शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

किले का विवाह

'बधाई ! बधाई !

तुर्क सेना हार कर जा रही है गढ़ का घेरा उठाया जा रहा है |"
प्रधान बीकमसीं(विक्रमसिंह) ने प्रसन्नतापूर्वक जाकर यह सूचना रावल मूलराज को दे दी |

"घेरा क्यों उठाया जा रहा है ?" रावल ने विस्मयपूर्वक कहा |
कल के धावे ने शाही सेना को हताश कर दिया है |

मलिक, केशर और सिराजुद्दीन जैसे योग्य सेनापति तो कल ही मारे गए | अब कपूर मरहठा और कमालद्दीन में बनती नहीं है | कल के धावे में शाही सेना का जितना नाश हुआ उतना शायद पिछले एक वर्ष के सब धावों में नहीं हुआ होगा, अब उनकी संख्या भी कम हो गयी है,जिससे उनको भय हो गया है कि कहीं तलहटी में पड़ी फ़ौज पर ही आकर आक्रमण न करदे |

प्रधान बीकमसीं ने कहा |

"तलहटी में कुल कितनी फ़ौज होगी |"
"लगभग पच्चीस हजार |"
"फिर भी उनको भय है |"

रावल मूलराज ने एक गहरी नि:श्वास छोड़ी और उनका मुंह उतर गया, उसने छोटे भाई रतनसीं की और देखा, वह भी उदास हो गया था | बीकमसीं और दुसरे दरबारी बड़े असमंजस में पड़े | जहाँ चेहरे पर प्रसन्नता छा जानी चाहिए थी वहां उदासी क्यों ?

वर्षों के प्रयत्न के उपरांत विजय मिली थी, हजारों राजपूतों ने अपने प्राण गंवाए थे तब जाकर कहीं शाही सेना हताश होकर लौट जाने को विवश हुई थी | बीकमसीं ने समझा शायद मेरे आशय को रावलजी ठीक से समझे नहीं है इसलिए उसने फिर कहा -

"कितनी कठिनाई से अपने को जीत मिली है, अब तो लौटती हुई फ़ौज पर दिल्ली तक धावे करने का अवसर मिल गया है | हारी हुई फ़ौज में लड़ने का साहस नहीं होता, इसलिए खूब लूट का माल मिल सकता है |"

रावल मूलराज ने बीकमसीं की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और वह और भी उदास होकर बैठ गया, सारे दरबार में सन्नाटा छा गया | रावलजी के इस व्यवहार को रतनसीं के अलावा और कोई नहीं समझ रहा था |

बहुत देर से छा रही नि:स्तब्धता को भंग करते हुए अंत में एक और गहरी नि:श्वास छोड़ कर रावल मूलराज ने कहा -
"बड़े रावलजी (रावल जैतसीं) के समय से हमने जो प्रयत्न करना शुरू किया था वह आज जाकर विफल हुआ | शेखजादा को मारा और लुटा, सुल्तान फिरोज का इतना बिगाड़ किया,उसके इलाके को तबाह किया और हजारों राजपूतों को मरवाया पर परिणाम जाकर कुछ नहीं निकला | शाही फ़ौज आई वैसे ही जा रही है | अब सुल्तान फिरोज की फ़ौज ही हार कर जा रही है तब दूसरा तो और कौन है जो हमारे उदेश्य को पूरा कर सके |"

"इस प्रकार शाही फ़ौज का हार कर जाना बहत बुरा है क्योंकि इस आक्रमण में सुल्तान को जन-धन की इतनी अधिक हानि उठानी पड़ी है कि वह भविष्य में यहाँ आक्रमण करने की स्वप्न में भी नहीं सोचेगा |" रतनसीं ने रावल मूलराज की बात का समर्थन करते आगे कहा |
"शाही-फ़ौज के हताश होकर लौटने का एक कारण अपना किला भी है | यह इतना सुदृढ़ और अजेय है कि शत्रु इसे देखते ही निराश हो जाते है | वास्तव में अति बलवान वीर व दुर्ग दोनों ही कुंवारे (अविवाहित) ही रहते है | मेरे तो एक बात ध्यान में आती है ,- क्यों नहीं किले की एक दीवार तुड़वा दी जाये जिससे हताश होकर जा रही शत्रु सेना धावा करने के लिए ठहर जाय |

"रावल मूलराज ने प्रश्नभरी मुद्रा से सबकी और देखते हुए कहा |
"मुझे तो एक दूसरा उपाय सुझा है,यदि आज्ञा हो तो कहूँ |" रतनसीं ने अपने बड़े भाई की और देखते हुए कहा |
"हाँ-हाँ जरुर कहो |"
"कमालद्दीन आपका पगड़ी बदल भाई है | उसको किसी के साथ कहलाया जाय कि हम गढ़ के किंवाड़ खोलने को तैयार है,तुम धावा करो | वह आपका आग्रह अवश्य मान लेगा | उसको आपकी प्रतिज्ञा भी बतला दी जाय और विश्वास भी दिलाया जाय कि किसी भी प्रकार का धोखा नहीं है |"

"वह नहीं माना तो |"
" जरुर मान जायेगा | एक तो आपका मित्र है इसलिए आप पर विश्वास कर लेगा और दूसरा हारकर लौटने में उसको कौनसी लाज नहीं आ रही है | वह सुल्तान के पास किस मुंह से जायेगा | इसलिए विजय का लोभ भी उसे रोक देगा |"
" उसे विश्वास कैसे दिलाया जाय कि धोखा नहीं होगा |"
"किले पर लगे हुए झांगर यंत्रों और किंवाड़ों को पहले से तौड़ दिया जाय |"
रावल मूलराज के,रतनसिंह की बताई हुई युक्ति जंच गयी | उसके मुंह पर प्रसन्नता दौड़ती हुई दिखाई दी |

उसी क्षण जैसलमेर दुर्ग पर लगे हुए झांगर यंत्रों के तोड़ने की ध्वनि लोगों ने सुनी, लोगों ने देखा कि किले के किंवाड़ खोल दिए गए थे और दुसरे ही क्षण उन्होंने देखा कि वे तोड़े जा रहे थे |
फिर उन्होंने देखा एक घुड़सवार जैसलमेर दुर्ग से निकला और तलहटी में पड़ाव डाले हुए पड़ी, शाही फ़ौज की और जाने लगा | वह दूत-वेश में नि:शस्त्र था, उसके बाएँ हाथ में घोड़े की लगाम और दाएं हाथ में एक पत्र था |
लोग इन सब घटनाओं को देख कर आश्चर्य चकित हो रहे थे | झांगर यंत्रों का और किंवाड़ो को तोड़ा जाना और असमय में दूत का शत्रु सेना की ओर जाना विस्मयोत्पादक घटनाएँ थी जिनको समझने का प्रयास सब कर रहे थे पर समझ कोई नहीं रहा था

कमालदीन ने दूत के हाथ से पत्र लिया | वह अपने डेरे में गया ओर उसे पढने लगा -
"भाई कमालदीन को भाटी मूलराज की जुहार मालूम हो | अप्रंच यहाँ के समाचार भले है | राज के सदा भलें चाहियें | आगे समाचार मालूम हो -
जैसलमेर का इतना बड़ा ओर दृढ किला होने पर भी अभी तक कुंवारा ही बना हुआ है | मेरे पुरखा बड़े बलवान ओर बहादुर थे पर उन्होंने भी किले का कौमार्य नहीं उतारा | जब तक ये किला कुंवारा रहेगा तब तक भाटियों की गौरवगाथा अमर नहीं बनेगी ओर हमारी संतानों को गौरव का ज्ञान नहीं होगा | इसलिए मैं लम्बे समय से सुल्तान फिरोजशाह से शत्रुता करता आ रहा हूँ |

उसी शत्रुता के कारण उन्होंने बड़ी फ़ौज जैसलमेर भेजी है पर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है कि वह फ़ौज आज हार कर जा रही है | इस फ़ौज के चले के उपरांत मुझे तो भारत में और कोई इतना बलवान दिखाई नहीं पड़ता जो जैसलमेर दुर्ग पर धावा करके इसमें जौहर और शाका करवाए | जब तक पांच राजपूतानियों की जौहर की भस्म और पांच केसरिया वस्त्रधारी राजपूतों का रक्त इसमें नहीं लगेगा तब तक यह किला कुंवारा ही रहेगा |

तुम मेरे पगड़ी बदल भाई और मित्र हो | यह समय है अपने छोटे भाई की प्रतिज्ञा रखने और उसे सहायता पहुँचाने का | इसलिए मेरा निवेदन है कि तुम अपनी फ़ौज को लौटाओ मत और कल सवेरे ही किले पर आक्रमण कर दो ताकि हमें जौहर और शाका करके स्वर्गधाम पहुँचने का अमूल्य अवसर मिले और किले का भी विवाह हो जाये |
मैं तुम्हे वचन देता हूँ कि यहाँ किसी प्रकार का धोखा नहीं होगा | हमने किले के झांगर यंत्र और दरवाजे तुड़वा दिए है सो तुम अपना दूत भेज कर मालूम कर सकते हो |"

कमालदीन ने पत्र को दूसरी बार पढ़ा | उसके चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी | धीरे धीरे वह गंभीर और उदासी के रूप में बदल गयी | एक घड़ी तक वह अपने स्थान पर बैठा सोचता रहा | कई प्रकार के संकल्प-विकल्प उसके मष्तिष्क में उठे | अंत में उसने दूत से पूछा -
"किले में कितने सैनिक है ?"
"पच्चीस हजार |"
"पच्चीस हजार ! तब तो रावलजी से जाकर कहना मैं मजबूर हूँ | मेरे साथी लड़ने को तैयार नहीं |"

"संख्या के विषय में मुझे मालुम नहीं | आप अपना दूत मेरे साथ भेज कर मालूम करवा सकते है |" दूत ने बात बदल कर कहा |
एक दूत घुड़सवार के साथ किले की और चल पड़ा | थोड़ी देर पश्चात ऊँटों और बैलगाड़ियों पर लड़ा हुआ सामान उतारा जाने लगा | उखड़ा हुआ पड़ाव फिर कायम होने लगा | शाही फ़ौज के उखड़े पैर फिर जमने लगे |

दशमी की रात्री का चंद्रमा अस्त हुआ | अंधकार अपने टिम-टिम टिमाते हुए तारा रूपी दांतों को निकालकर हँस पड़ा | उसकी हंसी को चुनौती देते हुए एक प्रकाश पुंज जैसलमेर के दुर्ग में दिखाई पड़ा | गढ़ के कंगूरे और उसमे लगे हुए एक एक पत्थर तक दूर से दिखाई पड़ने लगे | एक प्रचंड अग्नि की ज्वाला ऊपर उठी जिसके जिसके साथ हजारों ललनाओं का रक्त आकाश में चढ़ गया | समस्त आकाश रक्त-रंजित शून्याकार में बदल गया | उन ललनाओं का यश भी आकाश की भांति फ़ैल कर विस्मृत और चिरस्थाई हो गया |

सूर्योदय होते ही तीन हजार केसरिया वस्त्रधारी राजपूतों ने कमालदीन की पच्चीस हजार सेना पर आक्रमण कर दिया | घड़ी भर घोर घमासान युद्ध हुआ | जैसलमेर दुर्ग की भूमि और दीवारें रक्त से सन गई | जल की प्यासी भूमि ने रक्तपान करके अपनी तृष्णा को शांत किया | अब शाका भी पूरा हुआ |

आज कोई नहीं कह सकता कि जैसलमेर का दुर्ग कुंवारा है,कोई नहीं कह सकता कि भाटियों ने कोई जौहर शाका नहीं किया,कोई नहीं कह सकता कि वहां की जलहीन भूमि बलिदानहीन है और कोई नहीं कह सकता कि उस पवित्र भूमि की अति पावन रज के स्पर्श से अपवित्र भी पवित्र नहीं हो जाते | जैसलमेर का दुर्ग आज भी स्वाभिमान से अपना मस्तक ऊपर किये हुए सन्देश कह रहा है |यदि किसी में सामर्थ्य हो तो सुन लो और समझ लो वहां जाकर |

लेखक : स्व.श्री आयुवानसिंह शेखावत
साभार - ज्ञान दर्पण

बुधवार, 13 जनवरी 2016

हिन्दुस्तान के गौरव हिंदुत्व के रक्षक वीर योद्धा मेवाड़ के महाराणा सांगा

   हिन्दूपति महाराणा संग्राम सिंह जो लोगों में "सांगा"के नाम से अधिक प्रसिद्ध है भारतीय इतिहास के एक ऐसे आदर्श महापुरुष हो चुके है जिनका जीवन -चरित्र शौर्यपूर्ण गाथाओं तथा त्याग और बलिदान की अमर उपलब्धियों से अभिमण्डित है।उन्होंने मध्यकालीन राजनीति में सक्रिय भाग लेकर हिंदुत्व की मानमर्यादा का संरक्षण तथा भारतीय संस्कृति के उच्चादर्शों का प्रतिष्ठान किया था जिसके कारण मेवाड़ का गौरव विश्बभर में समुन्नत हुआ।राणा सांगा अपनेसमय के श्रेष्ठ व् शिरमौर हिन्दू राजा थे।हिंदुस्तान के सभी राजा उनको सम्मान देते थे।मेवाड़ ने उनके ही शासनकाल में शक्ति और सम्रद्धि की चरमसीमा प्राप्त की। सांगा मेवाड़ की कीर्ति के कलश थे।वे पश्चिमी भारत हिन्दू राजा और सरदारों के।सर्वमान्य नेता थे।उन्हें हिंदुपति अर्थात हिंदुओं का स्वांमी कहते है।महाराणा सांगा वीर ,उदार 'कर्तज्ञ ,बुद्धिमान और न्याय परायण शासक थे।अपने शत्रु को कैद करके छोड़ देना और उसे पीछा राज्य दे देना सांगा जैसे ही उदार और वीर पुरुष का कार्य था।वह एक सच्चे क्षत्रिय थे,।उन्होंने अपनी वीरता निडरता और साहसी युद्ध -कौशल से मेवाड़ को एक सामाराज्य बना दिया था।राजपूताने के बहुधा सभी तथा कई बाहरी राजा आदि भी मेवाड़ के गौरव के कारण मित्रभाव से उनके झंडे तले लड़ने में अपना गौरव समझते थे।इस प्रकार राजपूत जाति का संगठन होने के कारण वे बाबर से लड़ने को एकत्र हुए।सांगा अंतिम हिन्दू राजा थे ,जिनके सेनापतित्व में सब राजपूत जातियां विदेशियों "तुर्कों "को भारत से निकालने के लिए सम्मलित हुई।यद्धपि इसके बाद और भी वीर राजा उत्पन्न हुए ,तथापि ऐसा कोई न हुआ ,जो सारे राजपूताने की सेना का
सेनापति बना हो।राणा सांगा ने देश के सम्मान और आदर्शों की स्थापना हेतु जीवन भर प्रयास किया ।दिल्ली और मालवा के मुगल बादशाहों से 18 बार युद्ध कर विजय प्राप्त की थी। दिल्ली के इब्राहिम लोधी ने 2 बार महाराणा से युद्ध किया ,दोनों ही बार उसकी पराजय हुई।मांडू मालवा के बादशाह महमूद दुतीय को कैद करना महाराणा सांगा के अदभुत पराक्रम का ही परिणाम था।इनके शरीर में युद्ध के 80 घाव थेऔर शायद ही शरीर में कोई अंश ऐसा हो जिस पर युद्धों में लगे हुए घावों के चिन्ह न हों।उसी समय समय बाबर ने दिल्ली के इब्राहिम लोधी को मार कर दिल्ली विजय करली।कुछ समय बाद बाबर ने आगरा भी जीत लिया।बाबर यह अच्छी तरह से जानता था की हिन्दुस्तान में उसका।सबसे भयंकर शत्रु महाराणा सांग था।उनके बढ़ती हुई शक्ति व् प्रतिष्ठा को बाबर जानता था।वह यह भी जनता था की महाराणा से युद्ध करने के दो ही परिणाम हो सकते है --या तोवह भारत का सम्राट हो जाय या उसकी सब आशाओं पर पानी फिर जाय और उसे बापस काबुल जाना पड़े।बाबर और महाराणा सांगा में17 मार्च 1527 को खानवा के मैदान में भयंकर युद्ध हुआ।रणभूमि में तीर लगने से सांगा मूर्छित हो गए।उन्हें इस अवस्था में युद्धभूमि से वापिस ले जाया गया।इस युद्ध में चंदेरी के मेदिनीराय खंगार और चन्दवार (जो उस समय आगरा के क्षेत्र में चौहान राजपूतों की राजधानी थी )के चौहान राजा मानिक चंद और उनके बेटे दलपत ने राणा सांगा के साथ मिलकर बाबर से भयंकर युद्ध किया था ।राव मानिक चंद और उनका पुत्र युद्ध क्षेत्र में अपने प्राणों का बलिदान कर अपने कुल के इस अंतिम अध्याय को अधिक तेजस्वी बनागये ।
बाबर लिखता है क़ि राणा सांगा अपनी वीरता और तलबार के बल से बहुत बड़ा हो गया था।उसकी शक्ति इतनी बढ़ गई थी क़ि मालवे ,गुजरात और दिल्ली के सुलतान में से कोई भी अकेला उसे हरा नही सकता था।करीब 200 शहरों में उसने मस्जिदें गिरवादी और बहुत से मुगलों को कैद किया।उसका मुल्क 10 करोड़ की आमदनी का था।उसकी सेना में एक लाख सवार थे।उसके साथ 7 राजा ,9 राव और 104 छोटे सरदार रहा करते थे।उसके 3 उत्तराधिकारी भी यदि वैसे ही वीर और योग्य होते ,तो मुगलों का राज्य भारतवर्ष में जमने न पाता।एक विदेशी तुर्क भी हमारे पूर्वजों के साहस ,वीरता ,शौर्य और बलिदान की गाथा का गुणगान करके दुनियां से चला गया।ये हमारे लिए गौरव की बात है क़ि उसने भी राणा सांगा की वीरता का गुणगान किया जिनके आदर्शों से हमें और हमारे युवा -पीढ़ी को कुछ सीख लेनी चाहिए।मैं ऐसे महान वीर और सनातन धर्म के रक्षक महान पराक्रमी योद्धा को तहे दिल से सत् -सत् नमन करता हूँ
जय हिन्द।
जय राजपुताना ।

लेखक --डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव --लरहोता ,सासनी ,जिला --हाथरस ,उत्तरप्रदेश ।

शनिवार, 2 जनवरी 2016

ममता और कर्त्तव्य



विक्रम संवत् 1360 के चैत्र शुक्ला तृतीया की रात्रि का चतुर्थ प्रहर लग चुका था । वायुमण्डल शांत था । अन्धकार शनैः शनैः प्रकाश में रूपान्तरित होने लग गया था । बसन्त के पुष्पों की सौरभ भी इसी समय अधिक तीव्र हो उठी थी । यही समय भक्तजनों के लिए भक्ति और योगियों के लिए योगाभ्यास द्वारा शान्ति प्राप्त करने का था । सांसारिक प्राणी भी वासना की निवृत्ति उपरांत इसी समय शान्ति की शीतल गोद में विश्राम ले रहे थे । चारों ओर शान्ति का ही साम्राज्य था ।
ठीक इसी समय पर चित्तौड़ दुर्ग (Chittorgarh) की छाती पर सैकड़ों चिताएँ प्रदीप्त हो उठी थी । चिर शान्ति की सुखद गोद में सोने के लिए अशान्ति के महाताण्डव का आयोजन किया जा रहा था । और ठीक इसी ब्रह्म मुहूर्त में विश्व की मानवता को स्वधर्म-रक्षा का एक अपूर्व पाठ पढ़ाया जाने वाला था । उस पाठ का आरम्भ धू-धू कर जल रही सैकड़ों चिताओं में प्रवेश (Johar of Chittorgarh) करती हुई हजारों ललनाओं के आत्मोसर्ग के रूप में हो गया था ।
“मैं सूर्य-दर्शन करने के उपरान्त शास्त्रोक्त विधि से चिता में प्रवेश करूँगी। अपने पुत्र गोरा को उसकी वृद्ध माताजी ने अपने पास बुलाते हुए कहा ।
“जो आज्ञा माताजी।’ कह कर गोरा आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए घर से बाहर निकलने लगा ।
‘‘और मैं माताजी का जौहर दर्शन करने के उपरान्त चिता-प्रवेश करूँगी |''
गोरा ने मुड़ कर देखा - पंवारजी माताजी को स्नान कराने के लिए जल का कलश ले जाते हुए कह रही थी । यदि कोई ओर समय होता तो उद्दण्ड गोरा अपनी स्त्री के इस आदेशात्मक व्यवहार को कभी सहन नहीं करता पर वह दिन तो उसकी संसार-लीला का अन्तिम दिन था । कुछ ही घड़ियों पश्चात् उसकी माता और स्त्री को अग्नि-स्नान द्वारा प्राणोत्सर्ग करना था और उसके तत्काल बाद ही गोरा को भी सुल्तान अलाउद्दीन की असंख्य सेना के साथ युद्ध करते हुए ‘धारा तीर्थ में स्नान करना था । इसीलिए असहिष्णु गोरा ने मौन स्वीकृति द्वारा स्त्री के अनुरोध का भी आज पालन कर दिया था । वह एक के स्थान पर दो चिताएँ तैयार कराने में जुट गया ।
थोड़ी देर में दो चिता सजा कर तैयार कर दी गई । उनमें पर्याप्त काष्ठ, घृत, चन्दन, नारियल आदि थे । एक चिता घर के पूर्वी आंगन में और दूसरी घर के उत्तरी अहाते की दीवार से कुछ दूर, वहाँ खड़े हुए नीम के पेड़ को बचाकर तैयार की गई थी । विधिवत् अग्निप्रवेश करवाने के लिए पुरोहितजी भी वहाँ उपस्थित थे ।गोरा की माँ ने पवित्र जल से स्नान किया, नवीन वस्त्र धारण किए, हाथ में माला ली और वह पूर्वाभिमुख हो, ऊनी वस्त्र पर बैठकर भगवान का नाम जपने लगी । गत पचास वर्षों के इतिहास की घटनायें एक के बाद एक उस वृद्धा के स्मृति-पटल पर आकर अंकित होने लगी । उसे स्मरण हो आया कि पहले पहल जब वह नववधू के रूप में इस घर में आई थी, उसका कितना आदर-सत्कार था । गोरा के पिताजी उसे प्राणों से अधिक प्यार करते थे । वे युद्धाभियान के समय द्वार पर उसी का शकुन लेकर जाते थे और प्रत्येक युद्ध से विजयी होकर लौटते थे । विवाह के दस वर्ष उपरान्त अनेकों व्रत और उपवास करने के उपरान्त उसे गोरा के रूप में पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ था। । उस दिन पति-पत्नी को कितनी प्रसन्नता हुई थी, कितना आनन्द और उत्सव मनाया गया था। ।गोरा के पिताजी ने उस आनन्द के उपलक्ष में एक ही रात में शत्रुओं के दो दुर्ग विजय कर लिए थे ।
अभी गोरा छः महीने का ही हुआ था कि सिंह के आखेट में उनका प्राणान्त हो गया था । वह उसी समय सती होना चाहती थी पर शिशु के छोटे होने के कारण वृद्ध जनों ने उसे आज्ञा नहीं दी । फिर गोरा बड़ा होने लगा। । वह कितना बलिष्ठ, उद्दण्ड, साहसी और चपल था उसने केवल बारह वर्ष की आयु में ही एक ही हाथ के तलवार के वार से सिंह को मार दिया था। और सोलह वर्ष की अवस्था में कुछ साथियों सहित बड़ी यवन सेना को लूट लाया था । इसके उपरान्त वृद्धा ने अपने मन को बलपूर्वक खींच कर भगवान में लगा दिया ।
कुछ क्षण पश्चात् उसे फिर स्मरण आया कि आज से बीस वर्ष पहले उसके घर में नववधू आई थी| वह कितनी सुशीला, आज्ञाकारिणी और कार्य दक्ष है| आज भी जब वह मुझे स्नान करा रही थी तो किस प्रकार उसकी आँखें सजल उठी थी| गोरा के उद्दण्ड और क्रोधी स्वभाव के कारण उसे कभी भी इस घर में पति-सम्मान नहीं मिला| फिर भी वह उसकी सेवा में कितनी तन्मय और सावधान रहती है| वृद्धा ने फिर अपने मन को एक झटका सा देकर सांसारिक चिन्तन से हटा लिया और उसे भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में लगा दिया । वह ओम नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र को गुनगुनाने लगी ।
कुछ क्षण पश्चात् फिर उसे स्मरण आया कि राव रतनसिंह, महारानी पद्मिनी और रनिवास की अन्य ललनायें उसका कितना अधिक सम्मान करती हैं महारानी पद्मिनी की लावण्यमयी सुकुमार देह, उसके मधुर व्यवहार और चित्तौड़ दुर्ग पर आई इस आपति का उसे ध्यान हो आया । उसने आँखें उठा कर प्राची की ओर देखा और नेत्रों से दो जल की बूंदें गिर कर उनके आसन में विलीन हो गई |
इतने में उसका पंचवर्षीय पौत्र बीजल नीद से उठ कर दौड़ा-दौड़ा आया और सदैव की भाँति उसकी गोद में बैठ गया ।
“आज दूसरे घरों में आग क्यों जल रही है दादीसा ? बीजल ने वृद्धा के मुँह पर अपने दोनों हाथ फेरते हुए पूछा । वृद्धा ने उसे हृदय से लगा लिया उसके धैर्य का बाँध टूट पड़ा, नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हुई और उसने बीजल के सुकुमार सिर को भिगो दिया । बीजल अपनी दादी के इस विचित्र व्यवहार को बिल्कुल नहीं समझा और वह मुँह उतार कर फिर बैठ गया ।
वृद्धा ने मन ही मन कहा - ‘‘इसे कैसे बताऊँ कि अभी कुछ ही देर में इस घर में भी आग जलने वाली है जिसमें मैं, तुम्हारी माता और तुम सभी –“ वृद्धा की हिचकियाँ बन्ध गई । उसने अपनी बहू को आवाज दी - ‘‘बीजल को ले जा ?’ वह मेरे मन को अन्तिम समय में फिर सांसारिक माया में फँसा रहा है।’’
पंवारजी दही के लिए हठ करती हुई अपनी तीन वर्षीया पुत्री मीनल को गोद में लेकर आई और बीजल को हाथ पकड़ कर घर के भीतर ले गई ।
“कितना सुन्दर और प्यारा बच्चा है । ठीक गोरा पर ही गया है । बची भी कितनी प्यारी है । जब वह तुतली बोली में मुझे दादीथा कह कर पुकारती है तो कितनी भली लगती है। कुछ ही क्षणों के बाद ये भी अग्निदेव के समर्पित हो जायेंगे । हाय ! मेरे गोरा का वंश ही विच्छेद हो जाएगा | एक गोरा का क्या आज न मालूम कितनों के वंश-प्रदीप बुझ रहे हैं । यह सोचते हुए वृद्धा की आँखों में फिर अश्रुधारा प्रकट हो गई । उसने बड़ी कठिनाई से अपने को सम्हाला; सुषुप्त आत्मबल का आह्वान किया और फिर नेत्र बन्द करके ईश्वर के ध्यान में निमग्न हो गई ।गोरा अब तक यंत्रवत् सब कार्य करने में तल्लीन था । उसने अब तक न निकट भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं पर ही कुछ सोचा था और न अपने मन को ही किसी विकार से उद्वेलित किया था । पर जब जौहर-व्रत सम्बन्धी सम्पूर्ण व्यवस्था समाप्त हो गई तब उसने भाव रहित मुद्रा में प्राची की ओर देखा । उषाकाल प्रारम्भ होने ही वाला था । प्राची में उदित अरूणाई के साथ ही साथ उसे अपनी माता का स्मरण हो आया । उसे स्मरण हो आया कि एक घड़ी पश्चात् सूर्योदय होते ही उसकी पूजनीया वृद्धा माँ अग्निप्रवेश करेगी और वह पास खड़ा-खड़ा उस दृश्य को देखेगा । वह कठोर हृदय था, कूर स्वभाव का था, साहसी और वीर था पर उच्चकोटि का मातृभक्त भी था । अब तक कभी भी उसने माता की अवज्ञा नहीं की थी । माता भी उसे बहुत अधिक प्यार करती थी और वह भी माता का बहुत अधिक सम्मान करता था । पिता का प्यार उसे प्राप्त नहीं हुआ था, पर माता की स्नेह सिंचित शीतल गोद में लिपटकर ही वह इतना साहसी और वीर बना था । माता का अमृत तुल्य पय-पान कर ही उसने इतना बल-वीर्य प्राप्त किया था; उसकी ओजमयी वाणी से प्रभावित होकर उसने अब तक शत्रुओं का मान मर्दन किया था । उसके स्वास्थ्य, कल्याण और उसकी दीर्घायु के लिए उसकी माता ने न मालूम कितने ही व्रत-उपवास किये थे, कितने देवी-देवताओं से प्रार्थना की थी; यह सब गोरा को ज्ञात था । माता के कोटि-कोटि उपकारों से उसका रोम-रोम उपकृत और कृतज्ञ हो रहा था|
तीर्थों में गंगा सबसे पवित्र है, पर गोरा की दृष्टि में उसकी माता की गोद से बढ़ कर और कोई तीर्थ पवित्र नहीं था । उसके लिए मातृ-सेवा ही सब तीर्थ-स्नान के फल से कहीं अधिक फलदायी थी । माता गोरा के लिए आदि शक्ति योगमाया का ही दूसरा रूप है । वही उसके लिए विपत्ति के समय रक्षा का विधान करती और सुख के समय उसे खिलातीपिलाती और अपनी पवित्र गोद में लिपटाती । वही परम पवित्र माता कुछ ही क्षण पश्चात् चिता में प्रवेश कर भस्म हो जाएगी और भस्म इसलिए हो जायेगी कि गोरा जैसा निर्वीर्य पुत्र उसे बचा नहीं सकता । उसे अपने पुरुषार्थ पर लज्जा आई, विवशता पर क्रोध आया ।
उसने मन ही मन अपने आपको धिक्कारा - “मैं कितना असमर्थ हूँ कि आज अपनी प्राणप्रिय माताजी को भी नहीं बचा सकता ।
फिर उसे ध्यान आया -‘‘मेरी जैसी हजारों माताएँ आज चिता-प्रवेश कर रही हैं और मैं निर्लज्ज की भाँति खड़ा-खड़ा उन्हें देख रहा हूँ, अपने हाथों चिता में आग लगा रहा हूँ, धिक्कार है मेरे पुरूषार्थ को, धिक्कार है मेरे बाहुबल को और धिक्कार है मेरे क्षत्रियत्व को। गोरा उत्तेजित हो उठा और शत्रुओं पर टूट पड़ने के लिए कमर में टंगी हुई तलवार लेने के लिए झपट पड़ा । सहसा उसे ध्यान आया कि अभी तो जौहर-व्रत पूरा करवाना है। वह रुका और पूर्वी तिबारी में बैठी हुई माँ के चरणों में अन्तिम प्रणाम करने के लिए चल पड़ा ।
गोरा ने अत्यन्त ही भक्तिपूर्वक ईश्वर ध्यान में निमग्न माता को चरण छूकर प्रणाम किया । माता ने पुत्र को देखा और पुत्र ने माता को देखा । दोनों ओर से स्नेह-सरितायें उमड़ पड़ी । गोरा अबोध शिशु की भाँति माता की गोद में लेट गया । उसका पत्थर तुल्य कठोर हृदय भी माता की शीतल गोद का सान्निद्य प्राप्त कर हिमवत् द्रवित हो चला । माता ने अपना सर्वसुखकारी स्नेहमय हाथ गोरा के माथे पर फेरा और कहने लगी ।“गोरा तुम्हारा परम सौभाग्य है । स्वतंत्रता, स्वाभिमान, कुल-मर्यादा और सतीत्व रूपी स्वधर्म पर प्राण न्यौछावर करने का सुअवसर किसी भाग्यवान क्षत्रिय को ही प्राप्त होता है। तुमन आज उस दुर्लभ अवसर को अनायास ही प्राप्त कर लिया है । ऐसे ही अवसरों पर प्राणोत्सर्ग करने के लिए राजपूत माताएँ पुत्रों को जन्म देती है । वास्तव में मेरा गर्भाधान करना और तुम जैसे पुत्र को जन्म देना आज सार्थक हुआ है । बेटा, उठ ! यह समय शोक करने का नहीं है ।’ कहते हुए माता ने बड़े ही स्नेह से गोरा के आँसू अपने हाथों से पोंछे ।
मातृ-प्रेम में विह्वल गोरा पर इस उपदेश का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा । उसकी आँखों का बाँध टूट गया । वह अबोध शिशु की भाँति माता से लिपट गया । रण में शत्रुओं के लिए महाकाल रूपी गोरा आज माता की गोद में दूध-मुँहा शिशु बन गया था । कौन कह सकता था कि क्रूरता, कठोरता, रूद्रता और निडरता की साक्षात् मूर्ति, माँ की गोद में अबोध शिशु की भाँति सिसकियाँ भरने वाला यही गोरा था ।
माता ने अपने दोनों हाथों के सहारे से गोरा को बैठाया । वह फिर बोली - ‘‘बेटा! तुझे अभी बहुत काम करना है । मुझे जौहर करवाना है, फिर बहू को सौभाग्यवती बनाना है और बच्चों को भी ..... | यह कहते-कहते वात्सल्य का बाँध भी उमड़ पड़ा, पर उसने तत्काल ही अपने को सम्हाल लिया । वह आगे बोल उठी – ‘‘तेरा इस समय इस प्रकार शोकातुर होना उचित नहीं । तेरी यह दशा देख कर मेरा और बहू का मन भी शोकातुर हो जाता है । पवित्र जौहर-व्रत के समय स्त्रियों को विकारशून्म मन से प्रसन्नचित्त हो चिता में प्रवेश करना चाहिए तभी जौहर-व्रत का पूर्ण फल मिलता है, नहीं तो वह आत्महत्यातुल्य निकृष्ट कर्म हो जाता है ।
इतने में पुरोहित ने आकर सूचना दी - माताजी सूर्योदय होने वाला है; चिता-प्रवेश का यही शुभ समय है । माता तुरन्त वहाँ से उठ खड़ी हुई और चिता के पास आकर खड़ी हो गई । गोरा फूट-फूट कर रोने लगा । पुरोहित ने सांत्वना बंधाते हुए कहा -
“गोराजी किसके लिए अज्ञानी पुरूष की भाँति शोक करते हो । क्योंकि -
’’न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||’’अब गोरा ने अपने को सम्भाला । उसने अपनी स्त्री और बालकों सहित माँ की परिक्रमा की । माता ने उनका माथा सूघा और आशीर्वाद दिया । “शीघ्रता करिए। पुरोहित ने चिता पर गंगाजल छिड़कते हुए कहा ।
वृद्धा ने तीन बार चिता की परिक्रमा की और फिर प्राची में उदित होते हुए सूर्य को नमस्कार किया और प्रसन्न मुद्रा में वह चिता पर चढ़कर बैठ गई । उसने अपने मुँह में गंगाजल, तुलसी-पत्र और थोड़ा सा स्वर्ण रखा और ब्राह्मणों को भूमिदान करने का संकल्प किया ।
गोरा ने कहा - ‘‘अन्तिम प्रार्थना है माँ ! स्वर्ग में मेरे लिए अपनी सुखद गोद खाली रखना और यदि संसार में जन्म लेने का अवसर आए तो जन्म-जन्म में तू मेरी माता और मैं तेरा पुत्र होऊँ ।’
माता ने हाथ की उंगली ऊपर कर ईश्वर की ओर संकेत किया और “मेरे दूध की लज्जा रखना बेटा ।’’ कह कर आँखें बन्द कर ध्यानमग्न हो गई । पुरोहित ने वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ अग्नि प्रज्जवलित की । गोरा ने देखा स्वर्णिम लपटों से गुम्फित उसकी माता कितनी दैदीप्यमान लग रही थी । देवताओं के यज्ञ-कुण्ड में से प्रकटित जग-जननी दुर्गा के तुल्य उसने ज्वाला-परिवेष्ठित अपनी माता के मातृ स्वरूप को मन ही मन नमस्कार किया और आत्मा की अमरता का प्रतिपादन करता हुआ गुनगुना उठा -
’ ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’
पुरोहित ने चिता में शेष घृत को छोड़ते हुए श्लोक के दूसरे चरण को पूरा किया‘‘न चैनं कलेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः ।।'
गोरा ने कर्त्तव्य के एक अध्याय को समाप्त किया और वह दूसरे की तैयारी में जुट पड़ा । अलसाए हुए नेत्रों सहित वह उत्तरी चिता के जाकर खड़ा हो गया । पंवारजी ने चंवरी के समय के अपने वस्त्र निकाले, उन्हें पहना, माँग में सिन्दूर भरा, आँखों में काजल लगाया और वह नवदुल्हन सी सजधज कर घर के बाहर आ गई । उसने बीजल का हाथ पकड़ते हुए मीनल को गोरा की गोद में देते हुए मुस्करा कर कहा -
“लो सम्हालो अपनी धरोहर, मैं तो चली।“ गोरा ने बीजल की अंगुली पकड़ ली और मीनल को अपनी गोद में बैठा लिया । उसने देखा पंवारजी आज नव-दुलहन से भी अधिक शोभायमान हो रही थी । वह प्रसन्न मुद्रा में थी और उसके चेहरे पर विषाद की एक भी रेखा नहीं थी । गोरा ने मन ही मन सोचा - ‘‘मैंने इस देवी की सदैव अवहेलना की है। इसका अपमान किया है । अन्तिम समय में थोड़ा पश्चाताप तो कर लूं ॥“
उसने कहा - ‘‘पंवारजी मैंनें तुम्हे बहुत दुःख दिया है । क्या अन्तिम समय में मेरे अपराधों को नहीं भूलोगी ।'
“यह क्या कहते हैं नाथ आप । मैं तो आपके चरणों की रज हूँ और सदैव आपके चरणों की रज ही रहना चाहती हूँ । परसों गौरी-पूजन (गणगौर) के समय भी मैंनें भगवती से यही प्रार्थना की थी कि वह जन्म-जन्म में आपके चरणों की दासी होने का सौभाग्य प्रदान करें |'' “पंवारजी मैंनें आज अनुभव किया कि तुम स्त्री नहीं साक्षात् देवी हो।
“सो तो हूँ ही । परम सौभाग्यवती देवी हूँ इसलिए पति की कृपा की छाया में स्वर्ग जा रही हूँ ।’ यह कह कर पंवार जी तनिक सी मुस्कराई और फिर बोल उठी -
“इस घर में आपके पीछे होकर आई पर स्वर्ग में आगे जा रही हूँ । क्यों नाथ ! मैं बड़ी हुई या आप ?’ परिस्थितियों की इस वास्तविक कठोरता के समय किये गये इस व्यंग से गोरा में किंचित् आत्महीनता की भावना उदय हुई उसके मानस प्रदेश पर भावों का द्वन्द्व मच गया और उसकी वाणी कुण्ठित हो गई ।
इसके उपरान्त पंवारजी आगे बढी । उसने बीजल और मीनल को चूमा, उनके माथों पर प्यार का हाथ फेरा । स्वामी की परिक्रमा की, उसके पैर छुए और वह बोली -
“नाथ ! स्वर्ग में प्रतीक्षा करती रहूँगी, शीघ्र पधार कर इस दासी को दर्शन देना । स्वर्ग में मैं आपके रण के हाथों को देखेंगी । देखेंगी आप किस भाँति मेरे चूड़े का सम्मान बढ़ाते हैं ।’’गोरा ने सोचा - “ये अबला कहलाने वाली नारियाँ पुरूषों से कितनी अधिक साहसी, धैर्यवान और ज्ञानी होती हैं। इस समय के साहस और वीरत्व के समक्ष युद्धभूमि में प्रदर्शित साहस और वीरत्व उसे अत्यन्त ही फीके जान पड़े | उसने पहली बार अनुभव किया कि नारी पुरूषों से कहीं अधिक श्रेष्ठ होती हैं । अब उसके साहस, धैर्य और वीरता का गर्व गल चुका था । वह बोल उठा -
पंवारजी तुमने अन्तिम समय में मुझे परास्त कर दिया। मैं भगवान सूर्य की साक्षी देकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हारे चूड़े के सम्मान को तनिक भी ठेस नहीं पहुँचने ढूँगा।" बोली पंवारजी ने सब शास्त्रीय विधियों को पूर्ण किया और फिर पति से हाथ जोड कर बोली-
“नाथ मैं चिता में स्वयं अग्नि प्रज्जवलित कर दूँगी। आप मोह और ममता की फॉस इन बच्चों को लेकर थोड़े समय के लिए दूर पधार जाइये।”
गोरा मन्त्र मुग्ध सा -
‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’
गुनगुनाता हुआ दोनों बालकों को गोद में उठाकर घर के भीतर चला गया ।
“दादीसा जल क्यों गए पिताजी ? बीजल ने उदास मुद्रा में पूछा ।
“दादीसा भगवान के पास चली गई है बेटा।”
‘‘हम लोग क्यों नही चलते ।’’
“अभी थोड़ी देर बाद चलेंगे बेटा।'
गोरा ने अपने पुत्र के भोले मुँह को देखा । वह उसकी जिज्ञासा को किन शब्दों में शान्त करे, यह सोच नहीं सका ।
इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी और उसने गोरा की गोद से कूद कर माता के पास जाने के लिए अपने नन्हें से दोनों पैरों को नीचे लटका दिया|
गोरा ने मचलती हुई मीनल के चेहरे को देखा । उसे उसका निर्दोष, भोला और करूण मुख अत्यन्त ही भला जान पड़ा ।
वह आंगन में रखी चारपाई पर बैठ गया और उसने पुत्र और पुत्री को दोनों हाथों से वक्षस्थल से चिपटा लिया । वात्सल्य की सरिता उमड़ चली । वह सोचने लगा - “किस प्रकार अपने हृदय के टुकड़ों को अपने ही हाथों से अग्नि में फेंकूं ? हाय ! मैं कितना अभागा हूँ, लोग सन्तान प्राप्ति के लिये नाना प्रकार के जप-तप करते और कष्ट उठाते हैं पर मैं आप, अपने सुमन से सुन्दर सुकुमार और निर्दोष बच्चों के स्वयं प्राण ले रहा हूँ। मैं सन्तानहत्यारा नहीं बनूंगा, चाहे म्लेच्छ इन्हें उठाकर ले जायें पर अपने हाथों इनका वध नहीं करूँगा ।’’इतने में “भाभू जाऊँ , भाभू जाऊँ “ कह कर मीनल मचल उठी ।
गोरा उन बालकों को गोदी में उठा कर छत पर ले गया । उसने देखा - ‘‘धॉयधाँय कर सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । उनमें न मालूम कितने इस प्रकार के निर्दोष बालकों को स्वाहा किया गया था । उसने देखा मुख्य जौहर-कुण्ड से निकल रही भयंकर अग्नि की लपटों ने दिन के प्रकाश को भी तीव्र और भयंकर बना दिया था ।
“हा, महाकाल ! मुझसे यह जघन्य कृत्य मत करा। हा, देव ! इतनी कठोर परीक्षा तो हरिशचन्द्र की भी नहीं ली थी ।' कहता हुआ गोरा बालकों का मुँह देख कर रो पड़ा । पिता का हृदय था, द्रवित हो बह चला ।
उसने फिर पूर्व की ओर दृष्टिपात किया । उसकी दृष्टि सुल्तान के शिविर पर गई । उसका रोम-रोम क्रोध से तमक उठा । प्रतिहिंसा की भयंकर ज्वाला प्रज्जवलित हो उठी । द्रवित हृदय भी उससे कुछ कठोर हुआ । उसने सोचा -
“मैं क्यों शोक कर रहा हूँ । मुझे तो अपने सौभाग्य पर गर्व करना चाहिए ।“ उसे अपनी माता और पत्नी का चिता-प्रवेश और उपदेश स्मरण हो आया । ‘
‘मैं अपने इन नौनिहालों को सतीत्व और स्वतंत्रता रूपी स्वधर्म की बलि पर चढ़ा रहा हूँ । वास्तव में मैं भाग्यवान हूँ ।’ वह तमक कर उठ बैठा और बच्चों को गोदी में उठा कर कहने लगा-
“चलो तुम्हें अपनी भाभू के पास पहुँचा आऊँ ',
’’नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।’’
गुनगुनाता हुआ वह पंवारजी की चिता के पास बालकों को लेकर चला आया । चिता इस समय प्रचण्डावस्था में धधक रही थी । गोरा ने अपने हृदय को कठोर किया और भगवान का मन में ध्यान किया । फिर अपना दाहिना पैर कुछ आगे करके वह दोनों बालकों को दोनों हाथों से पकड़ कर थोड़ा सा झुला कर चिता में फेंकने वाला था कि पुत्र और पुत्री चिल्ला कर उसके हाथ से लिपट गए । उन्होंने अपने नन्हें-नन्हें सुकोमल हाथों से दृढ़तापूर्वक उसके अंगरखे की बाँहों को पकड़ लिया और कातरता और करूणापूर्ण दृष्टि से टुकर-टुकर पिता के मुँह की ओर देखने लग गए । ऐसा लगा मानों अबोध बालकों को भी पिता का भीषण मन्तव्य ज्ञात हो गया था । उस समय इन बालकों की आँखों में बैठी हुई साकार करूणा को देखकर क्रूर काल का भी हृदय फट जाता । गोरा उनकी आँखों की प्रार्थना स्वीकार कर कुछ कदम चिता से पीछे हट गया । चिता की भयंकर गर्मी और भयावनी सूरत को देखकर मीनल अत्यन्त ही भयभीत हो गई थी; उसने भाभू जाऊँ, भाभू जाऊँ की रट भय के मारे बन्द कर दी । बीजल इस नाटक को थोड़ा बहुत समझ चुका था । उसने पिता से कहा –
“पिताजी ! मैं भी ललाई में तलँगा । मुझे आग में क्यों फेंकते हो?
ममता की फिर विजय हुई । गोरा ने उन दोनों बालकों को हृदय से लगा लिया । उनके सिरों को चूमा और सोचा, – “पीठ पर बाँध कर दोनों को रणभूमि में ही क्यों नहीं ले चलूं ?“ थोड़ी देर में विचार आया, - “ऐसा करने से अन्य योद्धा मेरी इस दुर्बलता और कायरता के लिए क्या सोचेंगे ?“ ये दो ही नहीं हजारों बालक आज भस्मीभूत हो। रहे हैं ।
वह फिर साहस बटोर कर उठा - अपने ही शरीर के दो अंशो को अपने ही हाथों आग में फेंकने के लिए । उसने हृदय कठोर किया, भगवान से बालकों के मंगल के लिए प्रार्थना की; अपने इस राक्षसी कृत्य के लिए क्षमा माँगी और मन ही मन गुनगुना उठा -“हा क्षात्र-धर्म, तू कितना कूर और कठोर है ।“ बीजल नहीं पिताजी-नहीं पिताजी' चिल्लाता हुआ उसके अंगरखे की छोर पकड़ कर चिपट रहा था, मीनल ने कॉपते हुए अपने दोनों नन्हें हाथ पिता के गले में डाल रखे थे । दोनों बालकों की करूणा और आशाभरी दृष्टि पिता के मुंह पर लगी हुई थी ।
गोरा ने ऑखें बन्द की और कर्त्तव्य के तीसरे अध्याय को भी समाप्त किया । अग्नि ने अपनी जिह्वा से लपेट कर दोनों बालकों को अपने उदर में रख लिया । ममता पर कर्त्तव्य की विजय हुई ।
गोरा पागल की भाँति लपक कर घर के भीतर आया । अब घर उसे प्रेतपुरी सा भयंकर जान पड़ा । वह उसे छोड़ कर बाहर भागना चाहता था कि सुनाई दिया -
“कसूमा का निमन्त्रण है, शीघ्र केसरिया करके चले आइए।’’
अब गोरा कर्त्तव्य का चौथा अध्याय पूर्ण करने जा रहा था । उसे न सुख था और न दु:ख, न शोक था और न प्रसन्नता । वह पूर्ण स्थितप्रज्ञ था । मार्ग में धू-धू करती हुई सैकड़ों चिताएँ जल रही थी । भुने हुए मानव माँस से दुर्गन्ध उठी और धुआँ ने उसे तनिक भी विचलित और प्रभावित नहीं किया । वह न इधर देखता था और न उधर, बस बढ़ता ही जा रहा था ।

लेखक:- स्व.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील