जालौर के वीर शासक कान्हड़देव का नाम आते ही लेखकों की कलमें ठहर जाती है तो पढ़ने वालों के कलेजे सिंहर उठते हैं। कारण यह नहीं कि उसने अपने से कई गुना शक्तिशाली दुश्मन को मात दी और अंत में बलिदान दिया। यह तो राजस्थान की उस समय की पहचान थी। कलम के ठहरने और कलेजों के कांपने का कारण यह था कि कान्हड़देव जैसे साहसी एवं पराक्रमी शासक का अंत ऐसा क्यों हुआ ? क्यों नहीं अन्य शासक उसके साथ हुए, क्यों नहीं सोचा कि कान्हड़देव की पराजय के बाद अन्य शासकों का क्या होगा। शायद डॉ. के.एस. लाल ने अपने इतिहास ग्रंथ 'खलजी वंश का इतिहास' में सही लिखा है कि'पराधीनता से घृणा करने वाले राजपूतों के पास शौर्य था, किंतु एकता की भावना नहीं थी। कुछेक ने प्रबल प्रतिरोध किया, किंतु उनमें से कोई भी अकेला दिल्ली के सुल्तान के सम्मुख नगण्य था। यदि दो या तीन राजपूत राजा भी सुल्तान के विरुद्ध एक हो जाते तो वे उसे पराजित करने में सफल होते।'
डॉ. के.एस. लाल की उक्त टिप्पणी बहुत ही सटीक है। कान्हड़देव की वंश परम्परा के सम्बन्ध में ही उदयपुर के ख्यातिनाम लेखक एवं इतिहासवेता डॉ. शक्तिकुमार शर्मा 'शकुन्त' ने लिखा है कि- 'चाहमान (चौहान) के वंशजों ने यायव्य कोण से आने वाले विदेशियों के आक्रमणों का न केवल तीव्र प्रतिरोध किया अपितु 300 वर्षों तक उनको जमने नहीं दिया। फिर चाहे वह मुहम्मद गजनी हो, गौरी हो अथवा अलाउद्दीन खिलजी हो, चौहानों के प्रधान पुरुषों ने उन्हें चुनौती दी, उनके अत्याचारों के रथ को रोके रखा तथा अन्त में आत्मबलिदान देकर भी देश और धर्म की रक्षा अन्तिम क्षण तक करते रहे।
बस, यही सब कुछ हुआ था इस चौहान वं श के यशस्वी वीर प्रधान पुरुष जालौर के राजा कान्हड़देव के साथ भी। पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद चौहानों की एक शाखा रणथंभौर चली गई तो दूसरी शाखा नाडौल और नाडौल से एक शाखा जालौर में स्थापित हो गई। कीर्तिपाल से प्रारम्भ हुई यह शाखा समरसिंह, उदयसिंह, चा चकदेव, सामन्तसिंह से होती हुई कान्हड़देव तक पहुँची। किशोरावस्था से अपने पिता का हाथ बांटने के निमित्त कान्हड़देव शासन र्यों में रुचि लेना शुरूकर दिया था। संवत 1355 में दिली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात जाने के लिए मारवाड़ का रास्ता चुना। कान्हड़देव को इस समय तक अलाउद्दीन के मनसूबे का पता लग चुका था। वह अपने इस अभिमान के तहत सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ना चाहता था। उसने कान्हड़देव को खिलअत से सुशोभित करने का लालच भी दिया मगर वह किसी भी तरह तैयार नहीं हुआ और सुल्तान के पत्र के जवाब में पत्र लिखकर साफ-साफ लिख भेजा-'तुम्हारी सेना अपने प्रयाण के रास्ते में आग लगा देती है, उसके साथ विष देने वाले व्यक्ति होते हैं, वह महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करती है, ब्राह्मणों का दमन करती है और गायों का वध करती है, यह सब कुछ हमारे धर्म के अनुकूल नहीं है, अत: हम तुम्हें यह मार्ग नहीं दे सकते हैं।”
कान्हड़देव के इस उत्तर से अलाउद्दीन खिलजी का क्रोधित होना स्वाभाविक था। उसने समूचे मारवाड़ से निपटने का मन बना लिया। गुजरात अभियान तो उसने और रास्ते से पूरा कर लिया लेकिन वह कान्हड़देव से निपटने की तैयारी में जुट गया और अपने सेनापति उलुग खां को गुजरात से वापसी पर जालौर पर आक्रमण का आदेश दिया।उलुगखां अपने सुल्तान के आदेशानुसार मारवाड़ की और बढ़ा ओर सर्वप्रथम सकराणा दुर्ग पर आक्रमण किया। सकाराणा उस समय कान्हड़देव के प्रधान जेता के जिम्मे था। द्वार बन्द था। मुस्लिम सेनाओं ने दुर्ग के बाहर जमकर लूटपाट मचाई, लेकिन यह अधिक देर नहीं चली और जेता ने दुर्ग से बाहर निकलकर ऐसा हमला बोला जो उलुगखां की कल्पना से बाहर था, उसके पैर उखड़ गये और भाग खड़ा हुआ। जेता मुस्लिम सेना से सोमनाथ के मन्दिर से लाई पांच मूर्तियां प्राप्त करने में सफल रहा। इतिहास में अब तक इस युद्ध पर अधिक प्रकाश नहीं डाला गया है लेकिन गुजरात लूटनेवाली सुल्तान की सेना को पराजित करना आसान काम नहीं हो सकता था, अत: निश्चित ही जालौर विजय से पूर्व यह युद्ध कम नहीं रहा होगा। स्मरण रहे कि इस युद्ध में सुल्तान का भतीजा मलिक एजुद्दीन और नुसरत खां के भाई के मरने का भी उल्लेख है।
इस पराजय के बाद 1308 ई. में. अलाउद्दीन ने कान्हड़देव को अपने विश्वस्त सेनानायक व कुशल राजनीतिज्ञ के द्वारा दरबार में बुलाया, बातों में आ गया और वह चला भी गया। जब पूरा दरबार लगा था, अलाउद्दीन ने अपने आपको दूसरा सिकन्दर घोषित करते हुए कहा कि भारत में कोई भी हिन्दू या राजपूत राजा नहीं है जो उसके सामने किंचित् भी टिक सके। कान्हड़देव को यह बात खटक गई, उसका स्वाभिमान जग उठा, उसने तलवार निकाल ली और बोल पड़ा-"आप ऐसा न कहें, मैं हूँ, यदि आपको जीत नहीं सका तो युद्ध करके मर तो सकता हूँ, राजपूत अपनी इस मृत्यु को मंगल-मृत्यु मानता है।'
यह कह कान्हड़देव अलाउद्दीन खिलजी का दरबार छोड़कर वहाँ से चल पड़ा और जालौर आ गया। सुल्तान ने कान्हड़देव के इस व्यवहार को बहुत ही बुरा माना और 1311 ई. में तुरन्त दंड देने के लिए जालौर की ओर अपनी सेना भेजी। डॉ. के.एस. लाल का कहना है कि राजपूतों ने शाही पक्षों को अनेक मुठभेड़ों में पराजित किया और उन्हें अनेकबार पीछे धकेल दिया। उन्होंने यह भी माना कि जालौर का युद्ध भयानक था और संभवत: दीर्घकालीन भी। गुजराती महाकाव्य 'कान्हड़दे प्रबन्ध' के अनुसार संघर्ष कुछ वर्षों तक चला और शाही सेनाओं को अनेक बार मुँह की खानी पड़ी। इन अपमान जनक पराजयों के समाचारों ने सुल्तान को उतेजित कर दिया और उसने अनुभवी मलिक कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। सुल्तान की सेना का जालौर से पूर्व ही सिवाणा के सामंत सीतलदेव ने सामना किया। दोनों के बीच ऐसा युद्ध हुआ जिसकी कलपना संभवत: सुल्तानी सेना नायकों के मस्तिष्क में थी भी नहीं। यही कारण था कि एक बार पुन: पराजय झेलनी पड़ी और वहाँ से दूर तक भागना पड़ा। सुल्तान को ज्यों ही पुन: पराजय का समाचार मिला, कहते हैं कि वह स्वयं इस बार पूरी शक्ति के साथ जालौर पर चढ़ आया।
अब तक सुल्तान को यह आभास अच्छी तरह हो गया था कि युद्ध में रणबांकुरे राजपूतों को पराजित करना कठिन ही नहीं असम्भव है। परिणाम स्वरूप अब सुल्तान की ओर से कूटनीतिक दांव-पेच शुरू हो गये और दुर्ग के ही एक प्रमुख भापला नामक व्यक्ति को प्रचूर धन का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। भापला ने दुर्ग के द्वार खोल दिये और मुस्लिम सेना ने दुर्ग में प्रवेश कर लिया। दुर्ग में तैयारियां पूर्ण थी। ज्यों ही सुल्तान की सेना का प्रवेश हुआ, अन्दर राजपूतों महिलाएं जौहर करने के लिए आगे बढ़ी तो पुरुष भूखे शेरों की तहर टूट पड़े। घमासान छिड़ गया। संख्या में राजपूत कम अवश्य थे लेकिन युद्ध को देखकर ऐसा लग रहा था मानो हजारों की सेना आपस में भिड़ रही हों। यहाँ यदि यह कहा जाए तो अतिश्योति नहीं होगी कि मुट्ठीभर राजपूतों ने पुन: यह बता दिया कि वे मर सकते हैं लेकिन हारते नहीं। देखते ही देखते जालौर के दुर्ग में मरघट की शान्ति पसर गई। 18 वर्ष का संघर्ष समाप्त हो गया। कान्हड़देव का क्या हुआ, इतिहास के स्रोत मौन है लेकिन जालौर का पतन हो गया और साथ ही उस शौर्य गाथा को भी विराम मिल गया जिसका प्रारम्भ चौहान वंशीय वीर-पुत्र कान्हड़देव ने किया था।
अलाउद्दीन को जालौर-विजय की खुशी अवश्य थी, लेकिन उसने यह समझने में किंचित् भी भूल नहीं की कि राजपूताने को जीतना कठिन है। यही कारण है कि इस विजय के उपरांत उसने यहाँ के राजपूत शासकों के संग मिलकर चलने में ही अपनी भलाई समझी और फिर कोई बड़ा अभियान नहीं चलाया। स्वयं डॉ. के.एस. लाल ने अपनी पुस्तक 'खलजी वंश का इतिहास' के पृष्ठ 114 पर लिखा है.राजपूताना पर पूर्ण आधिपत्य असंभव था और वहाँ अलाउद्दीन की सफलता संदिग्ध थी।" अपनी इस बात को स्पष्ट करते हुए डॉ. लाल लिखते हैं कि-'राजपूताना में सुल्तान की विजय स्वल्पकालीन रही, देशप्रेम और सम्मान के लिए मर मिटनेवाले राजपूतों ने कभी भी अलाउद्दीन के प्रांतपतियों के सम्मुख समर्पण नहीं किया। यदि उनकी पूर्ण पराजय हो जाती तो वे अच्छी तरह जानते थे कि किसी प्रकार अपमानकारी आक्रमण से स्वयं को और अपने परिवार को मुक्त करना चाहिए, जैसे ही आक्रमण का ज्वार उतर जाता वे अपने प्रदेशों पर पुन: अपना अधिकार जमा लेते। परिणाम यह रहा कि राजपूताना पर अलाउद्दीन का अधिकार सदैव संदिग्ध ही रहा। रणथम्भौर, चित्तौड़ उसके जीवनकाल में ही अधिपत्य से बाहर हो गये। जालौर भी विजय के शीघ्र बाद ही स्वतन्त्र हो गया। कारण स्पष्ट था, यहाँ के जन्मजात योद्धाओं की इस वीर भूमि की एक न एक रियासत दिल्ली सल्तनत की शक्ति का विरोध हमेशा करती रही, चाहे बाद में विश्व का सर्वशक्तिमान सम्राट अकबर ही क्यों न हो, प्रताप ने उसे भी ललकारा था और अनवरत संघर्ष किया था।
(लेखक – तेजसिंह तरुण “राजस्थान के सूरमा” )