मंगलवार, 23 अगस्त 2016

प्रणय और कर्त्तव्य

कहानी- प्रणय और कर्तव्य
लेखक -स्व आयुवान सिंह शेखावत हुडील

लक्खा सामंत की दृष्टि पंचमी के अस्तप्रायः चन्द्रमा पर गड़ी हुई थी। उसने तरकस से एक बाण निकाला, उसे धनुष पर चढ़ाया और चन्द्रमा की ओर संधान करते हुए मन ही मन कहने लगा- "भगवान राम द्वारा क्रोधित होकर धनुष पर बाण रखते ही समुद्र ने भयभीत होकर मार्ग दे दिया था पर मेरे बाण में आज इतनी शक्ति कहाँ की यह दुष्ट चन्द्रमा भयभीत होकर आकाश से विलुप्त हो जाये। कलियुग में मनुष्यों की शक्ति क्षीण हो गई है। फिर यह चन्द्रमा तो स्वयं दुष्ट और जार है: किसी अभिसारिका की प्रतीक्षा में भूल गया जान पड़ता है।"इतने में ठंडी वायु का झोंका आया, लक्खा की तन्द्रा भंग हुई। उसने आहट पाकर महलों की ओर उत्कंठापूर्ण दृष्टि डाली पर कोई आता हुआ दिखाई नहीं दिया।
वह चन्द्रमा अस्त होने पर ही आएगी।" उसने अपने मन को कुछ प्रतीक्षा करने के लिए समझाया। बुझती हुई मशाल पर उसने और तेल सींचा, ढाल के कसे को अंगुली की सहायता से कुछ ढीला किया और पिछोली बुर्ज़ की विस्तृत छत पर वह टहलने लगा। पिछोली बुर्ज़ का मोर्चा संभालने के कारण उसने दुर्ग पति को मन ही मन धन्यवाद दिया। यदि इस बुर्ज पर उसे तैनात नहीं किया जाता तो वह आकर उससे किसी भी भांति नहीं मिल सकती थी। उसने अपनी नव प्रस्फुटित मूंछों को मरोड़ दी और फिर गर्व के साथ सोचने लगा-" इसमें दुर्गपति का क्या एहसान है? रनिवास की रक्षा के लिए इस पिछोली दुर्ग का कितना अधिक महत्त्व है। इस मोर्चे पर मेरे से अधिक विश्वसनीय, साहसी और वीर इस दुर्ग में और है भी कौन जिसे इस मोर्चे की रक्षा का दायित्व दिया जाता।" उसने फिर चन्द्रमा पर दृष्टि डाली। इस बार वह निःसंदेह मर चुका था। उसने संतोष की साँस ली। उसके ह्रदय की धड़कन बढ़ गई, और धैर्य का बाँध टूटने पर आ गया। इतने में पार्श्व की बुर्ज से "सावधान" की ध्वनि आई। लक्खा ने भी अपनी दोनों उंगलियां कानों में डालीं और उच्च स्वर से "सा-व-धा-न" चिल्ला कर आगे की बुर्ज में ध्वनि पहुंचा दी।
"ऐसे ही सावधान रहा जाता है" कहते हुए किन्हीं दो सुकुमार हाथों ने पीछे से लक्खा की दोनों आँखें बंद दी। उसने कोई प्रतिकार नहीं किया। कुछ क्षणों बाद उसने अपने दोनों हाथों को पीछे लेजाकर और कुछ आगे झुक कर उसे पीठ पर उठा लिया।
"मुझे छोड़ दो आपकी ढाल और तरकस मेरे गड़ते हैं।"
"देर से आने का यही दंड है रूपा" कहते हुए उसने अपना उल्टा बाहुपाश ढीला कर दिया।
"चांदनी में कैसे आती, कोई प्रहरी देख लेता तो ?"
"तो समझ बैठता कि आकाश से कोई देव सुंदरी अवतीर्ण होकर चन्द्रास्त के बाद अपनी दिव्य आभा से इस दुर्ग को प्रकाशमान करने आई है।"
"देव सुंदरी यहाँ क्यों आने लगी?"
"किसी नारी सुंदरी से अपने रूप की तुलना करने।"
"इतनी लावण्यमई कौन नारी सुन्दर हो सकती है।"
लक्खा ने रूपवती के गाल पर हलकी चपत लगाते हुए कहा-"यह नारी सुंदरी।"
रूपावती की पलकें नीचे झुक गईं। मशाल के मंद प्रकाश में लक्खा को सामने खड़ी रूपावती अपूर्व सुंदरी लगी। उसके गोरे गाल पर केशों की एक लट लटक रही थी। मृग शावक सी भोली आँखे, नुकीली नाक, छोटे और पतले होठ और कुछ उभरे हुए कचनार कपोल, साँचे में ढाली हुई सी सुघड़ गर्दन, लम्बी और पतली भुजाएं और पतली कमनीय देह सब कुछ लक्खा को अत्यंत ही मनोहर लग रहे थे। क्षण भर वह इस रूप राशि को देखता रहा, उसको रोमांच हो आया और फिर सहसा उसने रुपावती को अपने आलिंगनपाश में जकड लिया।
"यह क्या करते हो? जानते हो महाराज की क्या आज्ञा है?"
"जो कर्तव्य पालन में लापरवाही या सुस्ती करे उसे मृत्यु दंड_।"
"और स्त्रियों से मिलने सम्बन्धी?"
"जो मोर्चा छोड़ कर स्त्रियों के पास जावे उसे भी मृत्यु दंड।"
"तो अब आप मृत्यु दंड पाने के अधिकारी हैं।"
"नहीं, स्त्री स्वयं ही यदि मोर्चे पर आ जाय तो पुरुष के स्थान पर स्त्री को_।"
" स्त्री को मृत्यु दंड दिया जाय। यही कहना चाहते हो न।"
"हाँ।"
"पर रुपावती इस प्रकार से मृत्यु दंड नहीं स्वीकार कर सकती। वह या तो रणभूमि में मरेगी या जौहराग्नि में। मैंने अभी यहां आते समय मार्ग में जौहर कुण्ड देखा है। हजारों मन लकड़ियों से वह भरा हुआ है। पास में ही सैकड़ों कुप्पे घी और कपूर आदि के रखे हुए हैं। हमें महारानी जी की सदैव तैयार रहने की आज्ञा है। न मालूम कब शत्रु दुर्ग में प्रवेश कर जाये और कब हम महिलाओं को जौहर व्रत लेना पड़े।"
"नहीं रूपा, तुम्हें जौहर व्रत नहीं लेना पड़ेगा। हम उससे पहले ही शत्रु का घेरा तोड़ देंगे।"
"आज तीन महीने हो गए शत्रु को दुर्ग घेरे हुए और तीन महीना बीस दिन हो गए अपना विवाह हुए। विवाह के तुरंत बाद ही जब मेरा भाई मुझे पीहर ले जाने को आया था तब भी आपने यही कहा था कि तुर्क का घेरा लगने वाला है सो उसे महीना, दो महीना में परास्त करके फिर भेजेंगे।"
"रूपा, यह मैंने तुम्हें यहीं रखने के लिए ही कहा था; तुम्हारा वियोग मुझसे सहा नहीं जा सकता। तुर्क की सेना असंख्य है, उसे परास्त करना हंसी-खेल नहीं।"
"तब यह कहो की मैंने जानबूझ कर झूंठ बोला था।"
"हाँ रूपा यही समझना चाहिए। पर अब यदि जाना चाहो तो रात के समय घेरे में से निकाल कर तुम्हें पीहर भेज सकता हूँ।" लक्खा ने अपने दोनों हाथों से रुपावती के गाल सहलाते हुए उसकी आँखों में आँखे गड़ाए हुए कहा।
"न पहले जाना चाहती थी और न अब।" कहते हुए रुपावती ने दीवार से सटे हुए लक्खा के दाहिने कंधे पर अपने सिर रख दिया।
थोड़ी देर की लिए नवदम्पत्ति फिर दो से एक हो गए। ऊपर से उड़ती हुए चमगीदडों ने कदाचित उन्हें देखा होगा। दुर्ग के नीचे गीदड़ों ने बोल कर उनका ध्यान आकर्षित किया, चर्र-चर्र की ध्वनि से चकोर ने उन्हें कुछ सूचना दी। पर वे प्रेम बंधन की डोरी में कसते ही गए। पार्श्व की बुर्ज से फिर सावधान की ध्वनि आई। लक्खा ने उसी अवस्था में "सा-व-धा-न" चिल्ला कर धवनि को आगे धकेल दिया। इस बार उसके स्वर में कंपकंपी थी,तीव्रता कम और गति अधिक थी।

सहसा दो कठोर वस्तुओं की परस्पर टकराने की-सी ध्वनि हुई। दो जने फिर एक से दो हुए। लक्खा ने बुर्ज की दीवार से झुक कर बड़ी सावधानी से दुर्ग के बाहर नीचे देखा। उसने हाथ के इशारे से रुपावती को अपने पास बुलाया और सीधा होकर उसके कान में कुछ कहा। रुपावती ने भी लक्खा के हाथों पर चढ़ कर नीचे देखा। उसे भी अन्धकार में कई छायाकृतियां सी हिलती हुई दिखाई दीं। दो-चार बार फिर आपस में कानाफूसी सी हुई। लक्खा मना कर रहा था और रुपावती हठ कर रही थी। अंत में हठ की विजय हुई।

रुपावती ने अपनी कमर को ओढ़ने के सिरे से कसकर बांधा, टिमटिमाती हुई मशाल पर खूब तेल सींचा और एक हाथ में जलती हुई मशाल और दूसरे में लक्खा की नंगी तलवार लेकर बुर्ज की दीवार पर चढ़ी और तत्काल ही दुर्ग के बाहर कूद पड़ी। पिछोली बुर्ज के नीचे केवल तीन हाथ समतल भूमि थी। उसके नीचे का पहाड़ 50 हाथ नीचे तक तराशा हुआ था। उसके दायें और बाएं पार्श्व के पहाड़ भी उतने ही गहरे तराशे हुए थे जिससे पिछोली बुर्ज समुद्र में स्थित अंतरीप के सामान सुरिक्षित थी। वहां तक पहुंचना असंभव था। केवल घाटियों और ढाल पर उगे हुए वृक्षों की टहनियों के सहारे झूल कर ही वहां पहुंचा जा सकता था। पर ऐसा करने के लिए लगभग 300 हाथ वृक्षों ही वृक्षों के सहारे हाथों से झूलते हुए ही आगे सरकना पड़ता। ऐसा करना साधारण व्यक्तियों के वश की बात नहीं थी और अनजान व्यक्तियों के लिए तो वृक्षों के सहारे दिन में भी वहां पहुंचना असंभव था। इन वृक्षों की अगमता के कारण ही इस ओर दुर्ग रक्षकों की असावधानी का अनुमान लगाकर शत्रुओं ने वहां सेंध लगाने का आयोजन किया था। पिछोली बुर्ज से झपट कर रनिवास पर आसानी से अधिकार किया जा सकता था और इस प्रकार दुर्ग की समस्त रक्षा व्यवस्था को भंग करके आतंक उत्पन्न किया जा सकता था। शत्रु को यह भेद कदाचित किसी भेदू ने दिया था।

एक हाथ में नंगी तलवार और दूसरे में प्रज्ज्वलित मशाल लेकर केसरिया वस्त्रधारी रुपावती बुर्ज से नीचे कूदती हुई, आकाश से उतरती हुई साक्षात दुर्गा सी देदीप्यमान और भयानक जान पड़ी। इस आकस्मिक, अद्भुत और अप्रत्याशित कौशल से शत्रु एकदम भयभीत और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। उनके भागने का कोई मार्ग नहीं था।
मशाल के प्रकाश में लक्खा ने देखा तीन हाथ चौड़ी और पचास हाथ लम्बी भूपट्टी पर सैकड़ों यवन भांति-भांति के औजार लिए खड़े हुए हैं। दुर्ग के सर्वाधिक दक्ष धनुर्धर लक्खा ने अपना हस्त कौशल बताना आरम्भ किया। एक बाण छूटता और एक शत्रु चीख मारकर वहीँ धराशायी हो जाता। लक्खा के हाथों में इस समय अर्जुन की स्फूर्ति और राम का बल आ गया था। दस पल में दस और बीस पल में बीस बाण छूटे और बीस शत्रु धराशायी हो गए। इधर रुपावती बुर्ज और दुर्ग की दीवार से सट कर खड़ी हो गई। जो भी शत्रु इधर से उधर भाग कर बचने का प्रयास करता "खच्च" की सी आवाज आती और शत्रु रूपावति के खड्ग-प्रहार से कट कर वहीँ ढेर हो जाता। अद्भुत दृश्य था वह। ऊपर से बाण वर्षा और नीचे से खड्ग प्रहार और यदि भागे तो नीचे गिर कर प्राण गंवाएं।

इस हलचल से पास वाली बुर्जों के प्रहरी सतर्क हुए। नीचे देखा साक्षात भगवती दुर्गा एक हाथ में मशाल लेकर शत्रुओं का संहार कर रही थी। क्षण-प्रति क्षण शत्रु धराशायी हो रहे थे। दुर्ग पर से दो-तीन जलती हुई मशालें और नीचे फैंक दी गईं। ऊपर से पत्थर वर्षा प्रारम्भ हो गई। यह देख कर लक्खा ने अपनी पगड़ी नीचे लटकाई और धीमे से कहा-
"रूपा ! मशाल दूर फैंक दो और शीघ्रता से ऊपर चढ़ आओ। "
"जय चामुण्डा; जय दुर्गा" के जयघोष से पिछोली बुर्ज के दोनों पार्श्व गूंज उठे। बहुतसों ने योगमाया के दर्शन किये, बहुतसों ने नहीं किये और योग माया अंतर्ध्यान हो गई। सैनिकों का उत्साह उमड़ पड़ा। क्यों नहीं उमड़ पड़ता, उनकी और से साक्षात योगमाया जो लड़ रही थी। जिन्होंने योगमाया के दर्शन किये उन्होंने अपने को धन्य माना, जिन्होंने नहीं किये उन्होंने अपने मंद भाग्य को कोसा। बात की बात में समस्त दुर्ग रक्षक और सेना सतर्क हो गई। योगमाया के प्रकट होने की बात कानों-कान सब स्थानों पर पहुँच गई। दुर्गपाल के पहुँचते-पहुँचते किले के नीचे एक भी यवन शेष नहीं बचा था। इतने में दुर्गपति भी आ गए।
उन्होंने पूछा-"क्यों लक्खाराव सब ठीक तो है न?"
"सब ठीक है महाराज! सब शत्रु मार दिए गए हैं।"
पांच-सात जलती हुई मशालें और नीचे फैंक दी गईं। प्रकाश में हताहत व्यक्तियों को गिना- लगभग साठ व्यक्ति बाणों से बिंधे हुए थे और पंद्रह -बीस तलवार से कटे हुए थे। इतने ही का लुढ़क कर मर जाने का अनुमान लगाया गया।
"वीरवर लक्खाराव, क्या भगवती स्वयं प्रकट हुई थीं? दुर्गपति ने लक्खा सामंत के कन्धों पर हाथ रखते हुए आदर से पूछा।
"महाराज मैं बाण चलाने में तन्मय था पर प्रकाश में एक नारी दिखाई अवश्य पड़ी थी।" यह कर कर लक्खा ने मुंह नीचे कर लिया।
"तब प्रहरी सैनिकों की बात सत्य है। हम कितने अहोभाग्यशाली हैं। "कहते हुए सैनिकों को वहां छोड़ कर दुर्गपति आगे के मोर्चों का निरीक्षण करने चल पड़े।
प्रातःकाल होते-होते योगमाया के प्रकट होने की बात समस्त दुर्ग और नगर में फ़ैल गई। यह घटना सभी लोगों की चर्चा का विषय बन गई। रनिवास में भी खबर पहुंची। महारानियों ने भी इस चमत्कार को श्रद्धापूर्वक सुना और रुपावती के कानों में भी यह बात पड़ी। सब ने एक स्वर में लक्खा सामंत के भाग्य की सराहना की। महाराज ने भी अपने विश्वसनीय गुप्तचरों व अधिकारियों द्वारा इस घटना को सुना। उनका भक्त ह्रदय गदगद हो उठा। उन्होंने लक्खा सामंत से सब घटना का वर्णन स्वयं सुनना चाहा। नागरिकों और सैनिकों का उत्साह अपार हो गया। उन्हें दैवी शक्ति की सहायता से विजय में किंचित मात्र संदेह न रहा।

"गरीबपरवर ! आप मुझ नाचीज के खातिर अपने बाल-बच्चों, सल्तनत, सिपाहियों और रियाया को बर्बाद न कीजियेगा। हुजूर इंसान नहीं खुदा के पैगम्बर हैं। ऐसी मिसाल तो दुनिया की तवारीख में न सुणने में आई न देखने को। बहादुर कौमें तो बहुत है लेकिन जबान की इतनी पाबंदी और गरीबों पर इतना रहम तो राजपूतों के सिवा और कहीं नज़र नहीं आता। खुदा की मेहरबानी से इस वक्त फतह हो गई तो जिंदगीभर हुजूर और हुजूर की औलाद को दिल्ली का बादशाह बनाने की कोशिश करता रहूँगा। असल शहंशाह तो हुजूर हैं। जो बेगुनाहों और गरीबों को पनाह न दे वह काहे का सुल्तान और काहे का शहंशाह। हुजूर आपको मेरे सर की कसम है मेरे लिए इतना_। "
कहते-कहते मंगोल सरदार पीर मौहम्मद की वाणी गदगद हो उठी और आँखों से अविरल जल वर्षा होने लगी।
"सरदार! सूर्य ठंडा और चन्द्रमा उष्ण हो सकता है, पृथ्वी अपनी सहिष्णुता और सागर गंभीरता त्याग सकते हैं पर हमीर अपना निश्चय नहीं त्याग सकता। ईश्वर का विधान बदल सकता है, काल की गति बदल सकती है पर हमीर का वचन नहीं बदल सकता।
पृथ्वी राज का गौरव और चौहान कुल की मर्यादा हमीर के हाथों नष्ट नहीं होने पायेगी। शरणागत को अभयदान देना राजपूत का पुनीत कर्तव्य है और कर्तव्य पालन में परिणाम नहीं देखा जा सकता। राजपूत ने एक बार जिस शरणागत को अभयदान दे दिया उसका स्वयं ब्रह्मा भी बाल बांका नहीं कर सकते। सुलतान अलाउद्दीन की सेना बड़ी होगी पर उसने राजपूत का हाथ अभी देखा नहीं है, राजपूत की तलवार के स्वाद को अभी चखा नहीं है। सरदार! तुम निर्भीक होकर आनंदपूर्वक यहां रहो, हमीर के जीते-जी तुम्हारी ओर कोई आँख उठा कर भी नहीं देख सकता। हमीर का हठ दृढ है, रणतभंवर का दुर्ग दृढ है और भगवान भोलेनाथ का विधान दृढ है। इन्हे कई हिला नहीं सकता।
यह कह कर फिर महाराज हम्मीर राव "ओम नमः शिवाय" का मंत्र गुनगुनाने लग गए।
"दुर्गपति ने मुझे कुछ कहा, वह वास्तव में ही अद्भुत है। भगवान भोलानाथ ने ही माँ को हमारी रक्षा के लिए भेजा था। हम वास्तव में ही भाग्यशाली हैं। क्यों,बोलते क्यों नहीं लक्खा जी।"
"हाँ महाराज!" कहकर लक्खा ने सिर नीचा कर लिया। हम्मीर ने फिर मंगोल सरदार की और देखते हुए कहा-"सरदार ! हम्मीर का हठ दृढ है, रणतभंवर का दुर्ग दृढ़ है क्योंकि उन पर माँ भगवती का दृढ हाथ है।"
फिर महाराज "ओम नमः शिवाय" का मंत्र गुनगुनाने लग गए। इतने में उन्हें मांडदे के आहत होने की घटना याद आई। अब तक लगभग तीस व्यक्ति इस प्रकार अज्ञात बाण से हताहत हो चुके थे। बाण लगने के भय से सैनिक दुर्ग की दीवार के ऊपर सिर निकालते हिचकिचाते थे। दुर्ग और नगर में इस अज्ञात बाण की घटना से तरह-तरह की चर्चाएं चल उठी थीं। दृढ़ में आतंक सा छाया रहता था। रनिवास तक में इस बाण ने बड़ी महारानी जी की प्रिय दासी मांडदे को भी आहत कर दिया था,अतएव अब दुर्ग में किसी का भी जीवन सुरक्षित नहीं था। न इस बाण को चलाने वाले का किसी को कुछ पता था और न कोई यह जानता था कि यह बाण कहाँ से और किस प्रकार चलाया जाता था। प्रत्येक बाण तीन हाथ लम्बा और शूलाकार होता था। उसे कोई भीमकाय दैत्य, दानव या मानव चलाता था या वह किसी यन्त्र से चालित होता था, इस रहस्य को भी अब तक कोई नहीं समझ सका था।

महाराज हम्मीर ने एक पान का बीड़ा मंगवाया और सामंतों के सामने रखते हुए कहा-"जो सामंत इस बाण के रहस्य को मालुम करके, उसके चलाने वाले का वध करने का सामर्थ्य रखता हो, वह इस बीड़े को उठाकर चबा जाए।"
सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे। किसी को भी इस दुष्कर कार्य को करने का साहस नहीं हुआ थोड़े समय के लिए दरबार में सन्नाटा छा गया महाराज कुछ कहने ही वाले थे कि लक्खा अपने स्थान से खड़ा हुआ। उसने आगे बढ़ कर पान को उठा लिया। "शंकर भगवान की जय, हठी हम्मीर महाराज की जय" कह कर महाराज का अभिवादन किया और पान का बीड़ा मुंह में रख लिया।

महाराज ने प्रसन्न मुद्रा में लक्खा की ओर देखा और कहा-"शंकर भगवान और माँ भगवती दुर्गा तुम्हारी सहायता करेंगे।

लक्खा ने इस कार्य के लिए दो दिन का समय माँगा और महाराज से अभिवादन कर के दरबार से बाहर आ गया। वहां से वह सीधा रनिवास में गया। छत पर मांडदे की स्थिति में अपने अनुचर को खड़ा किया। जिस रूप में और जिस स्थान पर मांडदे को बाण लगा था, उस स्थिति का अध्ययन किया। फिर महल की छत पर घूमकर चारों ओर देखा और मन-ही-मन कुछ अनुमान लगाया। उसके चेहरे पर प्रसन्नता की एक रेखा दौड़ गई। उसने अपने मष्तिष्क में बाण चलाने के स्थान का रहस्य मालूम कर लिया। फिर उस बाण को हाथ में लिया, उसे हथेली पर रख कर तौला, उसके फल और सिरे को कई बार देखा और अपने धनुष पर चढ़ा कर उसकी लम्बाई का अनुमान लगाया। अब उसने बाण चलाने वाले की शक्ति, आकार और धनुर्विद्या में उसकी निपुणता का भी अनुमान लगा लिया था। "इस बाण को चलाने वाला कोई मनुष्य नहीं, दानव या देवता ही हो सकता है। बाण को अनुचर के हाथ में देते हुए उसने कहा।
अब उसके विश्राम का समय आया। नित्य कर्म से वह पहले ही निवृत हो चुका था। उसने शीघ्रता से भोजन किया और वह अपनी कोठरी में जाकर बिस्तर पर लेट गया। रात की नींद और थकावट होते हुए भी उसको नींद नहीं आ रही थी। ज्यों ही वह आँखें मूंदता, रुपावती की आकृति उसके सामने आ जाती। आज रुपावती के प्रति उसका वासनामय प्रेम श्रद्धा और सम्मान में परिवर्तित हो गया था। "रुपावती वास्तव में ही देवी है" उसने मन ही मन गुनगुनाया। उसे रोमांच हो आया। रुपावती की स्मृति ने उसे विव्हल कर दिया। उसका वश पड़ता तो वह रुपावती को उसी समय रनिवास में से कंधे पर बैठा कर वहां ले आता, फिर उसकी पूजा और आरती करता, उसे गले लगाता और न मालूम और क्या-क्या करता। दूसरे ही क्षण उसे अपने प्रतिज्ञा का ध्यान आया। उस मनुष्य का वध करना कोई हंसी-खेल नहीं है।" उसने सोचा यह कार्य उसे अत्यंत दुष्कर जान पड़ा। उससे कहीं बड़े अधिकारी, सामंत और योद्धा बैठे थे, फिर उसने ही उस बीड़े को क्यों उठाया। वह अपनी भावुकता पर खीज उठा। गत रात्रि की वीरता के लिए की गई उसकी प्रशंसा के कारण उसने अपने मस्तिष्क का संतुलन खो दिया और व्यर्थ ही एक दुष्कर कार्य का भार उसने अपने सिर पर ले लिया था। उसने करवट बदली और फिर रुपावती की स्मृति उसके ध्यान में आ गई।

आज चन्द्रमा भी तो एक घडी देर से अस्त होगा। उसने लेटे-लेते ही दो-चार बड़ी सी गलियां चन्द्रमा को दे दीं। फिर उसके ध्यान में आया कि प्रतिज्ञा पालन के लिए कितना कम समय माँगा है यदि एक महीने का समय मांगता तो रुपावती से इतना शीघ्र ही वियोग नहीं होता। पर अब बाण हाथ से छूट चुका था। वह अब महाराज के पास जाकर यह भी तो नहीं कह सकता था कि, मैं अभी बच्चा हूँ, यह दुष्कर प्रतिज्ञा मेरे से पूर्ण नहीं होगी। प्रतिज्ञा के धनी हठी हम्मीर के सम्मुख इस प्रकार के कायरतापूर्ण वचन बोलने का उसे कैसे साहस हो सकता था। उसकी स्वयं की भी कुल मर्यादा थी। अब तक उसने वीरता से नाम और सम्मान कमाया था। उस पर अब कालिख कैसे पोती जा सकती थी। फिर उसने करवट बदली और रुपावती का दैवी स्वरूप उसके स्मृति पटल पर आकर अंकित हो गया। उसने कल्पना का सुख लेने के लिए लेटे-लेटे ही रुपावती को अपने ह्रदय से लगाने के लिए दोनों हाथ फैलाये। इतने में पानी की झारी लेकर आते हुए अनुचर की उसकी खटिया के ठोकर लग जाने के कारण खटिया हिली और उसकी विचार शृंखला वहीँ समाप्त हो गई। फिर उसने आँखें बंद की। उसका अन्तःप्रदेश फिर प्रणय और कर्त्तव्य के संघर्ष से उद्वेलित हो उठा। अंत में उसने कुछ निश्चय किया और अब उसकी आँख लग गई।

रात्री हुई और लख्खा पिछोली बुर्ज पर पहुँच गया आज फिर वह चंद्रमा के अस्त होने का इन्तजार करने लगा,आखिर चन्द्रमा के अस्त होते ही जौहर कुण्ड की और से आती हुई एक आकृति उसे नजर आई वह समझ गया कि रुपावती आ रही है,थोड़ी देर में रुपावती उसके सामने थी | "आज देवी की कृपा देर से हुई ?" "भक्त के हृदय में भक्ति की कमी आ गयी होगी |" कहते हुए रुपावती बुर्ज की सीढियाँ चढ़ गयी | फिर दो प्रेमी मन,वचन और कर्म से एक हो गए | आज लख्खा के व्यवहार में कुछ विचित्रता सी थी | कोई बात उसकी जुबान तक आती और रुक जाती | वह रुपावती को एक क्षण भी अलग होने देना नहीं चाह रहा था |

"अब शुभ कार्य के लिए विलम्ब क्यों करते हो नाथ? जिस प्रकार महाराज हम्मीर का हठ दृढ है, रणत भंवर का दुर्ग दृढ़ है उसी प्रकार आपकी प्रतिज्ञा भी दृढ़ होनी चाहिए स्वामी।"
"देवी का आग्रह दृढ है तो प्रतिज्ञा भी दृढ़ होगी रूपा।"
रूपावती ने लक्खा की आरती की, अपने हाथ से उसके शस्त्र बांधे, भगवान शंकर से प्रार्थना की और चरण छू कर उसे विदाई दी। लक्खा लटकते हुए रस्से की और गया। उसने एक बार आँख भर रूपावती की गंभीर मुख को देखा और तुरंत ही रस्सा पकड़ कर नीचे झुक गया।
रूपावती ने मशाल पर तेल सींचा और दुर्ग के नीचे अन्धकार में अपने प्राणनाथ की विलीन होती हुई आकृति को देखने के लिए दीवार से ऊपर सिर निकाला।
थोड़ी देर पश्चात बंधा हुआ रस्सा हिला। रूपावती ने अपनी तलवार संभाली और मशाल उधर कर के देखा तो लक्खा बुर्ज की दीवार पर चढ़ता हुआ दिखाई दिया।
"क्यों नाथ लौट कैसे आये?"
"कटार भूल गया था उसे लेने आया हूँ।"
"ओह मैं आपके कटार बांधना भूल गई थी।" यह कह कर रूपावती ने उसकी कमर में कटार बाँध दी। लक्खा ने फिर रूपावती को अपने ह्रदय से लगाया और रस्से के सहारे वह वह नीचे झुक गया।
थोड़ी देर के पश्चात वह फिर रस्से के सहारे बुर्ज पर आ गया। इस बार कहा-"तरकस में बाण कम हैं सो बाण लेने आया हूँ।"
रूपावती ने कहा- नाथ शीघ्रता कीजिये। यदि चन्द्रमा अस्त हो गया तो आपको अन्धकार में नीचे जाने के लिए मार्ग मिलना कठिन हो जायेगा।
लक्खा तीसरी बार नीचे झुक गया। उसने आगे पैर बढ़ाना चाहा पर ह्रदय उसका पीछे बंधा हुआ ही रह गया था। इस बार उसने कुछ निश्चय किया और फिर पिछोली बुर्ज की दीवार पर चढ़ आया। इस बार रूपावती ने कुछ क्रोध मिश्रित स्वर में पूछा-" आप फिर क्यों आये हैं?
लक्खा के मन में आया क़ि इस बार सच्ची-सच्ची बात कह दूं- मैं तुम्हें लेने के लिए आया हूँ। हम यहाँ से भाग चलें और आनंद से कहीं दिन बिताएंगे।
पर इस बार रूपावती की रौद्र मूर्ति देख कर उसे यह बात कहने का साहस नहीं हुआ। इस समय सचमुच रूपावती साक्षात दुर्गा के सामान रौद्र लग रही थी।
लक्खा ने अपने मन ही मन बात छिपाते हुए कहा- "रूपा ! मैं तुम्हें यही पूछने आया हूँ क़ि आज मैं यदि काम आ गया तो तुम पीहर किस प्रकार जाओगी?"
रूपा ने स्वर में रूखापन लाते हुए कहा- "मैं पीहर क्यों जाउंगी, यहीं सती हो जाउंगी।"
"रूपा ! हाथ आगे बढ़ाते हुए लक्खा ने कहा।
"सावधान अब आप मुझे छूना मत। आप अपना कर्तव्य पालन कीजिये और मैं अपना_।" कहती हुई रूपावती बुर्ज से नीचे जाने लगी।"

लक्खा का सिर लज्जा से झुक गया। उसे इस परिस्थितिजन्य दुर्बलता पर क्रोध आ गया। उस जैसा सामंत यह दुर्बलता बताये। उसे एक धक्का सा लगा और वह फ़ौरन दीवार पर चढ़कर नीचे झुकने लगा "नाथ ठहरिये !" रूपावती ने लौटते हुए कहा।
"क्यों ?" लक्खा ने पूछा।
"आप नीचे उतरकर अपना दुपट्टा फैलाइए। मैं ऊपर से एक ऐसी वस्तु गिराउंगी जिससे निश्चित रूप से आपकी विजय होगी। एक सिद्ध मणि आपको भेंट करुँगी।" यह कहती हुई रूपावती हंस पड़ी।

भावनाओं के तीव्र द्वंद्व के कारण लक्खा का मन कुछ भी निश्चित नहीं कर सका। वह तंत्र द्वारा चालित पुतले के सामान अपने कमरबंध को दोनों हाथों से फैला कर बुर्ज के नीचे खड़ा हो गया।
ऊपर से कोई भारी सी वस्तु दुपट्टे पर आकर गिरी। लक्खा पहले सहसा चौंका, फिर क्षण भर उस वस्तु को देखता रहा। क्षणभर उसने कुछ सोचा और दुपट्टे से उस वस्तु को ह्रदय से बांध कर वह शीघ्रतापूर्वक चल पड़ा।

उसके अभ्यस्त पैरों, बलिष्ठ हाथों और दृढ निश्चय ने उसे थोड़ी देर में रणत्या की डूंगरी (रण की डूंगरी) की पूर्वी ढाल पर लाकर खड़ा कर दिया। उसकी कमर का दुपट्टा एक कटीली झाड़ी में उलझ गया। वह उसे निकालने के लिए रुका। सहसा उसे किसी के आने की आहट सुनाई पड़ी। वह झट से एक चट्टान की ओट में छिप गया। थोड़ी देर में उसे मशाल के क्षीण प्रकाश में दो सिर रणत्या की डूंगरी के शिखर पर हिलते हुए दिखाई दिए। वह भी सांस ऊपर खींच कर, हाथों, पैरों के सहारे, बिना आहट किये हुए ऊपर की ओर चढ़ने लगा। अंत में वह एक ऐसी चट्टान पर पहुंच गया जहाँ उसे वे दोनों व्यक्ति नहीं देख सकते थे पर वह दोनों को देख सकता था। शिखर पर खड़े दोनों व्यक्तियों ने मशाल बुझा दी और बैठ कर किसी की प्रतीक्षा करने लगे।

प्राची में अरुणोदय हुआ। सघन अन्धकार के स्थान पर प्रकाश की हल्की आभा व्याप्त हो गई। लक्खा ने देखा, शिखर पर एक विशालकाय व्यक्ति खड़ा हुआ है। उसने रणत भंवर के दुर्ग की ओर मुंह किया, फिर दाहिना घुटना भूमि पर टेक कर बायां घुटना ऊपर की ओर करके धनुष उठाया; धनुष की एक नोंक भूमि पर रख कर दाहिने घुटने से दबाया और उस पर एक बाण चढ़ा कर उसे कान तक खींचा और फिर वापिस उतार कर रख दिया। फिर उसने प्राची में देखा और कुछ गुनगुना कर आराम की स्थिति में बैठ गया। अब लक्खा उसके मंतव्य को भी समझ गया। वह उदित होते हुए सूर्य को अर्ध्य देते हुए महाराज का वध करना चाहता था।

दूसरे ही क्षण रणत भंवर के सबसे बलिष्ठ हाथों ने भी अपना धनुष संभाला; उस पर एक अर्द्ध-चंद्राकार बाण रखा; उसे कान तक खींचा और वापिस उतारकर रख दिया। यद्यपि लक्खा वीर था, बलिष्ठ था पर तो भी उसका ह्रदय धक-धक उछाल रहा था। भय, आशंका, उत्तेजना, प्रसन्नता, आदि मिश्रित भावों के वेग से उसके हाथों में कंपकपी आने लगी। उसने अपने आत्म बल को बटोरा, इक्कीस बार "विघ्नहरण गणेशाय: नमः" का जाप किया, भगवान शंकर का ध्यान किया, अपने ह्रदय पर बंधी हुई वस्तु पर हाथ फेरा और फिर धनुष पर बाण चढ़ाया, प्रत्यंचा को कान तक खींचा और संधान करके छोड़ दिया। उस विशालकाय व्यक्ति का सिर कट कर ज़मीं पर आ गिरा। लक्खा प्रसन्नता से उछल पड़ा। थोड़ी देर तक उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। वह पाषाणवत वहीँ खड़ा देखता रहा। इतने में दूसरा व्यक्ति वहां से भाग खड़ा हुआ। तब लक्खा लपक कर शिखर पर गया। उसने भैंसे के सिर जैसा विशाल सिर उठाया, कटी हुई गर्दन को मिट्टी और घास पर रगड़ कर रक्त को सुखाया, शूलाकार बाणों और विशाल धनुष को उठाया और वह तत्काल वहां से चल पड़ा। उसके चेहरे की क्षणिक प्रसन्नता, फिर गंभीरता और विषाद में बदल गई।
सूर्योदय होते-होते लक्खा पिछोली बुर्ज पर पहुँच गया था। उसने तत्काल ही वहां पड़ी हुई वस्तुओं को ठिकाने लगाया। अपने अनुचर को, जो "सावधान" कहने के लिए बुर्ज के नीचे बैठा दिया गया था, जगाया और सूर्य को अर्ध्य देकर नीचे उतरते हुए महाराज हम्मीर राव के चरणों पर कटा हुआ विशाल सिर, शूलाकार बाण और विशाल धनुष को रख दिया।
"तुम्हारे ही जैसे श्रेष्ठ वीरों के कारण हम्मीर के दृढ हठ और रणत भंवर के दृढ दुर्ग को कोई तोड़ नहीं सकता लक्खाजी।" कहते हुए महाराज ने रक्त से लथपथ लक्खा को अपने गले लगा लिया।
"मैं आपका अपराधी हूँ महाराज !"
"कैसा अपराध ?"
"मैंने दुर्ग के अनुशासन को भंग किया; आपकी अवज्ञा की और मिथ्या भाषण किया।"
"मैं तुम्हारी बात का तात्पर्य समझा नहीं लक्खजी।"
और लक्खा ने आद्योपांत बुर्ज की प्रणय लीला, देवी के प्रादुर्भाव और अंत में मोह लिप्त होने की कहानी महाराज को सुना दी। उसने अपने हृदय पर दुपट्टे से बंधा हुआ रूपावती का सिर महाराज के सम्मुख रख दिया।
महाराज हम्मीर ने रूपावती के कटे शीश को देखा। क्षण भर में ही उनकी मुखाकृति गंभीर हो गई। उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए। उनके हृदय में कर्त्तव्य के दृढ़ निश्चय की एक भाव-तरंग उठी, आँखों के मार्ग से दो मोतियों के रूप में वह प्रकट हुई और महाराज के कपोलों को स्पर्श करते हुए उसने रूपावती के उज्जवल भाल को धोकर और भी अधिक दैदीप्यमान बना दिया।
------समाप्त------