूर्य उदय हो। रहा था और दूसरी ओर जोधपुर से सैकड़ों कोस दूर निर्जन एकान्त में राठौड़ वंश का सूर्य सदैव के लिए अस्त हो रहा था । अपने जीवन में उस दिन कृतघ्नता सबसे अधिक हँसी, खेली और कूदी, जिसके पाद प्रतिघातों से आक्रान्त होकर उन्नत-लहर क्षिप्रा शरदकालीन शान्त प्रवाह में अपने गौरवशाली अस्तित्व को परिव्याप्त करते हुए सदैव के लिए व्याप्त हो गई ।
प्रातःकाल वालों ने देखा कि भूमि में भाला गाड़े हुए समाधिस्थ योगी की भाँति घोड़े की पीठ पर एक वृद्ध योद्धा बैठा था, न वह हिलता था और न किसी प्रकार की चेष्टा ही करता था । घोड़े की निस्तेज आँखों में से निरन्तर टप-टप आँसू टपक रहे थे, पर हिलता वह भी नहीं था। धर्मदासजी की कुटिया पर यह संवाद पहुँचते ही तत्काल वे वहाँ पर पहुँच गए, देखा –
घोड़े की पीठ पर से बाटी सेकने वाला और उसी पर निद्रा लेने वाला आज उसी की पीठ पर बैठ कर महानिद्रा की गोद में सो गया है। उनके मुँह से इतना ही निकल पड़ा –
“धन्य है दूध की लाज’ और दूसरे ही क्षण वे बच्चों की भाँति फूटकर रो पड़े।
लेखक : स्व.आयुवान सिंह शेखावत, हुडील
साभार :- ज्ञान दर्पण