सोमवार, 15 जून 2015

राजपूत जागीरदार रक्षक थे न कि शोषक

अंग्रेजो ने दिल्ली के अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को बन्दी बना लिया और मुगलो का जम कर कत्लेआम किया । सल्तनत खत्म होने से मुगल सेना कई टुकड़ो में बिखर गयी और देश के कई हिस्सों में जान बचा कर छुप गयी । पेट भरने के लिए कोई रोजगार उन्हें आता नही था क्योंकि मुगल सदैव चोरी लूटपाट और बलात्कार जेसे गन्दे और घ्रणित कार्यो में ही व्यस्त रहे इसलिए वो छोटे गिरोह बना कर लूटपाट करने लगे ।
बीकानेर रियासत में न्याय प्रिय राजा गंगा सिंह जी का शासन था जिन्होंने गंग नहर(सबसे बड़ी नहर) का निर्माण करवाया जिसको कांग्रेस सरकार ने इन्दिरा गांधी नहर नाम देकर हड़प लिया बनवाई थी ।
उन्ही की रियासत के गाँव आसलसर के जागीरदार श्री दीप सिंह जी शेखावत की वीरता और गौ और धर्म रक्षा के चर्चे सब और होते थे ।
"तीज" का त्यौहार चल रहा था और गाँव की सब महिलाये और बच्चियां गांव से 2 किलोमीटर दूर गाँव के तालाब पर गणगौर पूजने को गयी हुई थी और तालाब के समीप ही गांव की गाये भी चर रही थी उसी समय धूल का गुबार सा उठता सा नजर आया और कोई समझ पाता उससे पहले ही करीब 150 घुड़सवारों ने गायों को घेर कर ले जाना शुरू कर दिया । चारो तरफ भगदड़ मच गयी और सब महिलाये गाँव की और दौड़ी , उन गौओ में से एक उन मुगल लुटेरो का घेरा तोड़ कर भाग निकली तो एक मुसलमान ने भाला फेक मारा जो गाय की पीठ में घुस गया पर गाय रुकी नही और गाँव की और सरपट भागी ।
दोपहर का वक्त था और आसल सर के जागीरदार दीप सिंह जी भोजन करने बेठे ही थे की गाय माता की करुण रंभाने की आवाज सुनी , वो तुरन्त उठे और देखते ही समझ गए की मुसलमानो का ही कृत्य है उन्होंने गाँव के ढोली राणा को नगारा बजाने का आदेश दिया जिससे की गाँव के वीर लोग युद्ध के लिए तैयार हो सके पर सयोंगवश सब लोग खेतो में काम पर गए हुए थे , केवल पांच लोग इकट्ठे हुये और वो पाँच थे दीप सिंह जी के सगे भाई ।
सब ने शस्त्र और कवच पहने और घोड़ो पर सवार हुई तभी दो बीकानेर रियासत के सिपाही जो की छुटी पर घर जा रहे थे वो भी आ गए , दीप सिंह जी उनको कहा की आप लोग परिवार से मिलने छुट्टी लेकर जा रहे हो ,आप जाइये ,पर वो वीर कायम सिंह चौहान जी के वंशज नही माने और बोले हमने बीकानेर रियासत का नमक खाया है हम ऐसे नही जा सकते | युद के लिए रवाना होते ही सामने एक और वीर पुरुष चेतन जी जाट भी मिले वो भी युद्ध के लिए साथ हो लिए । इस तरह आठ "8" योद्धा 150 मुसलमान सेनिको से लड़ने निकल पड़े और उनके साथ युद्ध का नगाड़ा बजाने वाले ढोली राणा जी भी ।
मुस्लिम सेना की टुकड़ी के चाल धीमी पड़ चुकी थी क्योंकि गायो को घेर कर चलना था । और उनका पीछा कर रहे जागीरदार दीप सिंह जी ने जल्दी ही उन मुगल सेनिको को "धाम चला" नामक धोरे पर रोक लिया , मुस्लिम टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे मुखिया को इस बात का अंदाज नही था की कोई इतनी जल्दी अवरोध भी सामने आ सकता है ? उसे आश्चर्य और घबराहट दोनों महसूस हुई , आश्चर्य इस बात का की केवल आठ 8 लोग 150 अति प्रशिक्षित सैनिको से लड़ने आ गए और घबराहट इस बात की कि उसने आसल सर के जागीरदार दीप सिंह जी की वीरता के चर्चे सुने थे , उस मुसलमान टुकड़ी के मुखिया ने प्रस्ताव रखा की इस लूट में दो गाँवों की गाये शामिल है अजितसर और आसलसर , आप आसलसर गाँव की गाय वापस ले जाए और हमे निकलने दे पर धर्म और गौ रक्षक श्री दीप सिंह जी शेखावत ने बिलकुल मना कर दिया और कहा की "" ऐ मलेच्छ दुष्ट , ये गाय हमारी माता के सम्मान पूजनीय है कोई व्यपार की वस्तु नही ,तू सभी गौ माताओ को यही छोडेगा और तू भी अपने प्राण यही त्यागेगा ये मेरा वचन है " मुगल टुकड़ी के मुखिया का मुँह ये जवाब सुनकर खुला ही रह गया और फिर क्रोधित होकर बोला की "मार डालो सबको" ।
आठो वीरो ने जबरदस्त हमला किया जो मुसलमानो ने सोचा भी नही था कई घण्टे युद्ध चला और 150 मुसलमानो की टुकड़ी की लाशें जमीन पर आठ वीर योद्धाओ ने बिछा थी, ।
सभी गऊ माता को गाँव की और रवाना करवा दिया और गंभीर घायल सभी वीर पास में ही खेजड़ी के पेड़ के निचे अपने घावों की मरहमपट्टी करने लगे और गाँव की ही एक बच्ची को बोल कर पीने का पानी मंगवाया ,.| सूर्य देव रेगिस्तान की धरती को अपने तेज से तपा रहे थे और धरती पर मौजूद धर्म रक्षक देव अपने धर्म से ।।
सभी लोग खून से लथपथ हो चुके थे और गर्मी और थकान से निढाल हो रहे थे ,
आसमान में मानव मांस के भक्षण के आदि हो चुके सेंकडो गिद्द मंडरा रहे थे ., इतने ज्यादा संख्या में मंडरा रहे गीधों को लगभग 5 किलोमीटर दूर मौजूद दूसरी मुस्लिमो की टुकड़ी के मुखिया ने देखा तो किसी अनहोनी की आशंका से सिहर उठा ,उसने दूसरे साथियो को कहा " जरूर कोई खतरनाक युद्ध हुआ है वहां और काफी लोग मारे गए है इसलिए ही इतने गिद्ध आकाश में मंडरा रहे है " उसने तुरन्त उसी दिशा में चलने का आदेश दिया और वहां का द्रश्य देख उसे चक्कर से आ गए, 150 सेनिको की लाशें पड़ी है जिनको गिद्ध खा रहे है और दूर खेजड़ी के नीचे 8 आठ घायल लहू लुहान आराम कर रहे है ।
'" अचानक दीप सिंह शेखावत जी को कुछ गड़बड़ का अहसास हुआ और उन्होंने देखा की 150 मुस्लिम सेनिक बिलकुल नजदीक पहुँच चुके है । वो तुरन्त तैयार हुए और अन्य साथियो को भी सचेत किया , सब ने फिर से कवच और हथियार धारण कर लिए और घायल शेर की तरह टूट पड़े ,,
खून की कमी तेज गर्मी और गंभीर घायल वीर योद्धा एक एक कर वीरगति को प्राप्त होने लगे , दीप सिंह जी छोटे सगे भाई रिड़मल सिंह जी और 3 तीन अन्य सगे भाई वीरगति को प्राप्त हुए पर तब तक इन वीरो ने मुगल सेना का बहुत नुकसान कर दिया था ।
"7 " सात लोग वीरगति को प्राप्त कर चुके थे और युद्ध अपनी चरम सीमा पर था , अब जागीरदार दीप सिंह जी अकेले ही अपना युद्ध कोशल दिखा कर मलेछो के दांत खट्टे कर रहे की तभी एक मुगल ने धोखे से वार करके दीप सिंह की गर्दन धड़ से अलग कर दी ।
और और मुगल सेना के मुखिया ने जो द्रश्य देखा तो उसकी रूह काँप गयी । दीप सिंह जी धड़ बिना सिर के दोनों हाथो से तलवार चला रहा था धीरे धीरे दूसरी टुकड़ी के 150 मलछ् में से केवल दस ग्यारह मलेच्छ ही जिन्दा बचे थे । बूढ़े मुगल मुखिया ने देखा की धड़ के हाथ नगारे की आवाज के साथ साथ चल रहे है उसने तुरंत जाकर निहथे ढोली राणा जी को मार दिया । ढोली जी के वीरगति को प्राप्त होते ही दीप सिंह का शरीर भी ठंडा पड़ गया ।
वो मुग़ल मुखिया अपने सात" 7" आदमियो के साथ जान बचा कर भाग निकला और जाते जाते दीप सिंह जी की सोने की मुठ वाली तलवार ले भागा ।
लगभग 100 किलोमीटर दूर बीकानेर रियासत के दूसरे छोर पर भाटियो की जागीरे थी जो अपनी वीरता के लिए जाने पहचाने जाते है। मुगल टुकड़ी के मुखिया ने एक भाटी जागीरदार के गाँव में जाकर खाने पीने और ठहरने की व्यवस्था मांगी और बदले में सोने की मुठ वाली तलवार देने की पेशकश करी ।। भाटी जागीरदार ने जेसे ही तलवार देखी चेहरे का रंग बदल गया और जोर से चिल्लाये ,,"" अरे मलेछ ये तलवार तो आसलसर जागीरदार दीप सिंह जी की है तेरे पास कैसे आई ?"
मुसलमान टुकड़ी के मुखिया ने डरते डरते पूरी घटना बताई और बोला ठाकुर साहब 300 आदमियो की टुकड़ी को गाजर मूली जेसे काट डाला और हम 10 जने ही जिन्दा बच कर आ सके । भाटी जागीरदार दहाड़ कर गुस्से से बोले अब तुम दस भी मुर्दो में गिने जाओगे और उन्होंने तुरंत उसी तलवार से उन मलेछो के सिर कलम कर दिए ।।
और उस तलवार को ससम्मान आसलसर भिजवा दिया।।
ये सत्य घटना आसलसर गाँव की है और दीप सिंह जी जो इस गाँव के जागीरदार थे आज भी दीपसिंह जी की पूजा सभी समाज के लोग श्रदा से करते है। और हाँ वो "धामचला " धोरा जहाँ युद्ध हुआ वहां आज भी युद्ध की आवाजे आती है और इनकी पत्नी सती के रूप में पूजी जाती है और उनके भी चमत्कार के चर्चे दूर दूर तक है।
आज जो टीवी फिल्मो के माध्यम से दिखाया जाता है किसी भी गाँव के जागीरदार या सामंत सिर्फ शोषण करते थे और कर वसूल करते थे उनके लिए करारा जवाब है । गाँव के मुखिया होते हुए भी इनकी जान बहुत सस्ती हुआ करती थी कैसी भी मुसीबत आये तो मुकाबले में आगे भी ठाकुर ही होते थे। गाँव की औरतो बच्चो गायों और ब्राह्मणों की रक्षा हेतु सदैव तत्पर रहते थे। सत् सत् नमन है ऐसे वीर योद्धाओ को अपनी प्रजा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर देते थे।
इस बात का मुझे हमेसा गर्व रहेगा की मेने उनके कुल में जन्म लिया ।।

साभार:- कुँवर वीरेन्द्र सिंह शेखावत

कर्तव्य की वेदी पर

क्रूर मुगल बादशाह ओरेंगजेब ने अपने सभी भाइयो का कत्ल करवाया और खुद के पिता को जेल में डालकर दिल्ली  का बादशाह बन बेठा और ये मुगलो के लिए कोई नई बात नही थी उनके तो खून में ही छल कपट और गदारी भरी  थी , पर ये बात उस समय के राजपूतो को हजम नही हो रही थी । उनके लिए तो ये अधर्म और अन्याय था ।
ऐसे ही एक राजपूत राजा थे जोधपुर के "जसवंत सिंह राठोड़" ,  ओरेंगजेब का भाई दारा शिकोह इनका मित्र था और जब ओरेंगजेब ने दारा का कत्ल करवाया तो जसवंत सिंह राठौड़ से रहा नही गया और कुछ राजपूत वीरो के साथ ओरेंगजेब की विशाल सेना पर टूट पड़े , मुगलो का जमीनी युद्ध में बहुत कम संख्या वाले राजपूत वीरो ने हाल खराब कर दिया, घबरा कर मुगलो ने तोप खाने का सहारा लिया और गोलों की बरसात सी कर दी ,, यघपि राजपूत वीरता से लड़े पर मुगलो की विशाल सेना और तोप के गोलों की वजह से यसवंत सिंह जी की हार हो गयी और वो अपने 500 सैनिको के साथ युद्ध स्थल से पलायन कर गए ।
"महारानी माया देवी " जो की चितोड़ के राणा की बेटी थी , को जब ये खबर लगी की उनके पति युद्ध स्थल से पीठ दिखा कर भाग आये तो बड़ी दुःखी हुई और दवारपाल को दुर्ग के दवार बन्द करने के आद्देश दे दिया । उनके इस विचित्र आदेश को सुन दरबारियों और जनता को बड़ा आस्चर्य हुआ । आखिर एक दरबारी ने पूछ ही लिया , "महारानी जी, आप ये क्या कर रही है ? द्वार बन्द कर देने से महाराज कहाँ जायेंगे ? क्या एक स्त्री का यही कर्तव्य है की विपदा में पड़े स्वामी का ऐसा स्वागत करे ?"
महारानी ने उत्तर दिया , "में एक रजपुतनी हूँ और राजपूत स्त्री पति की कायरता को पसन्द नही करती , में ये कैसे सहन करू की मेरे पति युद्ध से पीठ दिखा कर भाग आये , राठौड़ कुल पर ये कलंक कैसे धूल पायेगा ? में अपनी जान दे सकती हूँ पर कुल को कलंकित नही होने दूंगी |
महाराज यसवंत सिंह जी के पास ये संदेश पहुँचाया गया और द्वार नही खोलने का महारानी का आदेश भी  ।
महाराज को बात समझते देर नही लगी । वे तुरंत और अधिक सेनिक लेकर युद्ध स्थल की और लोट पड़े और वीरता से लड़ते हुये वीरगति को प्राप्त हुए ।
ऐसी थी हमारी मातृ शक्ति ,इसलिए वो सिंहनी, सिंह शावक पैदा करती थी जो अकेला पूरी सेना से लड़ लेता था और हँसते हंसते वीरगति को प्राप्त हो जाता पर माँ और पत्नी की आँख में आंसू नही आते बल्कि गर्व से मस्तक ऊँचा हो जाता ।
कहाँ है आज वो मातृ शक्ति और वो वीरता ?
जब तक हम देश और धर्म के लिए प्राण त्यागना नही सीखेंगे पुनः वो सम्मान नही पा सकेंगे ।।

साभार कुँवर वीरेन्द्र सिंह शेखावत

मंगलवार, 9 जून 2015

अकबर भी नही टिक सका था इस वीर योद्धा के सामने......

एक वीर राजपूत योद्धा जिन्होंने अकबर को हरा कर भागने पर मजबूर किया,और कब्जे में लिए 52 हाथी 3530 घोड़े पालकिया आदि

वीर योद्धा भानजीदाल जाडेजा

राजपूत एक वीर स्वाभिमानी और बलिदानी कौम जिनकी वीरता के दुश्मन भी कायल थे जिनके जीते जी दुश्मन राजपूत राज्यो की प्रजा को छु तक नही पाये अपने रक्त से मातृभूमि को लाल करने वाले जिनके सिर कटने पर भी धड़ लड़ लड़ कर झुंझार हो गए

वक़्त विक्रम सम्वंत 1633(1576 ईस्वी) मेवाड़,गोंड़वाना के साथ साथ गुजरात भी उस वक़्त मुगलो से लोहा ले रहा था गुजरात में स्वय बादशाह अकबर और उसके सेनापति कमान संभाले थे
अकबर ने जूनागढ़ रियासत पर 1576 ईस्वी में आक्रमण करना चाहा तब वहा के नवाब ने पडोसी राज्य नवानगर (जामनगर) के राजपूत राजा जाम सताजी जडेजा से सहायता मांगी क्षत्रिय धर्म के अनुरूप महाराजा ने पडोसी राज्य जूनागढ़ की सहायता के लिए अपने 30000 योद्धाओ को भेजा जिसका नेतत्व कर रहे थे नवानगर के सेनापति वीर योद्धा भानजी जाडेजा
सभी राजपूत योद्धा देवी दर्शन और तलवार शास्त्र पूजा कर जूनागढ़ की और सहायता के निकले पर माँ भवानी को कुछ और ही मजूर था उस दिन
जूनागढ़ के नवाब अकबर की स्वजातीय विशाल सेना के सामने लड़ने से इंकार कर दिया व आत्मसमर्पण के लिए तैयार हुआ और नवानगर के सेनापति वीर भांनजी दाल जडेजा को वापस अपने राज्य लौट जाने को कहा इस पर भान जी और उनके वीर राजपूत योद्धा अत्यंत क्रोधित हुए इस पर भान जी जडेजा ने सीधे सीधे जूनागढ़ नवाब को रजपूती तेवर में कहा "क्षत्रिय युद्ध के लिए निकलता है या तो वो जीतकर लौटेगा या फिर रण भूमि में वीर गति को प्राप्त होकर"
वहा सभी वीर जानते थे की जूनागढ़ के बाद नवानगर पर आक्रमण होगा आखिर सभी वीरो ने फैसला किया की वे बिना युद्ध किये नही लौटेंगे
अकबर की सेना लाखो में थी उन्होंने मजेवाड़ी गाव के मैदान में अपना डेरा जमा रखा था
अन्तः भान जी जडेजा ने मुगलो के तरीके से ही कुटनीति का उपयोग करते हुए आधी रात को युद्ध लड़ने का फैसला किया सभी योद्धा आपस में गले मिले फिर अपने इष्ट स्मरण कर युद्ध स्थल की और निकल पड़े
आधी रात और युद्ध हुआ मुगलो का नेतृत्व मिर्ज़ा खान कर रहा था उस रात हजारो मुगलो को काटा गया मिर्जा खांन भाग खड़ा हुआ सुबह तक युद्ध चला मुग़ल सेना अपना सामान छोड़ भाग खड़ी हुयी

बादशाह अकबर जो की सेना से कुछ किमी की दुरी पर था वो भी उसी सुबह अपने विश्वसनीय लोगो के साथ काठियावाड़ छोड़ भाग खड़ा हुए युद्ध में मुग़ल सेनापति मिर्जा खान भाग खड़ा हुआ भान जी ने बहुत से मुग़ल मनसबदारो को काट डाला हजारो मुग़ल मारे गए
नवानगर की सेना ने मुगलो को 20 कोस तक पीछा किये जो हाथ आये जो काटे गए अंत भान जी दाल जडेजा में मजेवाड़ी में अकबर के शिविर से 52 हाथी 3530 घोड़े और पालकियों को अपने कब्जे में ले लिया
उस के बाद राजपूती फ़ौज सीधी जूनागढ़ गयी वहा नवाब को कायरकता का जवाब देने के लिए जूनागढ़ के किल्ले के दरवाजे भी उखाड दिए ये दरवाजे आज जामनगर में खम्बालिया दरवाजे के नाम से जाने जाते है जो आज भी वहा लगे हुए है
बाद में जूनागढ़ के नवाब को शर्मिन्दिगी और पछतावा हुआ उसने नवानगर महाराजा साताजी से क्षमा मांगी और दंड स्वरूप् जूनागढ़ रियासत के चुरू ,भार सहित 24 गांव और जोधपुर परगना (काठियावाड़ वाला)नवानगर रियासत को दिए

कुछ समय बाद बदला लेने की मंशा से अकबर फिर आया और इस बार उसे "तामाचान की लड़ाई" में फिर हार का मुह देखना पड़ा

इस युद्ध वर्णन सौराष्ट्र नु इतिहास में भी है जिसे लिखा है शम्भूप्रसाद देसाई ने साथ ही Bombay Gezzetarium published by Govt of Bombay साथ ही विभा विलास में,यदु वन्स प्रकाश जो की मवदान जी रतनु ने लिखी है आधी में शौर्य गाथा का वर्णन है

rajputana soch राजपुताना सोच और क्षत्रिय इतिहास

बुधवार, 3 जून 2015

मुगल सैनिकों की नाक काटने वाली गढ़वाल की रानी कर्णावती

   भारतीय इतिहास में जब रानी कर्णावती का जिक्र आता है तो फिर मेवाड़ की उस रानी की चर्चा होती है जिसने मुगल बादशाह हुमांयूं के ​लिये राखी भेजी थी। इसलिए रानी कर्णावती का नाम रक्षाबंधन से अक्सर जोड़ दिया जाता है। लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि इसके कई दशकों बाद भारत में एक और रानी कर्णावती हुई थी और यह गढ़वाल की रानी थी। इस रानी ने मुगलों की बाकायदा नाक कटवायी थी और इसलिए कुछ इतिहासकारों ने उनका जिक्र नाक क​टी रानी या नाक काटने वाली रानी के रूप में किया है। रानी कर्णावती ने गढ़वाल में अपने नाबालिग बेटे पृथ्वीपतिशाह के बदले तब शासन का कार्य संभाला था जबकि दिल्ली में मुगल सम्राट शाहजहां का राज था। शाहजहां के कार्यकाल पर बादशाहनामा या पादशाहनामा लिखने वाले अब्दुल हमीद लाहौरी ने भी गढ़वाल की इस रानी का जिक्र किया है। यहां तक कि नवाब शम्सुद्दौला खान ने 'मासिर अल उमरा' में उनका जिक्र किया है। इटली के लेखक निकोलाओ मानुची जब सत्रहवीं सदी में भारत आये थे तब उन्होंने शाहजहां के पुत्र औरंगजेब के समय मुगल दरबार में काम किया था। उन्होंने अपनी किताब 'स्टोरिया डो मोगोर' यानि 'मुगल इंडिया' में गढ़वाल की एक रानी के बारे में बताया है जिसने मुगल सैनिकों की नाट काटी थी। माना जाता है कि स्टोरिया डो मोगोर 1653 से 1708 के बीच लिखी गयी थी जबकि मुगलों ने 1640 के आसपास गढ़वाल पर हमला किया था। गढ़वाल के कुछ इतिहासकारों ने हालांकि पवांर वंश के राजाओं के कार्यों पर ही ज्यादा गौर किया और रानी कर्णावती के पराक्रम का जिक्र करना उचित नहीं समझा।
       रानी कर्णावती के बारे में मैंने जितनी सामग्री जुटायी। उससे यह साफ हो जाता है कि वह पवांर वंश के राजा महिपतशाह की पत्नी थी। यह वही महिपतशाह थे जिनके शासन में रिखोला लोदी और माधोसिंह जैसे सेनापति हुए थे जिन्होंने तिब्बत के आक्रांताओं को छठी का दूध याद दिलाया था। माधोसिंह के बारे में गढ़वाल में काफी किस्से प्रचलित हैं। पहाड़ का सीना चीरकर अपने गांव मलेथा में पानी लाने की कहानी भला किस गढ़वाली को पता नहीं होगी। कहा जाता था कि माधोसिंह अपने बारे में कहा करते थे, ''एक सिंह वन ​का सिंह, एक सींग गाय का। तीसरा सिंह माधोसिंह, चौथा सिंह काहे का। '' इतिहास की किताबों से पता चलता है कि रिखोला लोदी और माधोसिंह जैसे सेनापतियों की मौत के बाद महिपतशाह भी जल्द स्वर्ग सिधार गये। कहा जाता है कि तब उनके पुत्र पृथ्वीपतिशाह केवल सात साल के थे। इसके 1635 के आसपास की घटना माना जाता है। राजगद्दी पर पृथ्वीपतिशाह ही बैठे लेकिन राजकाज उनकी मां रानी कर्णावती ने चलाया।
     इससे पहले जब महिपतशाह गढ़वाल के राजा थे तब 14 फरवरी 1628 को शाहजहां का राज्याभिषेक हुआ था। जब वह गद्दी पर बैठे तो देश के तमाम राजा आगरा पहुंचे थे। महिपतशाह नहीं गये। इसके दो कारण माने जाते हैं। पहला यह कि पहाड़ से आगरा तक जाना तब आसान नहीं था और दूसरा उन्हें मुगल शासन की अधीनता स्वीकार नहीं थी। कहा जाता है कि शाहजहां इससे चिढ़ गया था। इसके अलावा किसी ने मुगल शासकों को बताया कि गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में सोने की खदानें हैं। इस बीच महिपतशाह और उनके वीर सेनापति भी नहीं रहे। शाहजहां ने इसका फायदा उठाकर गढ़वाल पर आक्रमण करने का फैसला किया। उन्होंने अपने एक सेनापति नजाबत खान को यह जिम्मेदारी सौंपी। निकोलो मानुची ने अपनी किताब में शाहजहां के सेनापति या रानी का जिक्र नहीं किया है लेकिन उन्होंने लिखा है कि मुगल जनरल 30 हजार घुड़सवारों और पैदल सेना के साथ गढ़वाल की तरफ कूच कर गया था। गढ़वाल के राजा (यानि रानी कर्णावती) ने उन्हें अपनी सीमा में घुसने दिया लेकिन जब वे वर्तमान समय के लक्ष्मणझूला से आगे बढ़े तो उनके आगे और पीछे जाने के रास्ते रोक दिये गये। गंगा के किनारे और पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ मुगल सैनिकों के पास खाने की सामग्री समाप्त होने लगी। उनके लिये रसद भेजने के सभी रास्ते भी बंद थे।
          मुगल सेना कमजोर पड़ने लगी और ऐसे में सेनापति ने गढ़वाल के राजा के पास संधि का संदेश भेजा लेकिन उसे ठुकरा दिया गया। मुगल सेना की स्थिति बदतर हो गयी थी। रानी चाहती तो उसके सभी सैनिकों का खत्म कर देती लेकिन उन्होंने मुगलों को सजा देने का नायाब तरीका निकाला। रानी ने संदेश भिजवाया कि वह सैनिकों को जीवनदान देन सकती है लेकिन इसके लिये उन्हें अपनी नाक कटवानी होगी। सैनिकों को भी लगा कि नाक कट भी गयी तो क्या जिंदगी तो रहेगी। मुगल सैनिकों के हथियार छीन दिये गये थे और आखिर में उनके एक एक करके नाक काट दिये गये थे। कहा जाता है कि जिन सैनिकों की नाक का​टी गयी उनमें सेनापति नजाबत खान भी शामिल था। वह ​इससे काफी शर्मसार था और उसने मैदानों की तरफ लौटते समय अपनी जान दे दी थी। उस समय रानी कर्णाव​ती की सेना में एक अधिकारी दोस्त बेग हुआ करता था जिसने मुगल सेना को परास्त करने और उसके सैनिकों को नाक कटवाने की कड़ी सजा दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी। यह 1640 के आसपास की घटना है।
           कुछ इतिहासकार रानी कर्णावती के बारे में इस तरह से बयां करते हैं कि वह अपने विरोधियों की नाक कटवाकर उन्हें कड़ा दंड देती थी। इनके अनुसार कांगड़ा आर्मी के कमांडर नजाबत खान की अगुवाई वाली मुगल सेना ने जब दून घाटी और चंडीघाटी (वर्तमान समय में लक्ष्मणझूला) को अपने कब्जे में कर दिया  तब रानी कर्णावती ने उसके पास संदेश भिजवाया कि वह मुगल शासक शाहजहां के लिये जल्द ही दस लाख रूपये उपहार के रूप में उसके पास भेज देगी। नजाबत खान लगभग एक महीने तक पैसे का इंतजार करता रहा। इस बीच गढ़वाल की सेना को उसके सभी रास्ते बंद करने का मौका मिल गया। मुगल सेना के पास खाद्य सामग्री की कमी पड़ गयी और इस बीच उसके सैनिक एक अज्ञात बुखार से पीड़ित होने लगे। गढ़वाली सेना ने पहले ही सभी रास्ते बंद कर दिये थे और उन्होंने मुगलों पर आक्रमण कर दिया। रानी के आदेश पर सैनिकों के नाक काट दिये गये। नजाबत खान जंगलों से होता हुआ मुरादाबाद तक पहुंचा था। कहा जाता है कि शाहजहां इस हार से काफी शर्मसार हुआ था। शाहजहां ने बाद में अरीज खान को गढ़वाल पर हमले के लिये भेजा था लेकिन वह भी दून घाटी से आगे नहीं बढ़ पाया था। बाद में शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने भी गढ़वाल पर हमले की नाकाम कोशिश की थी।
    यह थी गढ़वाल की रानी कर्णावती की कहानी जो कुछ किस्सों और इतिहासकारों विशेषकर विदेश के इतिहासकारों की पुस्तकों से जुटायी गयी है।
साभार:- धर्मेन्द्र मोहन पंत

सोमवार, 1 जून 2015

गुजरात में चंपानेर के खींची चौहान राजपूतो का मुस्लिम सल्तनत से अप्रतिम संघर्ष

मित्रो आज आपको भारतीय इतिहास के एक ऐसे गौरवशाली संघर्ष से परिचय कराएंगे जो राजपूतो के अपने धर्म के प्रति प्रतिबद्धता और स्वतंत्रता के प्रति लगाव का सबसे बड़ा उदाहरण है। चंपानेर के खिंची चौहान वंश ने अपने से कहीँ ज्यादा ताकतवर गुजरात की मुस्लिम सल्तनत से संघर्ष करते हुए उसके बिलकुल जड़ में एक सदी तक स्वतंत्र शाशन किया लेकिन कभी झुकना या धर्म परिवर्तन स्वीकार नही किया।

गुजरात पर उस समय मुस्लिम सल्तनत का परचम लहरा रहा था। अहमदाबाद उसकी राजधानी थी। तब चांपानेर मे खींची चौहानो का राज अपनी वीरता और वैभव के लिए मशहूर था। चांपानेर के संस्थापक गुजरात नरेश वनराजसिंह चावडा थे। 1300 ई. में चौहानों ने चांपानेर पर अधिकार कर लिया था।

एक और चौहानो के शौर्य का रस मुस्लिम सेना चख रही थी तो दुसरी और गुजरात का सुलतान आकुल व्याकुल हो रहा था। बात यह थी की अहमदाबाद के पास ही चांपानेर मे चौहान राजपूतो का छोटा सा राज्य था और कभी उन्होने मुस्लिम सुल्तानों के आधिपत्य को स्वीकार नही किया था। इस बात से गुजरात के सुलतान चांपानेर पर धावा बोलने की योजनाए बनाते ,
पर चौहानो की तेज तलवारो की कल्पना मात्र से ही वे अपना मन बदल लेते। एक सदी तक चांपानेर के खिंची राजपूतो से सल्तनत की लड़ाई चलती रही, लेकिन सल्तनत उन्हें झुका या हरा नही पाई।

जब गुजरात की गद्दी पर मुहम्मद शाह आया तब उसने चांपानेर पर आक्रमण करने की कई योजनाए बनाई लेकिन किसी ना किसी कारण वश वो सफल नही हो पाता था, 1449 ई. मे आखिर उसने आक्रमण कर ही दिया।

चांपानेर पर तब कनकदास चौहान उर्फ गंगदास चौहान का राज था। सुलतान के आक्रमण की खबर सुनते ही उन्होने अपनी सेना को सुसज्जित किया। मालवा के महमूद शाह खिलजी ने भी अपनी सेना सहायता हेतु भेजी। चांपानेर की सेना ने मुहम्मदशाह की सेना का ना सिर्फ सामना किया बल्कि औंधे मुह घर लौंटने को मजबुर कर दिया |

1451 ई. मे अहमदाबाद वापिस लौटते समय मुहम्मदशाह बीमार पड गया और रास्ते मे ही उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र कुतुब-उद-दिन अहमदशाह || (1451-1458) गद्दी पर आया और उसके बाद Abu-al Fath Mahmud Shah अबु-अल फाथ महमुद शाह को गद्दी पर बिठाया गया जो महमुद 'बेगडा' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

बेगडा छोटी उम्र मे ही सुलतान बन गया था लेकिन उसकी महत्वकांक्षाए बहुत बडी थी। वो एक धर्मांध और जूनुनी शासक था। चांपानेर की स्वतंत्रता उसे कांटे की तरह चुभ रही थी। अपने विरोधीयो और दुश्मनो को खत्म करके मजबुत सत्ता जमाने मे कामयाब हो गया था। अब उसकी नजर एक सदी तक उसके बाप दादाओ को अपने स्वतंत्र अस्तित्व से चिढ़ाते आ रहे चांपानेर पर थी।

उस वक्त चांपानेर मे कनकदास/गंगदास के पुत्र जयसिंह चौहान (पत्तई रावल के नाम से प्रसिद्ध) की सत्ता थी | ( कई जगह जयसिंह को उदय सिंह का पुत्र लिखा हुआ है)

1482 ई.मे महमुद बेगडा को चांपानेर पर आक्रमण करने का मौका मिला। रसुलाबाद जो की चांपानेर से 14 मील की दुरी पर था, वहां महमूद का सूबेदार मलिक था, उसने चांपानेर के प्रदेश मे घूसखोरी और लूटपाट करी। जब इसका पता जयसिंह को चला उन्होने रसुलाबाद पर धावा बोल दिया, सारा लूट का माल वापिस ले लिया, दो हाथी भी ले लिये और रसूलाबाद को तबाह कर दिया ||

इस घटना का पता चलने पर महमुद ने चांपानेर को जीतने का इरादा बनाया। उसने अपनी सेना के एक जत्थे को बडौदा की और भेजा ताकी उस ओर से चांपानेर आ रहे साधन सामग्री और खाने पीने की चीजो पर रोक लगा सके, और खुद 4 दिसंबर, 1482 को ढाई से तीन लाख की सेना के साथ चांपानेर पर उसने हमला किया लेकिन जयसिंह ने भी बडी बहादुरी से उसका सामना किया। करीब दो साल तक चले घेरे मे मुस्लिमो ने कई मंदिरो और तीर्थस्थलो को तहस-नहस कर दिया, पावागढ के महाकाली के मंदिर का गर्भगृह भी टूट गया था, लेकिन पावागढ का दुर्ग महमूद के लिये बडी चुनौती बना हुआ था। आखिर उसने जयसिंह के कुछ दरबारियो को लालच देकर अपने साथ मिला लिया और 21, नवंबर, 1484 के दिन किले के दरवाजे खुलवा लिये।

जयसिंह की सेना की संख्या मुस्लिम सेना से काफी कम थी लेकिन फिर भी उन्होने विधर्मियो को काटना जारी रखा। 700 राजपुतो ने शाका किया और बेगडा के 20,000 मुस्लिम सैनिको को दोजख मे पहुचा दिया था। दूसरी ओर महारानी चंपादेवी और दुसरी राजपुत स्त्रीयो ने जौहर कर विधर्मीयो के हाथो से खुद को बचा लिया। सुरंग मार्ग से जयसिंह के पुत्र को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया गया। राजा जयसिंह लडते लडते दुश्मनो के हाथो लग गये और उन्हे उनके मंत्री सूरी के साथ बंदी बना लिया गया।

बन्दी बनाकर जब राजा जयसिंह और सूरी को बेगड़ा के सामने लाया गया तो उसने पूछा कि किसकी प्रेरणा से तुम्हारी हिम्मत हुई अपनी छोटी सी सेना लेकर मेरी इतनी विशालकाय और ताकतवर सेना से लड़ने की???

वो दोनों राजपूत घायल अवस्था में बेगड़ा की गिरफ्त में थे, उनके परिवार जौहर की अग्नि में विलीन हो गए थे, चांपानेर और पावागढ़ के दुर्ग तबाह हो गए थे, इस सब के बाद भी राजा जयसिंह ने पूरी दृढ़ता से बेगड़ा को जवाब दिया-- इस भूमी पर मेरा वंशानुगत अधिकार है, यह मेरे पूर्वजो द्वारा अर्जित है और इतने महान और कुलीन पूर्वजो की श्रृंखला का वंशज होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है कि जिस गौरवशाली नाम को उन्होंने मुझे दिया है उसकी इज्जत मरते दम तक बनाए रखू।"

बेगड़ा राजा जय सिंह के इस वीरोचित उत्तर से बहुत प्रभावित हुआ और दोनों राजपूतो को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिये मनाया लेकिन उनके इनकार करने पर करीब पांच महिनो तक राजा जय सिंह और उनके मंत्री सूरी को घोर यातनाए देकर ईस्लाम कबुल करने का दबाव डाला गया लेकिन वे टस से मस न हुए, उसके बाद उनका शिरछेद कर हत्या कर दी गई।

राजा जयसिंह और उनके मंत्री सूरी का यह बलिदान असंख्य राजपूत वीरो के देश, धर्म और कुल के मान सम्मान के लिये अपना सर्वस्व बलिदान करने की परंपरा का एक अप्रतिम उदाहरण है। आज भी गुजरात में राजा जयसिंह को पतई रावल नाम से याद किया जाता है और उनके बारे में अनेको लोक कहानिया प्रचलित हैँ।

जयसिंह के पुत्र रायसिंह के पुत्र त्र्यंबकसिंह हुए जिनके दो पुत्र थे, 1. पृथ्वीराजजी जिन्होने छोटा उदैपुर रियासत की स्थापना की, 2. डुंगरसिंहजी जिन्होने बारिया रियासत की नींव रखी। ये दोनों रियासत आज भी मौजूद हैँ।

राजपुताना सोच और क्षत्रिय इतिहास